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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसान आंदोलन का नया स्वरूप- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

किसान आंदोलन का नया स्वरूप- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

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published Published on Oct 5, 2018   modified Modified on Oct 5, 2018
किसानों के प्रदर्शन ने यह साबित कर दिया है कि खेती किसानी में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. यह तो तय है कि जैसे-जैसे उत्पादन में उद्योग धंधे और पूंजी का महत्व बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे किसानों की हालत बिगड़ती जायेगी. दुनियाभर के पूंजीवादी देशों को देखकर लगता है कि बिना सरकारी सहायता के किसानों की हालत अच्छी नहीं हो सकती है.

भारत में पूंजीवाद के बढ़ते कदम ने किसानों का जीना मुश्किल कर दिया है. लेकिन, एक बात समझ लेना जरूरी है कि भारत में खेती-किसानी केवल उत्पादन प्रणाली नहीं है, यह यहां की संस्कृति है. सरकार यदि इसके प्रति सचेत नहीं हुई, तो मुश्किल में पड़ सकती है. इस आंदोलन को इस बात की केवल भूमिका मात्र समझना चाहिए.

जो लोग अपने 50-55 की उम्र में होंगे, उनमें से बहुत से लोगों को यह बात याद होगी कि उनके बचपन में किसानों पर लेख लिखते समय स्वतःस्फूर्त वाक्य होता था कि ‘भारतीय किसान कर्ज में पैदा होते हैं, कर्ज में जवान होते हैं और कर्ज में ही मर जाते हैं'. अब विकास के साथ स्थिति बदल गयी है. अब हर साल लाखों किसान जवान होने के पहले ही आत्महत्या कर लेते हैं.मजे की बात यह है कि हर सरकार अपने को किसानों की सरकार बताती है और किसानों की आत्महत्या रुकती ही नहीं है.

किसानों के कल्याण के लिए नयी नीतियां बनती हैं और उसका फायदा पूंजीपतियों को हो जाता है. उनके दिल्ली आने से लोगों को एेतराज होता है कि राजधानी के राग-रंग की बरबादी हो जायेगी. यदि वे अपनी जगह पर प्रदर्शन करते हैं, तो उन्हें नक्सल कह दिया जाता है और फिर गोलियां मिलती हैं. यह एक पहेली है, जो बहुत कम लोगों को समझ में आ सकती है.

शायद खेती-किसानी गये जमाने के अवशेष माने जाने लगे हैं. भारत के नकली शहरी-सभ्यता के लिए किसान कौतुहल का विषय है.
मुझे याद है, एक बार किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसानों का एक विशाल प्रदर्शन दिल्ली में हुआ था. शहरी लोग उसे देखने ऐसे जमा होते थे, जैसे किसान पिछली सदी के अवशेष हों. यदि आज के हमारे नीति-निर्माताओं की समझ भी ऐसी हो, तो आप किसानों की दुर्गति का कारण समझ सकते हैं.

इसकी समस्याएं क्या हैं? एक तो इन्हें खेती के संसाधनों को लेकर परेशानी है. खाद, बीज, दवाइयां और डीजल सब कुछ महंगा होता जा रहा है और इससे लागत बढ़ जाती है. कभी तो सरकार अनाज का आयात कर लेती है और अपेक्षित कीमत से कम ही पर सामान बेचना पड़ता है. जैसे पिछली बार बिहार के सीमांचल इलाके में मक्के की फसल की बदहाली ने कई किसानों की हालत बिगाड़ दी.

कभी फसल ज्यादा हो गयी, तो कीमत ऐसे ही कम हो जाती है. हर हाल में या तो इनके लागत से इन्हें काम कीमत मिलती है या फिर थोड़ा-बहुत फायदा हो पाता है. आप समझ सकते हैं यदि कोई किसान केवल दस हजार रुपये देर से मिलने के कारण इतना क्रुद्ध हो सकता है कि ढाई सौ किलाेमीटर पैदल चलकर दिल्ली आ जाये, तो उसकी हालत क्या होगी.

