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न्यूज क्लिपिंग्स् | कृषि, कर्ज और महंगाई की चुनौतियां

कृषि, कर्ज और महंगाई की चुनौतियां

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published Published on May 30, 2010   modified Modified on May 30, 2010

नई दिल्ली [भारत डोगरा]। जहां एक ओर कृषि नीति के सामने महंगाई व किसानों के कर्ज की ज्वलंत समस्याएं हैं, वहीं दूसरी ओर जलवायु बदलाव के संकट से जूझना भी जरूरी है। वैसे तो पहले भी यह बार-बार अहसास हो रहा था कि न्याय, समता व पर्यावरण हितों की रक्षा और खेती में टिकाऊ प्रगति के लिए कृषि-नीति में बदलाव जरूरी हो गए हैं। अब जब जलवायु बदलाव के कुछ दुष्परिणाम नजर आने लगे हैं और आगे भी विकट स्थिति की आशंका है, न्याय व पर्यावरण रक्षा से जुड़े इन बदलावों की जरूरत अब पहले से और अधिक हो गई है।

सरकारी नीतियों में बड़ा और महत्वपूर्ण झुकाव सबसे कमजोर वर्गो व छोटे किसानों के पक्ष में होना चाहिए। साथ ही गावों के प्रति व कृषि से जुड़ी आजीविकाओं के प्रति भी सरकार का झुकाव हो। यह झुकाव पर्यावरण रक्षा, आपदा-बचाव व राहत कार्यो को बेहतर करने के प्रति भी होना चाहिए। नए खतरों व चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकार को इस तरह का बदलाव अपने बजट वितरण में, अपने प्रशासनिक तंत्र की प्राथमिकताओं में व हर स्तर पर करना होगा। बजट वितरण में बदलाव कर कहीं अधिक बजट का हिस्सा कृषि व पर्यारवरण रक्षा के लिए उपलब्ध करना चाहिए।

सस्ती व टिकाऊ खेती के लिए सरकार की नीतियों में इस तरह का बदलाव बहुत जरूरी है कि वह रासायनिक खाद व कीटनाशक को निरर्थक व हानिकारक सब्सिडी देने के स्थान पर अपने तमाम उपलब्ध वित्तीय, प्रशासनिक, वैज्ञानिक संसाधनों का उपयोग जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिए करे व जैविक कृषि अपनाने वाले किसानों की सहायता करे। भारतीय गावों की स्थिति में जैविक खेती के साथ कम खर्च की खेती, सस्ती खेती व आत्म-निर्भरता की खेती जोड़ना जरूरी है। जो खेती स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर आधारित है, वही आत्म-निर्भर है, वही सस्ती भी है।

हमारा संदर्भ मुख्य रूप से छोटे किसानों का है, जिनके पास खर्च करने की क्षमता बहुत कम है। रासायनिक खाद व कीटनाशकों पर निर्भरता ने उन्हें कर्जग्रस्त कर दिया। अत: स्थानीय तौर पर उपलब्ध गोबर, पत्तियां, फसल अवशेष, गोमूत्र, नीम आदि के बेहतर उपयोग व साथ ही जैव-विविधता व उचित फसल-चक्रों को अपनाकर भूमि के प्राकृतिक उपजाऊपन को बनाए रखने व हानिकारक कीड़ों को दूर रखने का उद्देश्य प्राप्त करना चाहिए।

जैविक कृषि के प्रसार को हमें अलगाव में नहीं देखना है, बल्कि जल व नमी संरक्षण, पेड़ों व चरागाहों की हरियाली व पशुधन की समृद्धि के ऐसे माहौल के साथ-साथ बढ़ाना है, जिसमें जैविक कृषि के पनपने की अच्छी संभावनाएं प्राप्त होती हैं। इसके साथ ही फसलों व प्रत्येक फसल की किस्मों की विविधता व उचित फसल-चक्र भी महत्वपूर्ण है।

हरित क्राति के नाम पर मूलत: फसलों की वे किस्में फैलाई गई, जो अधिक रासायनिक खाद के उपयोग के आधार पर उत्पादकता अधिक बढ़ाने का दावा करती थीं। अत: इन बीजों के आधार पर जैविक कृषि के प्रसार में एक विरोधाभास है। अत: मूलत: हमें परंपरागत बीजों की विरासत की ओर लौटना होगा और इनके आधार पर जैविक कृषि से बेहतर उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास भी करने होंगे। डा. आरएच रिछारिया जैसे शीर्ष वैज्ञानिकों के शोधों से यह स्पष्ट हो गया है कि परंपरागत किस्मों में अनेक ऊंची उत्पादकता देने वाली किस्में मौजूद हैं, जो रासायनिक खाद व कीटनाशक दवा के उपयोग के बिना ऊंची उत्पादकता देने में सक्षम हैं।

