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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसानों के लिए कसना होगी कमर- मृणाल पांडे

किसानों के लिए कसना होगी कमर- मृणाल पांडे

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published Published on Sep 9, 2016   modified Modified on Sep 9, 2016
मृणाल पांडे। किसान से लेकर सरकार और बाजार तक इस बार खुश हैं कि मानसून अच्छा है। किंतु किसानी का भविष्य एक ही अच्छे मानसून से आमूलचूल नहीं सुधर सकता। खेतिहरों के जीवन में लगातार विकास के लिए स्तरीय शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, अनाज का बेहतर विपणन-भंडारण, मुनाफे के सही निवेश से जुड़ी कई तरह की मदद भी जरूरी होती है। किसानी को लाभ का सौदा बनाने की जिम्मेदारी आखिरकार राज्य की है।

इस बार मानसून कुल मिलाकर अच्छा रहने से अन्न्दाता किसानों को काफी राहत मिली है। सरकार बल्ले-बल्ले है कि यूपी चुनावों से पहले खेतों में लहलहाती फसलें ग्रामीण मतदाताओं और अनाज के भावों में संभावित कमी शहरी मतदाताओं के बीच उनकी नीतियों की सक्षमता साबित कर चुकी होंगी। मानसून की कृपा उनके भारी बहुमत से चुने जाने का बायस बनेगी। अखबार अबकी बार बंपर फसलों की सुखद भविष्यवाणी कर देसी बाजारों में तेजी के कयास लगा रहे हैं, वहीं दलाल स्ट्रीट पर कई शेयरों में उछाल दिखने भी लगा है। लेकिन इस समय अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं के लिये परनिंदा या आत्मप्रशंसा से भरी हुई चुनावी राजनीति से ऊपर उठना बहुत जरूरी है ताकि किसानों और किसानी के दीर्घकालीन भविष्य पर समग्रता से विचार हो और माकूल विकास नीतियां बनाई जा सकें।

हर अनुभवी कृषिशास्त्री जानता है कि किसानी का भविष्य एक ही अच्छे मानसून से आमूलचूल नहीं सुधर सकता। खेतिहरों के जीवन में लगातार विकास के लिए स्तरीय शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, अनाज का बेहतर विपणन-भंडारण, मुनाफे के सही निवेश से जुड़ी कई तरह की मदद भी जरूरी होती है। अब घरेलू स्तर पर अनाज के दाम जब तक कम नहीं होते, मांग नहीं बढ़ेगी। अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में हमारे अन्न् की कीमतों को प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले वाजिब रखा जा सके तभी निर्यात से आमदनी होगी। इस समय दुनिया में हर कहीं पर्यावरण बदलने से अन्न् उत्पादन का रूप प्रभावित हो रहा है। डॉलर के मुकाबले रुपया मजबूत हो रहा है जबकि हमारे प्रतिस्पर्धी देशों- ब्राजील, यूरोपीय देश तथा यूक्रेन की मुद्रा कमजोर हो रही है। इससे उनके खाद्यान्न् अपेक्षाकृत सस्ते हैं और उतना ही माल बेचकर भी भारतीय किसान को उनके मुकाबले कम मुनाफा हो रहा है।

खतरे और भी हैं। आज भारत में ऐसे बड़े किसान बहुत कम हैं जो माल का भंडारण खुद कर सकें या कुछ दिनों तक घाटा झेल सकें। आज (औसत जोतों का आकार लगातार घटने से) अधिकतर खेतिहर परिवारों के वारिस छोटे या हाशिये के किसान हैं, जिनके खेत बमुश्किल साल भर लायक अनाज उगा पाते हैं। ऐसे में सूखे या बाढ़ के दौरान कई किसान शहरों में या बड़े किसानों के खेत में मजूरी करते हैं। उनकी नई पीढ़ी शहरों को पलायन करने को मजबूर होती है।

गौरतलब है कि 2009 से 10 के बीच गहरा सूखा पडा था। उसके कुछ साल बाद भी कई राज्यों में अल नीनो के कारण मानसून कमजोर रहा। उस समय तत्कालीन सरकार ने फौरी राहत देने के लिए मनरेगा, लोन माफी, अन्न् भंडारण व्यवस्था तथा न्यूनतम समर्थन मूल्यों में इजाफा सरीखे कुछ जोखिमभरे कदम उठाए थे। इन कदमों को आज राजकोषीय घाटा बढ़ाने वाले कह कर भले निंदा की जा रही हो, पर इनकी वजह से कमजोर मानसूनों के बाद भी गांवों में पैसे और रोजगार की न्यूनतम आवक बनी रही। छोटे किसानों और गरीब शहरी उपभोक्ताओं, दोनों के लिए कम से कम उस कठिन समय में ऐसी योजनाए काफी राहतकारी साबित हुईं। उनके बेहतर विकल्प खोजे जाने बाकी हैं पर पिछले दो सालों में इन योजनाओं पर नई सरकार के लोग उनको विस्तार देने के बजाय उन पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। भूखे किसान कब तक राहत का इंतजार करेंगे?

