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न्यूज क्लिपिंग्स् | जल की जमींदारी- राजकुमार सोनी(तहलका)

जल की जमींदारी- राजकुमार सोनी(तहलका)

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published Published on Feb 23, 2012   modified Modified on Feb 23, 2012

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 40 किलोमीटर दूर दुर्ग जिले के गांव महमरा के बाशिंदे आज भी इस बात को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते कि सदियों से उनकी जीवनरेखा रही शिवनाथ नदी पर अब उनका पहले जैसा अधिकार नहीं रहा. यहां के एक ग्रामीण साधुराम बताते हैं, 'हमें तो अब नदी की तरफ जाने में ही डर लगता है कि कोई कुछ कह न दे.' दरअसल शिवनाथ छत्तीसगढ़ की वह पहली नदी है जिसे निजी हाथों में सौंपकर उसके सामुदायिक अधिकार को खत्म करने की शुरुआत हुई थी. गांव के पूर्व सरपंच शिवकुमार निषाद बताते हैं, 'लगभग दो-ढाई साल पहले मोटरबोट में सवार होकर कुछ लोग  उनके गांव की ओर आते थे और नदी के पानी का इस्तेमाल न करने की मुनादी करते हुए मछुआरों का जाल और किसानों का पंप जब्त कर लिया करते थे. पहले- पहल तो गांववालों को  यह समझ में ही नहीं आया लेकिन बाद में पता चला कि सरकार ने राजनांदगांव जिले के एक व्यापारी कैलाश सोनी को नदी बेच दी है.'  नदी पर व्यापारी के कब्जे के बाद गांववालों के जनजीवन पर क्या फर्क पड़ा,  पूछने पर गांव के साधुराम, इंशाराम और शिवशंकर लगभग एक जैसी बात दोहराते हुए कहते हैं,  ‘जैसे-जैसे लोगों को यह पता चलता गया कि वे अब पानी का इस्तेमाल नहीं कर सकते वैसे-वैसे झगड़ा बढ़ता गया. नदी से पानी लेने वाले लोगों को पानी चोर साबित किया जाने लगा. किसानों के पंपों को जब्त करने पर मामला थाने पहुंचा तो मछुआरों ने डर के मारे मछली मारना बंद कर दिया. कई दिनों तक धरना- प्रदर्शन चला तब जाकर पानी के इस्तेमाल की रोक-टोक खत्म हुई.’ महमरा के किसान रमऊ कहते हैं, ‘काफी हील-हुज्जत के बाद रोक-टोक खत्म तो हो गई लेकिन गांववालों की मुसीबतें अब भी बरकरार हैं.’ रमऊ आगे कहते हैं, ‘कैलाश सोनी की कंपनी ने इलाके के उद्योगों को पानी देने के लिए खुद का बांध बनवा लिया है लेकिन जब- जब बांध के जरिए पानी रोकने का काम चलता है तो नदी के किनारे खेती करने वाले लोगों की जमीन का कटाव बढ़ जाता है.’ रमऊ ने तहलका को बताया कि कभी वह तीन एकड़ जमीन का मालिक था. लेकिन लगातार कटाव से अब उसकी जमीन खत्म होने के कगार पर है.

छत्तीसगढ़ में शिवनाथ, महानदी और इंद्रावती, जोंक, केलो, अरपा, शबरी, हसदेव, खारून और मांड ऐसी नदियां हैं जिन्हें जीवनदायिनी माना जाता है. लेकिन 1998 में शिवनाथ के पानी को निजी हाथों में सौंपने के साथ राज्य में नदियों के जीवनदायिनी स्वरूप को खत्म करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अब काफी विकराल स्थिति में जा पहुंचा है.

