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न्यूज क्लिपिंग्स् | गंगा के गुनहगार- स्वामी आनंदस्वरुप

गंगा के गुनहगार- स्वामी आनंदस्वरुप

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published Published on Jul 12, 2012   modified Modified on Jul 12, 2012
जनसत्ता 12 जुलाई, 2012: गंगा का नाम लेने मात्र से पवित्रता का बोध होता है। यह देश की एकता और अखंडता का माध्यम और भारत की जीवन रेखा के अतिरिक्त और बहुत कुछ है। गंगा जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी दोनों है। आज भी लगभग तीस करोड़ लोगों की जीविका का माध्यम है। मगर पिछली डेढ़ सदी से गंगा पर हमले पर हमले किए जा रहे हैं और हमें जरा भी अपराध-बोध नहीं है। एक समय में हमारी आस्था इतनी प्रबल थी कि फिरंगी सरकार को भी झुकना पड़ा था।
अंग्रेजी हुकूमत ने गंगा के साथ आगे और छेड़छाड़ न करने का वचन दिया था। उसने बहुत हद तक उसका पालन करते हुए हरिद्वार में भागीरथ बिंदु से अविरल प्रवाह छोड़ कर गंगा की अविरलता बनाए रखी। देश आजाद तो हुआ, पर अंग्रेजों की सांस्कृतिक संतानें भारत में ही थीं और उन्होंने भारत की संस्कृति की प्राण, मां गंगा पर हमले करने शुरू किए। हरिद्वार में पूरी तरह गंगा को बांध कर गंगाजल दिल्ली ले जाया जाने लगा। यह क्रम अब भी बदस्तूर जारी है।
दुर्भाग्य तो यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सिंचाई के लिए लिया जाने वाला यह गंगाजल, दिल्ली में विदेशी कंपनियों द्वारा पीने के लिए बेचा जा रहा है। साथ ही पवित्र गंगाजल कार और शौचालय साफ करने के काम आ रहा है। जरा सोचिए कि जिस गंगा से नहर निकली है, उसमें जल मुख्य धारा से बीस गुना ज्यादा हो और गंगा सूख जाए, ऐसा समझौता कैसे हो सकता है? एक समझौता, जिससे पूरी नदी मृत हो जाए? आगे बढ़ें तो नरौरा में छह सौ क्यूसेक जल में से तीन सौ क्यूसेक परमाणु संयत्र के लिए निकाल लेते हैं और संयंत्र से निकला पानी गंगा में डाल देते हैं। इसे न कोई देखने वाला है न रोकने वाला। परमाणु संयंत्र से निकला पानी भयंकर त्रासदी का कारण हो सकता है।
नरौरा और कानपुर के बीच में नहरों द्वारा पानी निकालने के बाद कानपुर तक नदी में पचास क्यूसेक गंगाजल भी नहीं रह जाता है। और इसी यात्रा के दौरान बाणगंगा और काली नदी जैसी सहायक नदियों के द्वारा उत्तर प्रदेश की चीनी, कागज और अन्य मिलों के साथ घरेलू मल-मूत्र गंगा नदी में डाल कर पूरी नदी की हत्या कर देते हैं। रही-सही कसर कानपुर के छब्बीस हजार से भी अधिक छोटे-बडेÞ उद्योग पूरी कर देते हैं, जिनमें करीब चार सौ चमड़ा शोधन कारखाने भी शामिल हैं।
अंग्रेजी हुकूमत ने वादा किया था कि बिना हिंदू समुदाय से सलाह किए गंगा के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करेगी। इस वादे को उसने बखूबी निभाया। पर आजाद भारत में हमारी अपनी सरकारों ने, जो आज तक गुलाम मानसिकता से उबर नहीं पाई हैं, गंगा सदृश पवित्र नदियों को बांधना शुरू कर दिया। बांधों की शृंखला नदियों को विनाश की ओर ले जा रही है। यह सब उस समय में हो रहा है जब जाग्रत दुनिया बांधों के दुष्परिणामों को समझ कर नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए बांध तोड़ने में लगी है।
