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न्यूज क्लिपिंग्स् | गन्ने की कड़वाहट- अरविन्द कुमार सेन

गन्ने की कड़वाहट- अरविन्द कुमार सेन

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published Published on Dec 2, 2013   modified Modified on Dec 2, 2013

जनसत्ता 30 नवंबर, 2013 : सियासत का हद से ज्यादा हस्तक्षेप किस तरह एक संगठित उद्योग को तबाही के कगार पर ला खड़ा करता है, गन्ना उद्योग इसकी मिसाल है। कुछ समय पहले सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस चुके मुजफ्फरनगर-शामली इलाके के लोगों को अब गन्ने के दाम की फिक्र सता रही है। आमतौर पर उत्तर प्रदेश में सरकार अगस्त-सितंबर में मिल मालिकों और किसानों से बातचीत करके आरक्षी क्षेत्र (रिजर्व एरिया) के फरमान जारी कर देती है। आरक्षी क्षेत्र में यह तय किया जाता है कि किस इलाके के किसानों को अपना गन्ना किस खास मिल को ही आपूर्ति करना है।

अक्तूबर में गन्ने की पेराई शुरू होने के साथ ही नया चीनी सत्र (अक्तूबर से अगले साल सितंबर तक) शुरू हो जाता है। नवंबर खत्म होने जा रहा है, मगर नए सत्र की पेराई अब तक शुरू नहीं हुई है। उत्तर प्रदेश की निजी क्षेत्र की निन्यानबे चीनी मिलों में से पैंसठ ने राज्य सरकार को अपना परिचालन स्थगित करने की सूचना दे दी है। वहीं सूबे के शामली, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बिजनौर, सहारनपुर, बरेली, शाहजहांपुर, हरदोई, लखीमपुर खीरी, गोंडा, कुशीनगर, बलरामपुर और सीतापुर में किसान सड़कों पर उतर आए हैं।

महाराष्ट्र के बाद उत्तर प्रदेश दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादकसूबा है और देश के कुल चीनी उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी तीस फीसद है। तीस फीसद चीनी उत्पादन कम होने का सीधा असर देश की चीनी आपूर्ति पर पड़ेगा। भारत दुनिया का सबसे बड़ा चीनी उपभोक्ता देश है। जब-जब भारत ने अंतरराष्ट्रीय बाजार से चीनी खरीदने का एलान किया है, तब-तब चीनी की वैश्विक कीमतों में इजाफा हुआ है। चीनी उद्योग पर उत्तर प्रदेश के चालीस लाख किसानों की रोजी-रोटी टिकी हुई है। किसान अब गन्ने के मसले पर आर-पार के मूड में हैं, ऐसे में गन्ने की लड़ाई महज खेतों तक सीमित नहीं रहने वाली है।

सब जानते हैं कि चीनी उद्योग उत्तर प्रदेश में संगठित क्षेत्र का सबसे बड़ा उद्योग है और इसमें आने वाले तूफान का असर सूबे मेंनिवेश के माहौल पर पड़ना तय है। राज्य सरकार की चीनी नीति और चीनी की गिरती कीमतों ने माहौल को ज्यादा विस्फोटक बना दिया है। गन्ने की तैयार फसल खेत में खड़ी है और मिल मालिकों ने पेराई शुरू करने से इनकार कर दिया है।

आखिर सकंट कैसे पैदा हुआ और इसका गुनहगार कौन है। चीनी उद्योग की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इसमें कच्चे माल यानी गन्ने से लेकर आखिरी उत्पाद चीनी तक की कीमत सरकार तय करती है। पेराई सत्र 2012-13 (अक्तूबर-सितंबर) के लिए केंद्र सरकार ने उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) 170 रुपए प्रति क्विंटल तय किया था। केंद्र सरकार हर पेराई सत्र से पहले गन्ने की न्यूनतम कीमत घोषित करती है, जिसे एफआरपी कहा जाता है। अगर राज्य सरकार को यह महसूस हो कि एफआरपी पर गन्ना बेचने से किसानों को नुकसान होगा तो राज्य समर्थित मूल्य (एसएपी) घोषित किया जा सकता है। एसएपी आमतौर पर एफआरपी से ज्यादा होता है। बीते पेराई सत्र में गन्ने की फसल के लिए केंद्र सरकार के 170 रुपए प्रति क्विंटल एफआरपी के मुकाबले उत्तर प्रदेश सरकार ने 280 रुपए प्रति क्विंटल एसएपी घोषित किया था। मौजूदा साल के लिए भी उत्तर प्रदेश सरकार ने गन्ने का एसएपी 280 रुपए प्रति क्विंटल घोषित किया है।