सरकार को भूमि-सुधार के क्षेत्र में अपना ध्यान पूरी तरह भूमिहीनों को भूमि उपलब्ध करवाने व उन्हें सफल किसान बनाने पर केंद्रित करना चाहिए। इन भूमिहीनों के साथ उन्हें भी जोड़ देना चाहिए, जो लगभग भूमिहीन ही हैं या जिनके पास नाममात्र को ही भूमि है। इसके लिए वर्तमान सीलिंग कानूनों के तहत बड़े भूस्वामियों से भूमि प्राप्त की जा सकती है। भूदान कार्यक्रम के तहत प्राप्त भूमि जो ठीक से नहीं बंटी, वह भी वितरित की जा सकती है। गाव की जमीन पर जो अवैध कब्जे हैं, वे हटाए जा सकते हैं। शहरों में अनेक धनी परिवार हैं, जिनका गाव की खेती-किसानी से कोई संबंध नहीं रहा और न ही वे भविष्य में खेती कर पाएंगे, उनकी भूमि का एक बड़ा हिस्सा भी गाव के मेहनतकश भूमिहीनों को दिया जा सकता है। वन-विभाग की बहुत-सी जमीन खाली पड़ी है। यह जमीन खेती के लिए भूमिहीन परिवारों को दी जा सकती है। बहुत-सी बंजर पड़ी भूमि को सरकार अपने प्रयास से खेती योग्य बनाकर भूमिहीनों को दे सकती है।

वाटरशेड परियोजनाओं को समता-आधारित खेती से भी जोड़ना चाहिए। भूमि सुधार से जोड़ना चाहिए ताकि गरीब व छोटे किसानों को इन परियोजनाओं का अधिक लाभ मिले। किसी स्थान की फसलें व फसल-चक्र वहा उपलब्ध जल के अनुकूल होनी चाहिए। नई बड़ी परियोजनाओं से कुछ समय के लिए परहेज कर पहले से बनी परियोजनाओं के बेहतर उपयोग पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। नदी-जोड़ परियोजनाओं से परहेज करना चाहिए। किसी बड़े उद्योग की अपेक्षा कृषि व खाद्य उत्पादन के लिए जल-उपलब्धि को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। वायु व जल-प्रदूषण, हानिकारक गैस आदि के खतरों से किसानों की रक्षा होनी चाहिए।

सभी स्तरों पर खेती को खर्चीली बनने से रोकना चाहिए और एक महत्वपूर्ण उद्देश्य यह होना चाहिए कि किसान कर्जग्रस्त होने से बच सकें। इसके बावजूद किसान को कर्ज की जरूरत पड़ ही जाए तो सरकार को कम ब्याज पर व साधारण ब्याज की दर पर कर्ज देना चाहिए। बचत की आदत डालने और सूदखोरी से बचने के लिए स्वयंसहायता समूहों को प्रोत्साहित करना चाहिए।

किसानों को अपनी उपज की वर्तमान कीमत की अपेक्षा कहीं बेहतर कीमत मिलनी चाहिए। खेती-किसानी बहुत कुशलता का कार्य है, अत: कीमत निर्धारण में किसान के कार्य की कुशलता को पूरी मान्यता मिलनी चाहिए। किसान की जरूरतों को समझते हुए किसानों के परिवार के सदस्यों की संख्या का वास्तविकता पर आधारित अनुमान ध्यान में रखना होगा। टिकाऊ खेती को प्रोत्साहित करने के लिए व बिना रासायनिक खाद व कीटनाशक के उगाई गई फसल को स्वास्थ्य के लिए विशेष उपयोगी मानते हुए ऐसी फसल के लिए विशेष प्रोत्साहन व बेहतर कीमत की व्यवस्था होनी चाहिए। किसान व उपभोक्ता एक दूसरे के नजदीक आएं। शोषण करने वाले बिचौलियों की भूमिका न्यूनतम की जानी चाहिए।

फसलों के चुनाव में स्थानीय भोजन के जरूरी खाद्य पदार्थो जैसे अनाज, दलहन, तिलहन, सब्जी को प्राथमिकता देनी चाहिए। दूसरी प्राथमिकता स्थानीय पशुपालन के लिए चारे, कुटीर उद्योगों के लिए जरूरी फसल विशेषकर हाथ की कताई-बुनाई के लिए देसी कपास को मिलनी चाहिए। कृषि की समृद्धि व पशुपालन की समृद्धि को एक-दूसरे का पूरक मानकर आगे बढ़ना चाहिए। सभी पशुओं की भलाई पर ध्यान देना चाहिए व गाय-बैल रक्षा का विशेष प्रयास करना चाहिए।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से जुड़े अनेक खतरों को देखते हुए जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त फसलों के प्रसार पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। ऐसे में कहीं न कहीं हमें महंगाई से बचने और जलवायु परिवर्तन लड़ने में मदद मिलेगी। साथ किसानों की दशा में सुधार भी होगा।


http://in.jagran.yahoo.com/news/business/general/1_12_6450525.html


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