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न्यूज क्लिपिंग्स् | खाद्य सुरक्षा क़ानून में विसंगतियां

खाद्य सुरक्षा क़ानून में विसंगतियां

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published Published on Oct 25, 2010   modified Modified on Oct 25, 2010
इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा को लेकर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) और सरकार का अंतरद्वंद्व खुलकर सार्वजनिक रूप से उजागर हो गया है।

ज़्यां द्रेज़ का मानना है कि एनएसी ने चार महीनों की मेहनत के बाद जिस मसौदे को अंतिम रूप दिया है उससे खाद्य सुरक्षा का वादा पूरा कर पाने में सरकार विफल ही रहेगी। मसौदे को एक निराशाजनक दस्तावेज़ करार देते हुए उन्होंने इससे कड़े शब्दों में अपनी असहमति जताई है।

यहां पर ध्यान दिला दें कि पिछले कई वर्षों से ज़्यां द्रेज़ भारत में खाद्य सुरक्षा, भोजन के अधिकार और पोषण व रोज़गार गारंटी क़ानून जैसे कई अहम मुद्दों पर काम कर रहे हैं। इनकी भूमिका इस दिशा में ख़ासी प्रभावी और बेहतरीन समझी जाती है। इसी वजह से जब यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने दोबारा एनएसी का गठन किया तो ज़्यां द्रेज़ को दोबारा इस परिषद का सदस्य बनाया गया।

ऐसा माना जाता रहा है कि एनएसी में द्रेज़ जैसे सामाजिक कार्यकर्ता और विकासोन्मुख अर्थशास्त्र के जानकार के होने से इस क़ानून और मौलिक अधिकारों से जुड़े अन्य कई मुद्दों पर सरकार को एक अच्छी और व्यापक व्यवस्था बनाने में मदद मिलेगी।

लेकिन एनएसी में चार महीनों की मेहनत के बाद खाद्य सुरक्षा क़ानून के नाम पर जो मसौदा सामने आया है, ज़्यां उससे व्यथित और असहमत नज़र आते हैं।

कमज़ोर पड़ती तैयारी
राष्ट्रीय सुरक्षा समिति पिछले चार महीने से प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पर काम कर रही है। लेकिन सरकार के बनाए मापदंडों के चलते समिति को भूख और कुपोषण जैसे मामलों को सक्षम रूप से हल करने में तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

यानी सरकार की अपनी कार्यशैली ही एनएसी के खाद्य सुरक्षा की दिशा में प्रभावी प्रयास के रास्ते में रोड़ा बन गई है।

नतीजा यह है कि तैयार मसौदे का विरोध अब एनएसी से ही शुरू हो गया है और सार्वजनिक भी होने लगा है।

ज़्यां द्रेज़ का मानना है कि इस विषय पर एनएफएसए का अंतिम प्रस्ताव बहुत निराशाजनक है और जिस समाजिक समस्या को सार्थक करने के उद्देश्य से एनएसी का गठन किया गया था वो उससे भटक गया है।


एनएसी ने बड़ी उम्मीदों के साथ अपना कार्य आरंभ किया लेकिन सरकारी दबाव और पाबंदियों के कारण वो अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाई। नतीजा ये हुआ कि खाद्य सुरक्षा को लेकर बनाए गए मूलभूत प्रस्तावों में बुनियादी तत्वों का समावेश नहीं हो पाया है।

भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली छिन्न- भिन्न है। इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि सरकारी मशीनरी अंत्योदय और बीपीएल वर्ग में स्पष्ट अंतर कर पाने में अक्षम रही है।

यहीं पर सरकार के अनाज अधिग्रहण में खामियां उजागर होती हैं जिसके कारण देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार नहीं हो पाया है।

जो लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बाहर हैं उनका तो अस्तित्व ही लगभग खो चुका है। खाद्य सुरक्षा से जुड़े कुछ अन्य अहम मसलों जैसे बाल विकास सेवाएं और वृद्धावस्था पेंशन की तरफ तो किसी का ध्यान ही नहीं गया है।

द्रेज़ के मुताबिक ये कहा जा सकता है कि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण विषय जिनके ऊपर बेहतर काम हो सकता था फिलहाल छूट गए हैं। एमएसी के प्रस्तावों को एक तरह से सरकार की जीत ही कहा जाएगा क्योंकि ये खाद्य सुरक्षा की दिशा में काम करते हुए तो दिखते हैं लेकिन असल में ऐस कुछ है नहीं।

सबसे अहम पहलू यह है कि खाद्य सुरक्षा रोज़गार और जीने के हक़ से जुड़ी एक अहम कड़ी है. जिन आमजन हितकारी नीतियों के कारण लोगों ने दोबारा यूपीए को सत्तासीन होने का मौका दिया था, अगर उनके बारे में दूसरा कार्यकाल ऐसे अनुभवों से भरा रहा तो अगली बार सत्ता का कटोरा यूपीए के हाथ से बाहर हो सकता है।

ऐसे में विशेषज्ञों और लोगों की नज़र अब इस बात पर बनी हुई है कि सोनिया गांधी का सलाहकार परिषद अपने मकसद में क़ामयाब रहता है या फिर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के आगे घुटने टेकता है।

http://www.samaylive.com/nation-hindi/102429.html


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