पेराई सत्र 2012-13 के दरम्यान उत्तर प्रदेश में गन्ने की औसत रिकवरी (पेराई किए गए गन्ने के अनुपात में निकलने वाली चीनी का प्रतिशत) दर 9.2 फीसद रही है। रोजाना पांच हजार टन गन्ने की पेराई करने वाली मिल सात दिन में 3,220 टन चीनी का उत्पादन करेगी। फिलवक्त मिलों से निकलने वाली चीनी का दाम तीस रुपए प्रति किलो है, लिहाजा सात दिन में उत्पादित चीनी की कीमत 9.66 करोड़ रुपए होगी। उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से तय किए गए एसएपी 280 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से सात दिन के पैंतीस हजार टन गन्ने की कीमत 9.8 करोड़ रुपए होगी। यानी मौजूदा चीनी कीमतों के आधार पर मिलें गन्ने की कीमत भी नहीं वसूल पाएंगी।

दूसरी तरफ मजदूरी की दरों में इजाफा, डीजल के दामों में बढ़ोतरी और खाद की कीमतों में आए उछाल के कारण किसान भी मौजूदा एसएपी पर अपनी बुनियादी लागत वसूल नहीं कर पा रहे हैं। कह सकते हैं कि चीनी मिलों के पास बगास, खोई, इथेनॉल जैसे गन्ने के उपउत्पाद के जरिए राजस्व हासिल करने के दूसरे रास्ते भी हैं।

मगर खेतों से मिलों तक गन्ना पहुंचाने की परिवहन लागत, चीनी का भंडारण, कर्मचारी, कर और मशीनों के रखरखाव जैसी लागतों को जोड़ लिया जाए तो मौजूदा कीमतों पर गन्ने की पेराई चीनी मिलों के लिए घाटे का सौदा है। यही कारण है कि चीनी मिलें बीते पेराई सत्र का चौबीस सौ करोड़ रुपए किसानों को अब तक नहीं चुका पाई हैं, जबकि नया पेराई सत्र शुरू होने का वक्त दस्तक निकल रहा है।

अगर उत्तर प्रदेश से बाहर की बात करें तो पूरे देश की चीनी मिलों पर किसानों का चौंतीस सौ करोड़ रुपए बकाया है। इस दफा छोटी चीनी मिलें ही नहीं, बल्कि बलरामपुर जैसी बड़ी मिलें भी समय पर किसानों को गन्ने का दाम चुकता नहीं कर पाई हैं। चूंकि किसानों की मेहनत का पैसा मिलों के पास बकाया पड़ा है, लिहाजा फसल बोते वक्त लिए गए कर्ज की मार से किसान दबते जा रहे हैं।

चीनी मिलों की खस्ता आर्थिक हालत के कारण बैंकों ने चालू पूंजी देने से मना कर दिया है। गन्ना किसान उत्तर प्रदेश की तीस लोकसभा सीटों पर अपना असर डालते हैं और अगले लोकसभा चुनावों के मद््देनजर सपा या कांग्रेस में से कोई भी चीनी की महंगी कीमतों का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है। मौजूदा कीमतों पर चीनी उत्पादन करने से चीनी मिलें और गन्ना किसान, दोनों ही घाटे की खाई में धंस जाएंगे। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में गन्ने की फसल ‘मकड़ी का जाला’ सिद्धांत के आधार पर चलती है। राज्य सरकार स्थानीय, सूबाई या लोकसभा चुनावों के आसपास वाले पेराई सत्र के लिए गन्ने की कीमतों में जोरदार इजाफा कर देती है, जबकि बाकी सालों में गन्ना किसानों को चीनी मिलों के रहमोकरम पर छोड़ देती है।

गन्ना दो साल वाली फसल है और एक बार बुआई के बाद किसान गन्ने की दो उपज लेते हैं। अगर किसी साल गन्ने की कीमत ठीक मिलती है, तो किसान अगले साल गन्ने का रकबा बढ़ा देते हैं। अगले दो साल तक गन्ने की पैदावार मांग के मुकाबले ज्यादा होती है, ऐसे में चीनी के दाम जमीन पर आ जाते हैं। चुनाव होते नहीं हैं, इसलिए सरकार भी गन्ना किसानों को बड़ा सहारा देने से बचती है। बंपर उत्पादन वाले साल में अपनी उपज के कम दाम मिलने से चोट खाया किसान अगली दफा यानी तीसरे साल गन्ने का रकबा घटा देता है। चीनी की मांग लगभग उसी स्तर पर बरकरार है, मगर गन्ने का उत्पादन कम होने के कारण चीनी के दामों में उछाल आना शुरू हो जाता है।

