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न्यूज क्लिपिंग्स् | जनता को गुमराह करना शर्मनाक है : साईनाथ

जनता को गुमराह करना शर्मनाक है : साईनाथ

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published Published on May 6, 2010   modified Modified on May 6, 2010
आप सोचते होंगे कि अख़बारों में सिर्फ़ एक पेज 3 होता है? लेकिन महाराष्ट्र के अख़बार ऐसा नहीं मानते। हाल के चुनाव में उनके पास कई पेज 3 थे, जिन्हें वो लगातार कई दिनों तक छापते रहे। उन्होंने सप्लिमेंट के भीतर सप्लिमेंट छापे। इस तरह मुख्य अख़बार में भी आपको पेज 3 पढ़ने को मिले। फिर उन्होंने मेन सप्लिमेंट में अलग से पेज थ्री छापा। उसके बाद एक और सप्लिमेंट जिसके ऊपर रोमन में पेज थ्री लिखा था।

यह मतदान से ठीक पहले के दिनों में बहुत ज़्यादा हुआ क्योंकि व्यग्र उम्मीदवार “ख़बरों” को खरीदने के लिए हर क़ीमत चुकाने को तैयार थे। एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि “टेलीविजनों पर बुलेटिन्स की संख्या बढ़ गई और प्रिंट में पन्नों की संख्या।” मांगें पूरी करनी थीं। कई बार तो आखिरी पलों में अतिरिक्त पैकेज आए और उन्हें भी जगह देनी थी। उन्हें वापस लौटाने का कोई कारण नहीं था?

मराठी, हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू – राज्य के तमाम अख़बारों में चुनाव के दौरान आप ऐसी कई आश्चर्यजनक चीजें देखेंगे जिन्हें छापने से इनकार नहीं किया गया था। एक ही सामाग्री किसी अख़बार में “ख़बर” के तौर पर छपी तो किसी अख़बार में “विज्ञापन” के तौर पर। “लोगों को गुमराह करना शर्मनाक है” – यह शीर्षक है नागपुर (दक्षिण-पश्चिम) से निर्दयील उम्मीदवार उमाकांत (बबलू) देवताले की तरफ़ से खरीदी गई ख़बर की। यह ख़बर लोकमत (6 अक्टूबर) में प्रकाशित हुई थी। उसके आखिरी में सूक्ष्म तरीके से एडीवीटी (एडवर्टिजमेंट यानी विज्ञापन) लिखा हुआ था। द हितवाद (नागपुर से छपने वाले अंग्रेजी अख़बार) में उसी दिन यह “ख़बर” छपी और उसमें कहीं भी विज्ञापन दर्ज नहीं था। देवताले ने एक बात सही कही थी – “लोगों को गुमराह करना शर्मनाक है।”

मजेदार बात यह है कि चुनाव आचार संहिता (जिसके तहत पार्टी और सरकार का खर्च जांच के घेरे में आ जाता है) लागू होने से ठीक 24 घंटे पहले 30 अगस्त को एक विज्ञापन छपा। उसके बाद शब्द “विज्ञापन” ओझल हो गया और उसके साथ ही “रिस्पॉन्स फीचर” भी। उसके बाद सभी कुछ न्यूज़ में तब्दील हो गए।

उसके बाद विज्ञापनों की दूसरी खेप 18 सितंबर से ठीक पहले आई जब उन्होंने नामांकन भरना शुरू किया। नामांकन भरने के तुरंत बाद वो विज्ञापन भी बंद हो गए क्योंकि तब उम्मीदवारों के खर्चों पर नज़र रखी जाने लगी। इन हथकंडों ने सरकार, बड़े दलों और अमीर उम्मीदवारों को चुनावी खर्च में जोड़े बगैर बड़े पैमाने पर पैसा खर्च करने की सहूलियत दी। यही नहीं इन्होंने प्रचार का एक ऐसा तरीका भी खोच निकाला जो प्रचार खर्च में नहीं जुड़ा। उन्होंने थोक के भाव में एसएमएस और वॉयस मेल के जरिए मतदाताओं से वोट मांगे। इनके अलावा प्रचार के लिए खास वेबसाइट्स का निर्माण कराया। इन सब में पैसा काफी खर्च हुआ लेकिन खाते में नहीं जुड़ा।

