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न्यूज क्लिपिंग्स् | घट रही मिट्टी की उर्वरा शक्ति ।। संजय कुमार सिन्हा ।।

घट रही मिट्टी की उर्वरा शक्ति ।। संजय कुमार सिन्हा ।।

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published Published on Jul 8, 2013   modified Modified on Jul 8, 2013
विश्व की जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ी है, उस अनुपात में खाद्य उत्पादन नहीं बढ़ा है. जंगलों के कटने और बेहिसाब औद्योगिकीकरण से धरती की जलवायु पर बुरा असर पड़ा है. आइसलैंड में हुए एक सम्मेलन में इन्हीं बिंदुओं पर विचार किया गया.

पिछले दिनों (26-29 मई) को आइसलैंड की राजधानी रेईकजाविक में ‘मृदा कार्बन' पर एक सम्मेलन आयोजित किया गया. यह सम्मेलन कई मायनों में खास था. इसे आयोजित करवाने में आइसलैंड के मृदा संरक्षण सेवा और कृषि विश्वविद्यालय की भूमिका अहम रही.

रेईकजाविक में जुटे विशेषज्ञों ने एक सुर में माना कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति घट रही है, उसकी जल धारक क्षमता में कमी आयी है और सबसे गंभीर बात यह कि मिट्टी की कार्बन धारण करने की क्षमता खतरनाक स्तर पर घट गयी है. उन्होंने माना कि यदि अभी मृदा संरक्षण के उपाय नहीं किये गये, तो 2050 तक नौ अरब लोगों को भोजन उपलब्ध कराना बहुत मुश्किल हो जायेगा. विश्व के 30 देशों के 200 शोधकर्ताओं ने कहा कि कार्बन का सही इस्तेमाल करके ही हम वैश्विक खाद्य सुरक्षा और ग्लोबल वार्मिग जैसे मुद्दों से निबट सकते हैं.

मिट्टी के बिना जीवन नहीं : यूरोपीय आयोग की मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार एनी ग्लोवर ने कहा कि मिट्टी के बिना जीवन ही नहीं है. हमारे पैरों के नीचे जो धूल-मिट्टी है, उसमें सूक्ष्म जीवों का एक बड़ा संसार छिपा होता है. केवल एक मुट्ठी भर मिट्टी में भी भिन्न-भिन्न प्रजातियों के लाखों जीव होते हैं, जिसमें चींटी, केचुएं, फंगी, बैक्टीरिया और दूसरे सूक्ष्म जीव भी शामिल होते हैं.

हम जो कुछ खाते हैं, उसका महज एक फीसदी ही महासागरों से मिलता है, शेष सब कुछ मिट्टी से ही प्राप्त किया जाता है. मिट्टी के कारण ही दुनिया के सभी पेड़-पौधों को जीवन मिलता है और उनके जरिये हमें बहुमूल्य ऑक्सीजन मिलता है. मिट्टी पानी साफ करने का सबसे बढ़िया फिल्टर है. यह न केवल नदी-झरनों, तालाबों में गंदगी बाहर रखता है, बल्कि इसमें बड़े स्तर पर कार्बन को सोखने की क्षमता भी होती है.

हमें यह जानना चाहिए कि दो सेंटीमीटर मिट्टी की परत बनने में एक हजार साल लगते हैं, जबकि इसे खत्म होने में महज कुछ सेकेंड लगते हैं. प्रत्येक साल एक करोड़ बीस लाख हेक्टेयर भूमि अपरदन के कारण खत्म हो जाती है, जिस पर दो करोड़ टन अनाज का उत्पादन किया जा सकता था. पिछले 40 सालों में धरती की 30 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि मृदा क्षय के कारण अनुर्वर हो गयी है. यदि इस प्रवृत्ति को जल्द नहीं रोका गया, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

गहरायेगा खाद्य संकट : वाशिंगटन स्थित वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीटय़ूट के अनुसार, 2006 के मुकाबले 2050 में 60 प्रतिशत अधिक कैलोरी वाले भोजन की आवश्यकता होगी. संयुक्त राष्ट्र ने अनुमान लगाया है कि 2050 में दुनिया की आबादी 9.3 अरब हो जायेगी.
2030 तक तीन अरब लोग मिडिल क्लास श्रेणी में आ जायेंगे.

इसमें कोई शक नहीं है कि तब अधिक पोषण वाले भोजन की मांग बढ़ेगी, जबकि मिट्टी की उर्वरा शक्ति घटती जायेगी. यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी. वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीटय़ूट ने बताया है कि आर्थिक वृद्धि और पर्यावरण संतुलन को साथ लेकर चलना आज सबसे बड़ी चुनौती है. इन चुनौतियों से निबटना बहुत मुश्किल होगा.

