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न्यूज क्लिपिंग्स् | छह नई तकनीकों से नहीं पड़ेगा जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव

छह नई तकनीकों से नहीं पड़ेगा जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव

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published Published on Dec 16, 2014   modified Modified on Dec 16, 2014
एक्सक्लूसिव, रायपुर। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के कृषि वैज्ञानिकों ने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए छह नई तकनीक ईजाद की है। कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि यदि इन तकनीकों का सही तरीके से इस्तेमाल किए जाए तो छत्तीसगढ़ में जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा। इनमें भाटा (बंजर) भूमि विकास तकनीक, वर्षा जल संरक्षण के लिए डबरी तकनीक, उन्नत खुर्रा बोनी तकनीक, एकीकृत कृषि पद्धति तकनीक, सूखा रोधी एवं कीट-व्याधि अवरोधी धान के किस्मों का विकास और मृदा स्वास्थ्य परीक्षण तकनीक शामिल है।

कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक राज्य में जल, भूमि, जैव विविधता, पर्याप्त सूर्य का प्रकाश और मेहनती मानव संसाधन जैसे प्राकृतिक संसाधन है। राज्य के कृषि विकास दर 11 फीसदी है, जो कि औसत राष्ट्रीय कृषि विकास दर का लक्ष्य चार प्रतिशत से दो गुनी से ज्यादा है। अभी भी राज्य में खेती की विकास के लिए भरपूर संभावना है। जरूरत है नीतिगत निर्णय लेते हुए एक रणनीति के तहत व्यापक स्तर पर विकास कार्य किए जाने की।

कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई तकनीक पर सही ढंग से काम हो तो यहां जलवायु परिवर्तन के वजह से होने वाली नुकसान से बचा जा सकता है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. कृष्ण कुमार साहू, डॉ. एएल राठौर, डॉ.आरके साहू और डॉ.जीपी आयम इन छह तकनीकों पर आधारित शोध पत्र राजमाता विजयराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर में आयोजित 15वीं राष्ट्रीय कृषि विज्ञान संगोष्ठी में प्रस्तुत किया था, जिसे गुणवत्ता की दृष्टि से प्रथम स्थान मिला है।

बंजर भाटा भूमि विकास की तकनीकी

राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का करीब 20 फीसदी जमीन भाटा भूमि है, जिसका अधिकांश भाग वर्तमान में या तो बंजर पड़ा हुआ है या उसका समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है। ज्यादातर भाटा भूमि मुरुमी, कंकड़ युक्त कड़ी, कम गहरी भूमि में आता है। इसका रंग लाल होता है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे जमीन अम्लीय, पोषक तत्वों की कमी, फास्फोरस का अत्यधिक स्थिरीकरण तथा आयरन, एल्युमिनियम व मैंगनीज की विषाक्ता के कारण यह फसल उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं है। ऐसे 25 हेक्टेयर जमीन पर कृषि वैज्ञानिकों ने आंवला, काला सीरस, खम्हार व शीशम के साथ स्टायलो स्केबरा, अंजन घास लगाकर उसे समृद्ध किया है। साथ ही दलहनी फसल मूंग का भी सफल उत्पादन किया है।

मिट्टी परीक्षण कर जमीन की सुरक्षा

अच्छी व भरपूर फसल भूमि की उर्वरा शक्त पर निर्भर करती है। खेतों में रसायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी आ रही है। लगातार फसल लेने से जमीन में उपलब्ध मुख्य गौण व सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होने लगी है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक मिट्टी परीक्षण से जमीन में क्षारीयता, लवणता के साथ उपलब्ध पोषक तत्वों की मात्रा का पता चलता है। इसके आधार पर जरूरी उर्वरकों की सही मात्रा इस्तेमाल कर उचित लागत पर अधिक उपज ली जा सकती है। मिट्टी की जांच की सुविधा कृषि विभाग, कृषि विज्ञान केंद्र व केंद्रीय संस्थानों द्वारा उपलब्ध कराई जा रही है।

छोटे-बड़े जलाशयों (डबरी-तालाब) का निर्माण

राज्य का भौगोगिक क्षेत्र व भू-परिस्थिति डबरी व तालाब निर्माण के लिए उपयुक्त है। खेतों के अंदर 10-15 प्रतिशत भाग में डबरी बनाकर जल संरक्षण कर उसका उपयोग खरीफ फसल धान को सूखने से बचाने के लिए किया जा सकता है। कृषि विश्वविद्यालय के भूमि एवं जल प्रबंधन विभाग के वैज्ञानिकों द्वारा किसानों के खेतों में किए गए परीक्षणों से मिले परिणाम इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं।

फसल तकनीक का चयन

जलवायु परिवर्तन की असर से वर्षा का वितरण असामान्य होते जा रहा है। पहले चार महीने में करीब 60 दिन बारिश होती थी। अब करीब 45 दिन ही बारिश हो रही है। हालांकि बारिश की मात्रा में बहुत ज्यादा कमी नहीं आई है, लेकिन एक-दो दिन में ही बहुत ज्यादा बारिश होना उसके बाद 15 दिनों तक बारिश नहीं होना।

एक झटके में ज्यादा पानी गिरने से वो फसल के लिए फायदेमंद नहीं रह रहता। ज्यादातर पानी व्यर्थ बह जाता है। वहीं प्रदेश का 70 फीसदी खेती असिंचित है। ऐसे खेतों के लिए रोपा बोनी नुकसानदायक है। उस परिस्थिति में उन्नत खुर्रा बोनी तकनीक का फायदा मिलेगा। इस तरह सही फसल तकनीक का इस्तेमाल करना जरूरी है।


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