चीनी के दामों में उछाल आने के साथ ही गन्ने के दाम भी बढ़ जाते हैं और किसान एक बार फिर उसी ऊंची कीमत बनाम ज्यादा रकबे के मकड़ीनुमा जाले में फंस जाता है। 1990 से लेकर आज तक का दौर इस उतार-चढ़ाव की बात पर मुहर लगाता है। हर तीसरे साल चीनी के दामों में इजाफा हुआ है, मगर हर पहले और दूसरे साल में गन्ने का उत्पादन और चीनी के दाम कम हुए हैं। हर दफा उतार-चढ़ाव के इस खेल में गन्ना किसान ही घाटे में रहे हैं।

गन्ने के खेत में बिछाई गई सियासत की इस चौसर के चलते किसान गन्ने का सही दाम नहीं ले पाते हैं और मिलें अपने उत्पाद यानी चीनी की वाजिब कीमत लेने से महरूम रह जाती हैं। चीनी उद्योग में नए निवेश और उत्पादन की लागत कम करने के लिए आधुनिकीकरण की योजना किसी के पास नहीं है, क्योंकि खेत में गन्ना बोने से लेकर बाजार में चीनी बेचने तक के तौर-तरीके सियासी हवा के रुख से तय होते हैं। इस दफा भी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी चीनी मिलों के साथ गन्ने के खेत में चौसर खेलने की फिराक में थी, मगर मिलों ने बिगड़ी आर्थिक हालत के कारण पहले ही हाथ खड़े कर दिए। बलरामपुर, धामपुर, बजाज हिंदुस्तान और द्वारिकेश शुगर जैसी देश की बड़ी चीनी कंपनियां अपना परिचालन स्थगित करने का एलान कर चुकी हैं।

एक बात और, अगर उत्तर प्रदेश सरकार वाकई गन्ना किसानों को उनकी उपज का सही दाम देना चाहती है तो उसे एसएपी किसानों की मांग के मुताबिक 330 रुपए प्रति क्विंटल घोषित करना चाहिए। चीनी मिलों को गन्ना चीनी के मौजूदा भावों से थोड़ा कम यानी 270 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से दिया जाए और कीमतों में बीच का अंतर राज्य सरकार खुद वहन करे।

उत्तर प्रदेश सरकार गन्ना किसानों के भले का दावा तो करती है, मगर इसकी कीमत खुद चुकाने के बजाय चीनी मिलों को शहीद करना चाहती है। आजादी के बाद गठित की गई गाडगिल समिति से लेकर हालिया रंगराजन समिति तक चीनी उद्योग पर आई कई रपटें धूल फांक रही हैं, क्योंकि कोई सरकार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा और गुजरात जैसे अहम राज्यों में फैले गन्ना किसानों की चाबी खोने को तैयार नहीं है। देश के दो बड़े राज्यों- उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र- में गन्ना सियासत की धुरी बना हुआ है और इसकी बड़ी कीमत किसानों, कृषि क्षेत्र, उद्योग और उपभोक्ता चुका रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में भूजल के लिए जमीन को हद से ज्यादा निचोड़ा गया है। गन्ने जैसी ज्यादा पानी की मांग वाली फसल की जगह कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देने और गन्ने की खेती को ज्यादा पानी वाले पूर्वी भारत में बढ़ावा देने की वैज्ञानिकों की दलीलें वोट की लड़ाई में खो गई हैं।

गन्ने का दाम कम नहीं होने की दशा में अब चीनी मिलों ने केंद्र सरकार के सामने ब्याजमुक्त ऋण की मांग रखी है। ब्याजमुक्त ऋण योजना में चीनी मिलें बैंकों से कर्ज लेती हैं और इस पर लगने वाल ब्याजा केंद्र सरकार वहन करती है। तंगी के कारण यूपीए सरकार ने अपनी फ्लैगशिप योजनाओं की धनराशि में ही कटौती कर दी है। ऐसे में मिलों की मांगी गई दवा पर कितना विचार होगा, कहना मुश्किल है।


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/55577-2013-11-30-04-39-58


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