छत्तीसगढ़ जब अविभाजित मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब 26 जून, 1996 को दुर्ग जिले के औद्योगिक क्षेत्र बोरई में स्थित एक कंपनी एचईजी स्पंज आयरन ने मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास केंद्र की रायपुर शाखा को पत्र लिखकर यह अवगत कराया था कि उसे अपने उद्योग चलाने के लिए हर रोज 24 लाख लीटर पानी की जरूरत होगी. औद्योगिक विकास निगम ने एचईजी को पानी की आपूर्ति का आश्वासन तो दिया लेकिन साथ ही उद्योग के समक्ष शिवनाथ नदी पर एक एनीकट बनाने का प्रस्ताव भी रखा. एचईजी एनीकट के निर्माण के लिए सहमत हो गया था लेकिन इस बीच अफसरों में इस बात को लेकर मतभेद उभरा कि एचईजी के आर्थिक सहयोग से एनीकट का निर्माण उचित होगा या नहीं. अफसरों ने यह माना कि यदि एचईजी एनीकट के निर्माण का पार्टनर बनेगा तो पानी को समय-असमय लेने के लिए उसका दबाव भी झेलना होगा.अततः औद्योगिक विकास निगम ने यह तय किया कि नदी पर इलेक्ट्रॉनिक तरीके से खुलने और बंद होने वाला गेट लगाया जाए. 14 अक्टूबर, 1997 को राजनांदगांव जिले के कैलाश इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन के कर्ताधर्ता कैलाश सोनी ने औद्योगिक विकास केंद्र, रायपुर को एक पत्र के जरिए यह अवगत कराया कि उनके द्वारा आटोमेटिक टिल्टिंग गेट तैयार किया गया है और इसका पेटेंट केवल उनके पास है. पांच अक्टूबर, 1998 को औद्योगिक विकास निगम और कैलाश सोनी की कंपनी जिसका नाम रेडियस वाटर लिमिटेड रखा गया, के बीच बिल्ड, ओन, ऑपरेट ऐंड ट्रांसफर (बूट) पद्धति से एक अनुबंध हुआ. प्रशासनिक हलकों में बूट का शाब्दिक अर्थ है- निर्माण करो, मालिक बनो, काम शुरू करो और फिर एक समयावधि के बाद निर्माण सरकार को सौंप दो. निगम से अनुबंध हो जाने के बाद रेडियस वाटर गांववालों को नदी का पानी इस्तेमाल करने पर धमकाने लगी. महमरा के छोटे से डैम पर जब तब कैलाश सोनी की मोटरबोट तेजी से आती तो गांववाले भाग खड़े होते. हालांकि अब वैसी पाबंदी नहीं है लेकिन कंपनी के कर्ताधर्ता कैलाश सोनी के गुर्गों का खौफ गांववालों के चेहरों से गायब नहीं हुआ है. गांववाले चाहते हैं कि सरकार नदी को वापस उन्हें ही सौंप दे लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया है. दरअसल रेडियस वाटर और औद्योगिक विकास निगम के बीच अनुबंध की अवधि कुल 22 साल के लिए है. इस हिसाब से  अनुबंध चार अक्टूबर, 2020 को खत्म होगा. औद्योगिक विकास निगम से जुड़े सूत्र बताते हैं कि कंपनी को पानी बेचने के एवज में अब तक 28 करोड़ से अधिक का भुगतान किया जा चुका है.

एक निजी कंपनी को नदी सौंपे जाने के मामले में जब खूब हो-हल्ला मचा तब तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने रेडियस वाटर के साथ किए गए अनुबंध को समाप्त करने की घोषणा कर दी. हालांकि उनकी घोषणा मात्र घोषणा रह गई. जोगी के सत्ता से हटते ही भाजपा ने भी मामले में कार्रवाई का आश्वासन दिया, लेकिन वह भी इस मसले पर आगे नहीं बढ़ पाई. 16 मार्च, 2007 को विधानसभा की लोकलेखा समिति ने रेडियस वाटर और औद्योगिक विकास निगम ( वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य औद्योगिक विकास निगम अर्थात सीएसआईडीसी ) के बीच हुए करार को निरस्त करने की सिफारिश की. सरकार ने सिफारिश पर कार्रवाई के लिए विधि, वित्त और उद्योग विभाग के सचिवों की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर दिया. यह कमेटी भी अब तक यह तय नहीं कर पाई है कि उसे करना क्या है. इस बीच कंपनी ने नदी किनारे की 176 एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया है. यहां इतनी तगड़ी घेराबंदी है कि कोई आम आदमी यहां नहीं जा सकता.