जलवायु परिवर्तन बड़ा कारण : इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट (2007) में बताया गया है कि वातावरण में कार्बन डाइ ऑक्साइड और दूसरी ग्रीन हाउस गैसों की मात्र में तेजी से वृद्धि हुई है. इसका वैश्विक जलवायु पर असर पड़ा है. जहां 1850 में कार्बन की मात्र 280 पार्ट्स प्रति मिलियन थी, वह 2006 में बढ़ कर 381.2 पार्ट्स प्रति मिलियन हो गयी.

यह प्रतिवर्ष 0.88 पीपीएम की दर से बढ़ रही है. इसमें दो तिहाई तो जीवाश्म ईंधनों के जलने और शेष मृदा कार्बन के क्षय होने के कारण हो रहे हैं. यह सब जंगलों के कटने और खेती के गलत पैटर्न के कारण है.

मुख्य बातें : मृदा संरक्षण के उपाय नहीं किये गये, तो 2050 तक नौ अरब को भोजन उपलब्ध कराना होगा मुश्किल

- 2050 में 60 प्रतिशत अधिक कैलोरी वाले भोजन की आवश्यकता होगी
-पिछले 40 सालों में धरती की 30 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि मृदा क्षय के कारण अनुर्वर हो गयी

मृदा कार्बन और रतन लाल

रेईकजाविक, आइसलैंड में मृदा संरक्षण पर बोलने के लिए ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के मृदा विज्ञानी प्रोफेसर रतन लाल को आमंत्रित किया गया. वह ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ इनवाइरमेंट एंड नेचुरल रिसोर्स के मृदा विज्ञान (सॉइल साइंस) के प्रोफेसर हैं.

वह 2009 से आइसलैंड विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं.उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से बीएससी, इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीटय़ूट से एमएससी और ओहियो विश्वविद्यालय से पीएचडी की है. वह सिडनी विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया में सीनियर रिसर्च फेलो भी रहे.

प्रोफेसर रतन लाल 18 वर्षो तक (1969-1987) तक नाइजीरिया के इबेदान में इंटरनेशनल इंस्टीटय़ूट ऑफ ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर(आइआइटीए) में कृषि भौतिक विज्ञानी रहे.

उन्होंने इस दौरान, वाटरशेड मैनेजमेंट(जल प्रबंधन), पानी के अनुसार भूमि का प्रयोग, अपरदन पर नियंत्रण, जल संरक्षण, ‘नो टिल फार्मिग' (बिना जुताई, निकाई-गुड़ाई वाली खेती) और एग्रोफॉरेस्ट्री पर काफी काम किया है. उनकी विशेषज्ञता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वह 1500 से अधिक शोध पत्रों के सह लेखक रहे हैं. उन्होंने 13 पुस्तकें लिखी हैं और 45 किताबों का सह संपादन किया है.

वह वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ द सॉइल एंड वाटर कंजर्वेशन के प्रेसीडेंट भी रह चुके हैं. 1998-2000 में इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) के मुख्य लेखक भी रतन लाल थे. उन्हें 2007 में आइपीसीसी ने नोबेल पीस प्राइज सर्टिफिकेट दिया था. वह संयुक्त राष्ट्र की कई संस्थाओं जैसे खाद्य और कृषि संगठन, विश्व बैंक, यूएनइपी, जीइएफ, यूएनडीपी, यूएसएआइडी और दूसरी कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से कंसल्टेंट के रूप में जुड़े रहे हैं.

2005 में प्रोफेसर लाल को इंटरनेशनल यूनियन ऑफ सोशल साइंस की तरफ से बारलॉग और लिबिग अवार्ड दिया गया. 2009 में उन्हें भारत की तरफ से एमएस स्वामीनाथन अवार्ड और जर्मनी ने कॉमलैंड अवार्ड से सम्मानित किया गया. प्रोफेसर रतन लाल ने रेईकजाविक में आयोजित सम्मेलन में बताया कि कैसे बेतरतीब शहरी विकास के कारण कृषि योग्य भूमि में कमी आयी है.

उन्होंने कहा कि शहरी विकास का हाल यह है कि औसतन दस लाख की शहरी आबादी 40 हजार हेक्टेयर जमीन पर कब्जा कर लेती है. तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण शहरों में कृषि योग्य भूमि न के बराबर रह गयी है और सबसे बड़ी समस्या इस जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने की है.


http://www.prabhatkhabar.com/node/311493?page=show


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