30 अगस्त और 18 सितंबर के बाद न्यूज़ रिपोर्ट कई मायने में रोचक रहे। उन “ख़बरों” में कोई आलोचना और बुराई नहीं की जाती। सैकड़ों पन्ने उम्मीवारों की उपलब्धियों, प्रचार और तारीफ़ में भर दिए गए और मुद्दों की चर्चा तक नहीं हुई। जिनके पास पैसे नहीं थे उनका अख़बारों में जिक्र तक नहीं हुआ।

अगर आपने सही सौदा किया तो वही ख़बर प्रिंट, टेलीविजन और ऑनलाइन तीनों माध्यमों में उपलब्ध मिलेगी। यह पैकेज पत्रकारिता का विकसित रूप है और यह सभी माध्यमों में मौजूद है। इस तरह की ख़बरों की तरफ़ मुड़ने से चुनाव के दौरान कई बड़े अख़बारों की विज्ञापन आय घट गई – जबकि आम परिस्थितियों में ऐसा नहीं होता।

सबसे दुखद तो यह है कि कुछ बड़े पत्रकारों ने पेड न्यूज़ को अपनी बाइलाइन के साथ छपवाया। ऐसे पत्रकारों में कुछ चीफ़ रिपोर्टर और ब्यूरो चीफ़ रैंक के पत्रकार भी शामिल हैं। कुछ ने ऐसा स्वेच्छा से किया तो कुछ ने बताया कि “पत्रकारों के निजी भ्रष्टाचार के दौर में हमारे उसमें शामिल होने और उससे दूर रहने के विकल्प थे। लेकिन जब यह सब मालिकों की सहमति से एक संगठित उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका है तो हमारे पास क्या विकल्प बचते हैं?”

1 अक्टूबर से 10 अक्टूबर 2009 के बीच महाराष्ट्र में छपने वाले कई अख़बारों को पढ़ना काफी मज़ेदार है। कई बार आप रहस्यम तरीके से “तय हुई चीजें” छपी हुई देखेंगे। मसलन दो कॉलम फोटो के साथ 125-150 शब्दों की स्टोरी। ये “तय हुई चीजें” काफी उत्सुकता जगाती हैं। ख़बर शायद ही कभी इन कठोर शर्तों के साथ छापी जाती हो, लेकिन विज्ञापन छापे जाते हैं। कुछ जगहों पर आपको एक ही पन्ने पर कई तरह के फॉन्ट और लेआउट देखने को मिलेंगे। ऐसा इसलिए कि लेआउट, फॉन्ट और प्रिंटआउट सब कुछ उम्मीदवार की तरफ़ से भेजा गया था।

कई बार व्यवस्थित तरीके से एक या दो पेज पर सिर्फ एक ही पार्टी से जुड़ी ख़बरें परोसी गईं। किसी और ख़बर को उन पन्नों पर छापने लायक नहीं समझा गया। 6 अक्टूबर को पुढारी अख़बार का तीसरा पन्ना कांग्रेस के लिए छापा गया। 10 अक्टूबर को सकाळ में तीसरे और चौथे पन्ने पर रणधुमली नाम का सप्लिमेंट छापा गया जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ एमएनएस से जुड़ी ख़बरें थीं। दूसरी बड़ी पार्टियों को कई दूसरे अख़बारों ने इसी तरह सम्मानित किया।

देशोन्नति में 11 अक्टूबर सिर्फ एनसीपी की ख़बर थी। 15 सितंबर को मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाण पर विशेष छपा। हिंदी अख़बार नव भारत में 30 सितंबर से 13 अक्टूबर (इसके साथ ही चाह्वाण पर छपने वाले पूरे पन्नों की संख्या 89 हो गई) के बीच नव भारत में 12 पन्ने चाह्वाण को समर्पित किए गए। दूसरी तरफ, मतदान की तारीख़ जैसे-जैसे नजदीक आई पन्नों पर ख़बरों की भीड़ बढ़ती गई। कुछ पर तो 12 ख़बरें और 15 फोटो छपे।

चूंकि चुनावी दौर में उम्मीदवारों और उनकी पार्टियां ने ख़बरें वितरित कीं, इसलिए ज़्यादातर अख़बारों ने एक भी संशोधन नहीं किए। वरना ऐसा क्यों है कि अख़बारों ने बाइलाइन, स्टाइल और व्यवहार से समझौता किया और एक सी ख़बरें छापीं।

