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न्यूज क्लिपिंग्स् | खस्ताहाल बैंकों के साथ कैसे होगा विकास - धर्मेंद्रपाल सिंह

खस्ताहाल बैंकों के साथ कैसे होगा विकास - धर्मेंद्रपाल सिंह

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published Published on Aug 24, 2015   modified Modified on Aug 24, 2015
अब तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी मान लिया है कि सार्वजनिक बैंकों की हालत बेहद खस्ता है। इस साल मार्च तक कर्जदारों के पास देश के सभी बैंकों का 30.9 खरब रुपया फंसा पड़ा था, जिसमें अकेले सार्वजनिक बैंकों के 26.7 खरब रुपए हैं। उनका नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) खतरनाक सीमा पर खड़ा है। खस्ताहाल बैंकों में प्राण फूंकने के लिए कुछ समय पहले वित्त मंत्री ने चार साल में सत्तर हजार करोड़ रुपए देने की घोषणा की थी। पच्चीस हजार करोड़ रुपए की पहली किश्त जारी भी कर दी गई है, फिर भी स्थिति जस की तस है। केवल इस रकम से उनकी धन की तंगी पाटना कठिन है। जरूरत का शेष 1.20 लाख करोड़ रुपया उन्हें बाजार से उगाहना पड़ेगा, जिसके लिए सरकार को अपने शेयर बेचने पड़ेगें।

अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडी के अनुसार चालू वित्त वर्ष में बैंकों को बैड लोन के अभिशाप से मुक्ति नहीं मिलेगी। उलटे यह रकम 4.6 प्रतिशत (मार्च 2015) से बढ़कर 4.8 फीसदी हो जाएगी। बीते साल सार्वजनिक बैंकों का एनपीए तो लक्ष्मण रेखा लांघकर 5.2 प्रतिशत पर पहुंच चुका था, इसमें और इजाफे के आसार हैं। सरकार और वित्त मंत्रालय के आला अधिकारी इस कड़वे सच से वाकिफ हैं। जून में समाप्त हुई तिमाही के परिणामों पर नजर डालने से पता चलता है कि इस दौरान देश में लिस्टेड 39 बैंकों में से 19 का लाभ 95 से 81 प्रतिशत के बीच कम हुआ। इनमें 14 सार्वजनिक बैंक हैं। मुनाफा वृद्धि दर में इजाफा दर्शाने वाले शेष बीस बैंकों में से 11 प्राइवेट हैं। यह तथ्य काबिले गौर है कि गत वर्ष के मुकाबले निजी बैंकों का लाभ 11.1 प्रतिशत बढ़ गया, जबकि सार्वजनिक बैंकों का मुनाफा 21 फीसदी गिर गया है। मतलब यह कि सरकारी नियंत्रण वाले जो बैंक लाभ दर्शा रहे हैं, उनकी हालत भी बहुत अच्छी नहीं है।

बैंक किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं और जब उनकी हालत खस्ता हो, तब अर्थव्यवस्था में सुधार के दावे बेमानी माने जाएंगे। यहां दो बात पर ध्यान दिलाना जरूरी है। पहली, देश के बैंकिंग उद्योग में सार्वजनिक बैंकों की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत से अधिक है और दूसरी, उनमें से अधिकांश आज बीमार हैं। आरबीआई इस कड़वे सच से वाकिफ है, इसी कारण सरकार के भारी दबाव की उपेक्षा कर उसने अगस्त में बैंक दर घटाने से इनकार कर दिया। सरकार थोक महंगाई दर को काबू करने का ढोल पीट रही है, फिर भी मौद्रिक नीति निर्धारित करने वाला हमारा केंद्रीय बैंक (आरबीआई) केवल इस आधार पर रेट गिराने को राजी नहीं। उसे सार्वजनिक बैंकों की सेहत की चिंता है।