नदियों को निजी हाथों में सौंपने की यह कोई इकलौती कहानी नहीं है. रायपुर से 17 किलोमीटर दूर  एक गांव सिलतरा में जब उद्योग लगने की शुरुआत हुई तब भी निजी कंपनियों ने सरकार को पानी की लंबी-चौड़ी जरूरतें बताकर खारून नदी में इंटेकवेल स्थापित करने का काम प्रारंभ किया. बेंद्री और मुरेठी गांवों के निकट से बहने वाली नदी खारून में हाल-फिलहाल निजी कंपनी बजरंग इस्पात, मोनेट, रायपुर एलायंस और निको जायसवाल सीएसआईडीसी का इंटेकवेल मौजूद है. गांववालों के लिए उद्योगों की यह जलापूर्ति व्यवस्था उत्पीड़क साबित हो रही है. मुरेठी के पूर्व सरपंच हरिशंकर फैक्ट्री वालों पर जरूरत से ज्यादा पानी इस्तेमाल करने का आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘भले ही सीएसआईडीसी ने मोनेट, रायपुर एलायंस और निको जायसवाल जैसी कंपनियों को पानी देने का अनुबंध कर रखा है लेकिन सब जानते हैं कि पंपों से किस बेतरतीब तरीके से पानी खींचा जाता है.’ हरिशंकर बताते हैं कि फैक्ट्री वालों के पानी हासिल करने के तौर-तरीकों के चलते गांववालों को प्राय- निस्तारी के लिए दिक्कतों का सामना करना ही  पड़ता है. एक ग्रामीण खिलावन का कहना है कि फैक्ट्री द्वारा लगाए गए पंपों के कारण नदी और जमीन के भीतर मौजूद पानी पूरी तरह से प्रदूषित हो चुका है. वे बताते हैं, ' गांव के ज्यादातर लोग हैंडपंपों से पानी लेते हैं लेकिन अब हमारे हैंडपंपों के पानी से लोहे के बारीक कण निकलने लगे हैं.' मुरेठी गांव की सीमा दुर्ग जिले के गांव खुड़मुड़ी को छूती है. खुड़मुड़ी के घनश्याम, विजय निषाद, डोमन और बसंत वर्मा बारिश में गांव में आने वाली बाढ़ के लिए कंपनियों द्वारा स्थापित किए गए इंटेकवेल को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘ कंपनीवालों ने नदी का रास्ता रोक दिया है तो वह तटों को तोड़कर बाहर निकलेगी ही. इन लोगों ने यह भी कभी नहीं सोचा कि नदी के पानी पर निर्भर रहने वाले किसान अब  अपना जीवनयापन कैसे करेंगे.’ ग्रामीण मानते हैं कि खारून नदी का पानी जहर हो चुका है. वे कहते हैं, ‘कई उद्योगों में इस्तेमाल होने के बाद थोड़ा-बहुत पानी जिस ढंग से नदी में लौटता है वह न तो पीने योग्य रहता है और न ही खेतों में उपयोग के लायक.’