कपास और मक्के जैसी चीजों की खेती में बड़े पैमाने में पूंजी लगती है और यदि फसल बरबाद हो जाये, तो किसान लंबे कर्जे में डूब जाता है. फसल की कीमत कभी अच्छी हो भी, तो इसका असली फायदा बिचौलियों को मिल जाता है. सरकार यदि फसल की कीमत को तय करती है, तो किसान के लिए बेचना आसान नहीं रहता है.

फसल की लागत और उसे बेचने की समस्या के अलावा उनके कर्ज की समस्या भी गंभीर है. सरकार पूंजीपतियों को सस्ती दर पर कर्ज देती है, और वापस नहीं मिलने पर उसे बट्टे खाते में डाल देती है. कर्ज नहीं लौटाने पर भी उनकी सेहत पर कोई खास असर नहीं होता है.


लेकिन, किसानों को कर्ज ज्यादा ब्याज दर के साथ मिलता है. इस बात का क्या औचित्य है कि ट्रैक्टर या अन्य कृषि उपकरणों के लिए ब्याज दर बारह से चौदह प्रतिशत हो. मौसम की मार से परेशान किसान कई बार यदि समय पर कर नहीं चुका सके, तो इस दर में वृद्धि भी हो जाती है.

आज के दिनों में उनकी सबसे बड़ी समस्या हो गयी है सामाजिक सुरक्षा की. नयी आर्थिक नीति ने हर आवश्यकता को बाजार को सौंप दिया है. किसान अपने बच्चों की शिक्षा और परिवार के स्वास्थ्य के लिए अब निजी क्षेत्र पर निर्भर रहने लगा है. उसकी आमदनी का बड़ा हिस्सा उसमें चला जाता है.

यदि उनके साथ कोई दुर्घटना घट जाये, कोई गंभीर बीमारी हो जाये, तो फिर जीवन संकट में पड़ जाता है. बुढ़ापे की सुरक्षा के लिए वैसे भी उनके पास कुछ बच नहीं जाता है. इस तरह से ये असुरक्षित किसान अपने जीवन को ही एक बोझ समझने लगते हैं.

आज के युग में जब उन तक सारी सूचनाएं पहुंच जाती हैं, एक आम नागरिक की तरह किसानों में भी अच्छे जीवन की लालसा होती है. उन्हें भी पता है कि सरकार अपने प्रचार में ही हजारों करोड़ रुपये खर्च कर देती है, तो फिर उनका आंदोलन क्यों नहीं हो?

भारत के लोगों को भूलना नहीं चाहिए कि महात्मा गांधी किसान परिवार से नहीं थे, लेकिन उन्होंने यह समझा कि यदि अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन को सफल बनाना है, तो किसानों को साथ लेना होगा. और इसलिए ईमानदारीपूर्वक उन्होंने किसानों को एक अच्छे भविष्य का सपना दिया. लेकिन आजादी के बाद लगातार किसानों की हालत खराब ही होती चली गयी. और अब तो किसानों को बरबाद करने का ही प्रपंच चल रहा है. जगह जगह-उनकी जमीनों को बड़े पूंजीपति कब्जा कर रहे हैं.

किसान जब तक बाजार को ठीक से समझ पाता है, तब तक वह लुट चुका होता है. आजकल कुछ भारी डिग्री वाले लोग उन्हें किसानी में आमदनी बढ़ाने के सुस्खे बेच रहे हैं. लेकिन, इन डिग्रीधारियों को समझ नहीं है कि किसानी गमलों में सब्जी उगाने जैसी कोई चीज नहीं है. इस बार का आंदोलन एक नये तरह के किसान आंदोलन का आगाज भी हो सकता है. आंदोलनकारी किसानों पर लाठी-गोली चलाना सरकार के लिए खतरे को आमंत्रण देना हो सकता है.

यह समझना जरूरी है कि किसानों और मध्यवर्गीय आंदोलनों में एक अंतर है. किसान लंबे समय तक ज्यादा संगठित होकर लड़ सकते हैं. उन्हें डराकर आंदोलन को खत्म करना संभव नहीं है. उन्हें यदि कोई गांधी मिल जाये, तो यह युग परिवर्तनकारी क्षण भी हो सकता है. इस बार का किसान आंदोलन भारत में नवउदारवादी युग की समाप्ति की घोषणा भी हो जाये, तो आश्चर्य नहीं.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1211645.html


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