इससे कई परेशान करने वाले सवाल खड़े होते हैं।

उदाहरण के लिए, सकाळ आमतौर पर अपने रिपोर्टर की ख़बरों पर बटमिदार (रिपोर्टर) लिख कर क्रेडिट देता है। दूसरों की ख़बरों पर सकाळ वृतसेवा (न्यूज़ सर्विस) या फिर सकाळ न्यूज़ नेटवर्क लिखा होता है। लेकिन कांग्रेस की तरफ़ से भेजी गई सामाग्री पर “प्रतिनिधि” लिखा गया था। इसलिए आप पाएंगे कि सकाळ ने अपनी व्यावसायिक शर्तों को तोड़ते हुए “प्रतिनिधि” नाम से ख़बरें प्रकाशित कीं। ऐसी ही एक ख़बर – “राज्य की सत्ता कांग्रेस के ही हाथ में रहेगी” – 4 अक्टूबर को छापी गई। उसमें ऊपर “बटमिदार” लिखा हुआ था और नीचे “प्रतिनिधि”। यह ख़बर क्या थी? क्या यह एक विज्ञापन था?

जाने-माने पब्लिक रिलेशन फर्म्स, प्रोफेशनल डिजाइनर्स और विज्ञापन एजेंसियां अमीर उम्मीदवारों और पार्टियों का काम संभालते हैं। वो ख़बरों को तय शब्दों और लहजों में अख़बारों के लिए तैयार करते हैं। कई बार तो अलग-अलग अख़बारों के लिए ख़बरें ऐसे तैयार की जाती हैं कि वो एक्सक्लूसिव लगें।

कुछ चुनिंदा उम्मीदवारों ने, जिनमें से ज़्यादातर बिल्डर थे, काफी अधिक ख़बरों में रहे। इसके विपरीत छोटी पार्टियों और कम पैसे वाले उम्मीदवारों का राज्य के कई अख़बारों ने पूरी तरह बहिष्कार कर दिया। कुछ ने मुझे ख़त लिख कर अपना दर्द बयां किया है। ऐसे ही एक शख़्स हैं शकील अहमद। पेशे से वकील शकील अहमद ने बतौर निर्दलीय मुंबई के सायन-कोलीवाडा से चुनाव लड़ा। उन्होंने बताया कि जिन अख़बारों ने उनको सामाजिक कार्यकर्ता बताते हुए उनके बारे में ख़बरें छापी थीं, “उन्होंने ने भी बतौर उम्मीदवार उनके बारे में कुछ भी छापने के लिए पैसे मांगे। मैंने पैसे देने से मना कर दिया तो किसी ने मेरे बारे में कुछ नहीं छापा।” शकील अहमद चुनाव आयोग और प्रेस काउंसिल के सामने अपनी बात रखने को उत्सुक हैं।

पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के कई जिलों से हमारे पास 21 अख़बारों की 100 से अधिक प्रतियां भेजी हैं। इनमें से अधिक सर्कुलेशन वाले बड़े अख़बारों के साथ छोटे स्थानीय अख़बार भी शामिल हैं। उन सभी में ऐसी ख़बरों से पन्ने भरे हुए हैं। टेलीविजन चैनलों पर कहीं इन्हें ख़बरों के तौर पर तो कहीं विज्ञापन के तौर पर दिखाया गया। ऐसी ही एक ख़बर दो चैनलों पर किसी गैर की आवाज़ में प्रसारित की गई। और एक तीसरे चैनल के माइक से साथ विरोधी चैनलों पर ख़बरें नज़र आईं।

मतदान का दिन नज़दीक आने पर कुछ कम पैसे वाले उम्मीदवारों ने कुछ पत्रकारों से संपर्क साधा, ताकि वो भ्रष्टाचार की इस बाढ़ में डूब न जाएं। उन्हें प्रोफेशनल्स की ज़रूरत थी। उन्होंने उन पत्रकारों से अपने बारे में लिखने के लिए गिड़गिड़ा कर कहा और अपनी हैसियत के हिसाब से पैसों का प्रस्ताव रखा। आखिरी चंद दिनों में ऐसे कुछ छोटे आइटम अख़बारों के पन्नों पर नज़र आए। ये आइटम उन उम्मीदवारों की माली हालत बयां करते थे।

और यह वो चुनाव रहा, जिसके बारे में न्यूज़ मीडिया ने हमें बताया कि इस बार चुनाव मुद्दों के आधार पर नहीं लड़े गए।

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