पहले टिहरी बांध के निर्माण-काल में सुंदरलाल बहगुणा जैसे पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों ने इसका कड़ा विरोध किया था। मगर सभी विरोधों को दबा कर वैज्ञानिक अनुसंधानों को भी दरकिनार कर दिया गया। फलस्वरूप 2005 में टिहरी बांध बन कर तैयार हो गया। इस परियोजना में सैकड़ों गांवों के अतिरिक्त एक ऐतिहासिक शहर, उसकी सांस्कृतिक विरासत और धरोहर, सब कुछ बांध की कृत्रिम झील में समा गया। जैव विविधता और पर्यावरण की अपूरणीय क्षति हुई। हजारों लोग आज भी बेघर हैं। नया टिहरी नगर प्राणविहीन है और आम लोग बेरोजगारी और भुखमरी से जूझ रहे हैं।
हालांकि बांध बनाते समय बडेÞ पैमाने पर रोजगार सृजन और स्थानीय लोगों को काम देने की बातें कही गई थीं। पर जो मिला वह ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है। बांध बनाते वक्त साढ़े बारह सौ मेगावाट बिजली उत्पादन का दावा किया गया था। आज सात साल बाद भी महज ढाई सौ से तीन सौ मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है, जो पूर्व निर्धारित लक्ष्य का महज पचीस प्रतिशत है। इस तरह हमने पचीस प्रतिशत पाने के लिए सौ प्रतिशत का नुकसान कर दिया। वास्तव में यह ऐसा विनाश है, जिसकी भरपाई हम कभी नहीं कर सकते। अंतत: हमें कुछ नहीं मिला।
हम इस अपूरणीय क्षति और लाभ-हानि का उचित मूल्यांकन किए बिना दूसरे बांध बनाने के विषय में कैसे सोच सकते हैं? हिमालय आज भी अपने विकास की अवस्था में है। काफी कच्चे पहाड़ हैं और यह भूकम्पीय दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र है। हिमालय के क्षेत्र में विभिन्न परियोजनाओं द्वारा पर्यावरण संबंधी नियम-कायदों की व्यापक अनदेखी करते हुए अनेक तरह से विनाश किया जा रहा है।
कई क्विंटल विस्फोटकों का इस्तेमाल कर सुरंगें बनाई जा रही हैं। इन विस्फोटों से लोगों के घर और गांव तबाह हो रहे हैं। प्राकृतिक पेयजल के मुख्य स्रोत नष्ट हो रहे हैं। ऐसे उदाहरण हैं कि जहां परियोजना को संबंधित विभागों से केवल हजार-डेढ़ हजार पेड़ काटने की अनुमति दी गई, वहां वास्तव में लाखों की संख्या में पेड़ काट दिए गए। इस तरह से हिमालय की प्राकृतिक संरचना को भीषण रूप से क्षतिग्रस्त करने का क्रम बदस्तूर जारी है। उल्लेखनीय है कि पुराने बांध विद्युत उत्पादन के दावे पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं, फिर भी नित नए बांध बनाए जा रहे हैं। यह किसी भी दशा में उचित नहीं है।
वर्ष 1985 में भारत के युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल से गंगा को साफ करने का संगठित प्रयास शुरू हुआ, जिसे गंगा एक्शन प्लान यानी गंगा कार्य-योजना नाम दिया गया। हजारों करोड़ रुपए गंगा की सफाई के नाम पर आबंटित किए गए। पर गंगा तो साफ नहीं हुर्इं, खजाना जरूर साफ हो गया। गंगा कार्य-योजना के विफल होने के बावजूद न उसकी विफलता का मूल्यांकन हुआ न घोटालों की जांच हुई। फिर बिना सोचे, वैज्ञानिक अध्ययन के बगैर गंगा कार्य-योजना का दूसरा चरण शुरू कर दिया गया, उसमें भी काफी पैसे की लूट हुई।
गंगा में प्रदूषण और बढ़ता गया। आज स्थितियां आप सबके सामने हैं। बावजूद इसके कुछ नई योजनाएं गंगा को निर्मल करने के नाम पर बना कर अरबों रुपए खर्च करने की तैयारी जोर-शोर से चल रही है। यह भी कहीं पैसे की बंदरबांट और राष्ट्रीय धरोहर की लूट का मामला बन कर ही न रह जाए। हम बिजली और सिंचाई के नाम पर पर्यावरण, जैव विविधता, हिमालय, जल स्रोतों और सांस्कृतिक धरोहरों पर हमले कब तक बर्दाश्त करेंगे?