यह सही है कि मोदी सरकार की कालेधन के खिलाफ की गई घोषणाओं से जमीन के अनापशनाप बढ़े दाम कम हो गए, लेकिन यह भी सही है कि हाशिये के जिन किसानों ने अपनी खेती की जमीन बिल्डरों को बेच दी थी, अब वे अक्सर अधिक मुआवजे के लिये नियमित रूप से धरनों पर बैठ रहे हैं। कई राजनेता उनके गुस्से तथा बिल्डरी लालच को स्वहित में भुना रहे हैं। जब ये मामले अदालत जाते हैं तो कानूनी कार्रवाई का अतिरिक्त खर्च भी किसानों के सिर चढ़ जाता है। लिहाजा किसानों के पक्ष में फैसले आने के बाद भी उनको न तो पूरा लाभ मिलता है, न ही वे प्राप्त अतिरिक्त पूंजी का सही निवेश कर पाते हैं।

हमारा किसान पारंपरिक तौर से बचत का निवेश या तो सोने में करता आया है या फिर जमीन में। इधर, जमीन के भाव कम होते देख उसके परिवार, खासकर युवा बेटे, पड़ोसी शहरों के पब, मॉल में बड़ी गाड़ियों में झुंड के झुंड आते हैं और जमीन बेचने से मिला धन पानी की तरह बहाते हैं। सयाने कह गए हैं कि दोनों हाथों से उलीचो तो एक दिन मिट्टी की खदान भी खाली हो जाती है, ऐसे में जल्द ही वह दिन आएगा जब बिन मेहनत मिला उनका यह कोष रिक्त हो जाएगा। तब वे क्या करेंगे? शायद अपराध की राह पकड़ लें। पंजाब से बिहार तक अमीर किसानों की अगली पीढ़ी का हाल गवाह है कि जवानी का बेरोजगार और दिशाहीन बन जाना भविष्य के लिए कितना खतरनाक होता है।

छोटे किसानों के हाल और बुरे हैं। फसल जब आएगी, तब आएगी, फिलहाल वे सब बढ़ते कृषि खर्चों के कारण महाजनी कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। 1879 में बंकिम ने (जब बंगाल में ऐसी ही स्थिति थी) लिखा था कि बुरे समय में पशु, पशु का और मनुष्य, मनुष्य सबसे बड़ा दुश्मन होता है, और दुश्मनों में भी किसान का सबसे बड़ा दुश्मन महाजन बन जाता है। अब सूदखोर सेठ की जगह महाजनों की टोलियों ने ले ली है, जो सरकारी सहायता प्राप्त छोटे वित्तीय संस्थान बनाकर देशभर में ग्रामीण लोन का स्रोत बन बैठे हैं। इन संस्थानों ने गरीबों का खास हित तो किया नहीं, उल्टे उनके भाड़े के बाहुबलियों से की जा रही उगाही से तंग कितने ही किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं। कई संदिग्ध संस्थानों ने राजनीतिक वरदहस्तों की मदद से तिकड़मभरी (बंगाल के सराधा घोटाले जैसी) चिटफंड स्कीमों से गरीबों की पूंजी से अपनी तिजोरियां भरीं और गायब हो गए। लुटे ग्राहक मर रहे हैं पर उन पर हाथ डालना संभव नहीं।

लिहाजा हमें मानकर चलना चाहिए कि किसानों की दशा में वाजिब सुधार फौरी कर्जामाफी, वित्तीय राहतों या नाटकीय यात्राओं के जरिए नहीं, बल्कि धीरे-धीरे और तर्कसंगत तरीके से ही लाया जाता है। जब तक किसान पूरी तरह सुरक्षित न हो जाएं, उनका हाथ थामना भी राज्य की जिम्मेदारी है। यह खतरनाक है कि युवा किसान किसानी छोड़ रहे हैं। विदर्भ और तेलंगाना के फटेहाल किसानों के बच्चे भी टीवी पर कह रहे हैं कि वे लोन से पढ़ाई-लिखाई करके इंजीनियर या डॉक्टर बनना बेहतर समझते हैं। मगर आज की ग्रामीण शिक्षा का स्तर देखते हुए उनमें से कितनों के सपने पूरे होंगे? इसीलिए अब टाटा, नीलकेणि तथा केलकर सरीखे बड़े लोग लघु ऋणदाता संस्थानों के पुनर्गठन की बात फिर उठा रहे हैं। ऐसे में आलोचना का जोखिम उठा कर भी कहना जरूरी है कि सरकार को सबसे पहले स्याह अतीत से सबक लेकर एक ऐसा नया तंत्र बनाना होगा जो राजनीतिक संरक्षण से संस्थागत घोटालों और शोषण की पुनरावृत्ति पर पक्की रोक लगा सके। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र को दुरुस्त करना भी जरूरी है ताकि युवा पीढ़ी को बिना शहरी पलायन के उनका लाभ मिले। तभी किसान को वाजिब दाम मिलेगा और उसके बच्चों का भविष्य संवरेगा।

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

 


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