आरबीआई की चिंता बेवजह नहीं है। आज जिन 17 बैंकों का एनपीए पांच प्रतिशत का खतरनाक स्तर कूद चुका है, उनमें से 15 सार्वजनिक बैंक हैं। सबसे बुरी हालत यूनाइटेड बैंक (एनपीए - 9.57 फीसदी) की है और इसके बाद इंडियन ओवरसीज बैंक (एनपीए-9.4 फीसदी) का नंबर है। दूसरी ओर निजी क्षेत्र के एचडीएफसी, इंडस और यस बैंक हैं, जिनका एनपीए एक फीसदी से भी कम है।

कर्ज की भारी रकम डूब जाने के कारण बैंक अब बहुत फूंक-फूंककर कदम उठा रहे हैं। उनमें ज्यादा जोखिम उठाने की ताकत भी नहीं बची है। गत एक वर्ष में बैंकों द्वारा दिए गए कर्जों में केवल 9.4 फीसदी का इजाफा हुआ है, जो मौजूदा दशक में सबसे कम है। गत वर्ष यह दर 13.2 प्रतिशत थी। यानी समस्त सरकारी दावों के बावजूद सालभर में सुधार के बजाय 3.8 प्रतिशत की गिरावट आई है। यदि मुद्रास्फीति से तुलना कर हिसाब जोड़ें, तो हालात और खराब दिखते हैं। गत वर्ष जून से इस साल जून के बीच मुद्रास्फीति की औसत दर 5.3 प्रतिशत थी। बैंक ऋण की विकास दर से मुद्रास्फीति दर घटाने (9.4 - 5.3 = 4.1) पर ही असली बढ़ोतरी का पता चलता है। इस हिसाब से ऋ ण विकास दर का आंकड़ा और कम हो जाता है। इसी वजह से आज उद्योगों को ऋ ण मिलने में कठिनाई हो रही है।

पिछले एक साल में दुनिया की मंडी में कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट आई है। इराक से परमाणु समझौता होने के बाद कीमतें और गिर गई हैं। डॉलर मजबूत हुआ है, लेकिन एशिया के अन्य देशों की मुद्रा के मुकाबले रुपया अभी भी मजबूत है। मानसून की स्थिति भी उतनी विकट नहीं है। ये समस्त संकेत सुखद हैं, लेकिन बैंकों द्वारा दिए गए कर्जों की गहराई में जाने पर ही अर्थव्यवस्था का असली चेहरा देखा जा सकता है। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार बनने के बाद बैंकों ने जो ऋण दिए हैं, उनमें से केवल 25 प्रतिशत उद्योगों को मिले, जबकि चालीस फीसदी कर्ज व्यक्तिगत हैं। इससे लगता है कि हमारे बैंक अब उद्योगों को कर्जा देकर अपनी और रकम फंसाने को तैयार नहीं हैं। जोखिम से बचने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत कर्ज मुहैया कराने का सुरक्षित मार्ग अपना लिया है। यह तो सब जानते हैं कि व्यक्तिगत कर्ज की वसूली आसान होती है।

बैंकों की आमदनी का सबसे बड़ा जरिया कर्ज पर मिलने वाला ब्याज (नेट इंटरेस्ट इनकम यानी एनआईआई) होता है। इस मोर्चे पर भी सार्वजनिक बैंक फिलहाल फिसड्डी साबित हुए हैं। जून में एनआईआई में नौ फीसदी इजाफा दर्ज किया गया, जो पिछले 18 साल में सबसे कम है। चार सार्वजनिक बैंकों की एनआईआई तो नेगेटिव रही। जिन 11 बैंकों ने एनआईआई में बेहतरीन 20 प्रतिशत बढ़ोतरी दिखाई है, उनमें से सात बैंक तो निजी हैं। ऐसे में मानना पड़ेगा कि सरकारी शिकंजे में जकड़ा हमारा बैंकिंग सेक्टर खस्ताहाल है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'मेक इन इंडिया" नारा कैसे हकीकत में बदल सकता है?

-लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।

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- See more at: http://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-how-development-can-hauppen-with-sick-banks-


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