अब समय आ गया है जब हमें हिमालय की रक्षा और गंगा के अविरल और नैसर्गिक वेग के लिए निर्णायक कदम उठाने होंगे। गंगा के प्राकृतिक स्वरूप से कम हमें कुछ भी मंजूर नहीं। इसके लिए यह जरूरी है कि हिमालय क्षेत्र में और गंगा पर कोई सुरंग आधारित बड़ा बांध न हो और जो हैं उनकी समीक्षा कर उन्हें शीघ्र हटाने के प्रयास किए जाएं।
जहां तक बिजली उत्पादन और हिमालय क्षेत्र में रोजगार के अवसरों का सवाल है, उसके लिए इकोफ्रेंडली यानी पर्यावरण के अनुकूल विकल्प मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, केवल उत्तराखंड में पंद्रह हजार सात सौ बारह बडेÞ जल स्रोत हैं, जहां आधे से एक मेगावाट के ‘घराट’ लगा कर छह हजार मेगावाट ऊर्जा पैदा की जा सकती है।
यही नहीं, इससे लगभग छब्बीस लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराया जा सकता है। साथ ही हिमालय और गंगा को बचाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त बड़ी परियोजनाओं के लिए विदेशी बाजार या अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से प्राप्त होने वाले अरबों रुपए के कर्जों के बोझ से भी देश को बचाया जा सकेगा।
इसी के साथ-साथ भीमगौड़ा बैराज सहित सभी बड़ी सिंचाई नहरों की समीक्षा करने की जरूरत है। अब यह जरूरी लगने लगा है कि नहरों की नई संरचना बनाई जाए, जिसमें गंगा के प्राकृतिक प्रवाह का पचीस प्रतिशत से अधिक जल नहरों द्वारा न निकाला जाए। दो नहरों की निकासी के बीच कम से कम दो सौ किलोमीटर की दूरी सुनिश्चित की जाए। इस प्रकार कुल बारह बड़ी नहरें सिंचाई के लिए गंगा नदी से निकाली जा सकती हैं, जो सिंचाई के लिए पर्याप्त होंगी। मल-निर्गम को गंगा और उसकी सहायक नदियों में गिरने से पूरी तरह रोक दिया जाए। इस अपशिष्ट का मूल स्रोत पर ही विकेंद्रित पद्धति से शोधन कर पुन: उपयोग किया जाना चाहिए। यह गंगा की अविरलता और निर्मलता को अक्षुण्ण रखने के लिए आवश्यक है।
इसी के साथ यह भी जरूरी है कि गंगा और उसके सहायक नदी-नालों से अतिक्रमण हटाया जाए। फरवरी, 2009 में, जब लोकसभा चुनाव नजदीक आ गए थे, यूपीए सरकार को लगा कि गंगा एक बड़ा मुद्दा बन सकती है। लिहाजा, सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके गंगा की सफाई के लिए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 2006 के तहत प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के गठन की घोषणा कर दी। इसमें कुछ गैरसरकारी सदस्य भी शामिल किए गए। पर जल्दी ही यह साफ हो गया सरकार द्वारा लिए जाने वाले अहम निर्णयों में उनकी कोई भूमिका नहीं है।
दरअसल, ऐन आम चुनाव से पहले इस प्राधिकरण के गठन की घोषणा एक प्रतीकात्मक कदम थी और खुद सरकार के भीतर इसको लेकर कोई गंभीरता नहीं थी। गंगा स्वच्छता की पहले की योजनाओं की नाकामी की तह में जाने और नदी के प्रबंधन से जुड़े असल मुद्दों पर विचार करने की कोई जरूरत महसूस नहीं की गई।
ऐसे लोग मिल जाएंगे जो नदियों के प्रदूषण को आधुनिक विकास के दौर में नियति मान बैठे हैं। संभव है हमारे योजनाकार और नीति नियंता भी किसी हद इस मानसिकता से ग्रस्त हों। पर प्रदूषित हो चुकी नदियों को फिर से निर्मल बनाने के दुनिया में कई उदाहरण मौजूद हैं। ब्रिटेन में 1963 में टेम्स नदी पर निगरानी रखने और सीवेज की गंदगी को नदी में गिरने से रोकने का क्रम शुरू हुआ और अब उसके पानी की गुणवत्ता काफी हद तक सुधर चुकी है। अमेरिका ने उद्योगों पर प्रदूषण संबंधी नियमन और जल-मल के शोधन की व्यापक व्यवस्था करके अपनी नदियों को बचाने की गंभीर कोशिश की है। इन उदाहरणों से हमें सीखने की जरूरत है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/24004-2012-07-12-06-03-16


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