जलसंसाधन विभाग ने औद्योगिक प्रयोजन के लिए मोटे तौर पर जो नीति निर्धारित की है उसमें यह साफ तौर पर उल्लिखित है कि किसी भी जल संरचना पर किसी संस्थान का स्वामित्व, अधिकार या प्रबंधन अधिकार नहीं होगा लेकिन छत्तीसगढ़ में इस नीति की धज्जियां उड़ती दिखती है. प्रदेश की छोटी-बड़ी नदियों में उद्योगपतियों ने या तो इंटेकवेल स्थापित कर लिए हैं या फिर स्वयं के खर्च पर बांध का निर्माण कर लिया है. रायगढ़ में केलो नदी से पानी लेने और राबो गांव में बांध बनवाने को लेकर काफी बड़ा आंदोलन हो चुका है. आंदोलन में सैकड़ों ग्रामीणों पर पुलिसिया कहर टूटा है तो सत्यभामा सौंरा नाम की एक आदिवासी महिला को अपनी जान भी गंवानी पड़ी है. दरअसल वर्ष 1996 में जब जिंदल पावर लिमिटेड ने अपने पावर प्लांट के लिए शासन के समक्ष केलो नदी से पानी लेने का प्रस्ताव रखा तो पहले सरकार ने यह कहकर उसे नामंजूर कर दिया था कि इससे इलाके के रहवासियों के समक्ष पेयजल का संकट उत्पन्न हो जाएगा. लेकिन थोड़े ही दिनों में जिंदल को नदी से पानी लेने की इजाजत दे गई. नदी से पानी देने की बात सार्वजनिक होते ही बोंदा टिकरा, गुड़गहन सहित कई इलाकों के किसान विरोध में उठ खड़े हुए. क्षेत्र में कई दिनों तक आंदोलन चला. यहीं की एक ग्रामीण सत्यभामा फैक्ट्री को पानी देने के विरोध में अनशन पर बैठीं और 26 जनवरी, 1998 को अनशन करते हुए उनका निधन हो गया. पानी के लिए शहीद होने वाली सत्यभामा की स्मृति को जिंदा रखने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं ने केलो नदी के किनारे एक समाधि स्थल का निर्माण किया है लेकिन आज भी इस समाधि स्थल के सामने से बहने वाली केलो नदी का पानी पावर प्लांट में जाना बंद नहीं हुआ है. इतना ही नहीं जिंदल अपने तमनार और तराईमाल इलाके में स्थापित संयंत्रों के लिए भूमिगत स्रोतों के अलावा महानदी और कुरकुट नदी के पानी का इस्तेमाल भी कर रहा है. कुरकुट नदी से पानी लेने के लिए घरघोड़ा तहसील के राबो गांव में एक बांध का निर्माण भी किया गया है.

पहले-पहल लोगों ने इस बांध का भी विरोध किया लेकिन कुछ समय के बाद उनकी हिम्मत जवाब दे गई. नदियों के पानी और पर्यावरण को प्रदूषित करने के खिलाफ मुखर रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता रमेश अग्रवाल को जिंदल की विस्तारित योजनाओं का विरोध करने की वजह से जेल की सजा काट चुके हैं. तहलका से चर्चा में अग्रवाल कहते हैं, ‘जिंदल ने कभी भी नियम- कानून का पालन नहीं किया. यदि पानी लेने के मामले को ही देखें तो नदियों पर सबसे पहला हक खेतों में अन्न उपजाने वाले किसानों का होता है. उसके बाद उन नागरिकों का जिन्हें पीने के लिए पानी चाहिए, लेकिन जिंदल ने सरकारी नुमाइंदों के साथ मिलीभगत कर प्राथमिकताओं को बदलने का काम किया, जिसका परिणाम यह है कि गांवों के हैंडपंपों से पानी का निकलना बंद हो गया है. गर्मी के आगमन से पहले ही रायगढ़ के बचे-खुचे तालाब सूख जाते हैं और नदियां पानी के बगैर बेवा नजर आने लगती हैं सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की मीडिया फेलोशिप के तहत जल के मुद्दे पर काम करने वाले पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल भी यह मानते हैं कि छत्तीसगढ़ में जल उपयोग की प्राथमिकताएं बड़ी निर्ममता से बदली गई हैं. पुतुल कहते हैं, ‘पहले नदी में बांध बनाने के पीछे एकमात्र कारण होता था फसलों की सिंचाई, लेकिन अब राज्य की हर छोटी-बड़ी नदी पर बांध निर्माण का उद्देश्य रह गया है औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाना.’ प्रदेश की जलउपयोगिता समिति की कई बैठकों में किसानों को ग्रीष्मकालीन फसल के लिए पानी देने के मुद्दे पर असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है. 19 फरवरी, 2010 को विधानसभा में विधायक नंदकुमार पटेल के एक प्रश्न के उत्तर में सिंचाई मंत्री ने यह स्वीकारा भी है कि हसदेव बांगो बांध में पानी की कमी के चलते किसानों को ग्रीष्मकालीन फसल के लिए पानी नहीं देने का फैसला किया गया था.

धान का कटोरा कहे जाने वाले  छत्तीसगढ़ में पानी से जुड़ी सरकारी प्राथमिकताओं का बदलाव फिलहाल नदियों के किनारे बसे गांवों को ही प्रभावित कर रहा है लेकिन स्थिति न बदलने पर इसका असर बड़े फलक पर जल्दी ही दिखने लगेगा.

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