Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | जलवायु संकट के बादल- अतुल कुमार सिंह

जलवायु संकट के बादल- अतुल कुमार सिंह

Share this article Share this article
published Published on Oct 26, 2012   modified Modified on Oct 26, 2012
जनसत्ता 26 अक्टुबर, 2012: भारत समेत दुनिया के सामने दो सबसे अहम समस्याएं भुखमरी और जलवायु संकट हैं। ये दोनों ऐसे मुद्दे हैं जिनसे न केवल मानवता के भविष्य बल्कि पूरे जीव-जगत और अंतत: दुनिया के अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है। विश्व भर में इन मुद्दों पर खासी चर्चा और चिंताएं भी हैं। लेकिन इनसे निपटने के लिए जो उपाय सामने आ रहे हैं उनमें न तो मुकम्मलपन दिखता है और न ही उन पर विश्वास हो पाता है। कारण साफ है कि कृषि की गिरती स्थिति के लिए जिम्मेदार जलवायु परिवर्तन और उसके कारणों पर किसी का ध्यान नहीं है। दूसरी ओर, खेती पर आधारित समाजों के लिए पैदावार में क्षरण भुखमरी का सबब बनता जा रहा है।
विशेषज्ञों का एक तबका फिलहाल इन दोनों को एक-दूसरे से जोड़ कर देखने को तैयार नहीं है, लेकिन उनका भी मानना है कि अगले पचास-साठ सालों में जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव कृषि पर दिखने लगेगा। इनमें काफी हद तक सरकारी विशेषज्ञ आते हैं। विशेषज्ञों का दूसरा तबका भी है जो उपर्युक्त आंकड़ों के मद्देनजर अभी से कृषि पर जलवायु परिवर्तन के असर की बात करता है। इनकी संख्या बड़ी है और चिंताएं तथ्यों के अधिक करीब।
दुनिया की लगभग सात अरब आबादी में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या एक अरब से अधिक हो गई है। माना जा रहा है कि आबादी बढ़ने की रफ्तार यही रही तो इस शताब्दी के अंत तक दुनिया की आबादी दस अरब हो जाएगी। इनमें करीब आठ अरब लोग विकासशील देशों में होंगे। इनमें से करीब पचहत्तर प्रतिशत आबादी, विशेषकर ग्रामीण इलाकों की, किसी न किसी तरह से भूखे लोगों के दायरे में आ जाएगी।
इस आबादी में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो छोटे स्तर के किसान हैं। यानी इस आबादी का न केवल भोजन का आधार कृषि है बल्कि पूरा जीवनयापन ही कृषि पर आधारित है। दुनिया भर में करीब 1.7 अरब लोग आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। विकासशील और अविकसित देशों में इनका अनुपात अपेक्षया अधिक है। इनके लिए गुजर-बसर करना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि खेती घाटे का सौदा तो हो ही गई है, ऊपर से व्यवस्थाजन्य उपेक्षा उसके संकट को चौगुना बढ़ा रही है।
जलवायु बदलाव को लेकर 1992 से वैश्विक चिंता शुरू हुई, जो आगे चल कर इसके प्रमुख जिम्मेदार देशों की टालमटोल और सीधे उपेक्षा करने की नीति के कारण केवल रस्मी और ढकोसला साबित होने लगी। अब तक जलवायु परिवर्तन को लेकर पांच विश्व सम्मेलन हो चुके हैं लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई है। जब अभी सैद्धांतिक मुद््दों पर ही सहमति नहीं बन पाई है तो क्रियान्वयन के मसले पर बात होने की उम्मीद कैसे की जाए!
जलवायु परिवर्तन का असर वैसे तो पूरी दुनिया में है, लेकिन अफ्रीका और एशिया में स्थिति कुछ ज्यादा ही चिंताजनक है। जलवायु परिवर्तन का मुख्य क्षेत्र मौसमी वर्षा है, जो ग्लोबल वार्मिंग और कॉर्बन उत्सर्जन की वजह से अपना समय बदल रही है। बिहार में पिछले पचास सालों में मानसून का समय काफी आगे खिसक गया है। इस कारण खेती और उससे जुड़े व्यवसायों पर गहरा असर पड़ रहा है। तापमान में थोड़ी-सी भी वृद्धि कृषि के लिए कई तरह के संकट पैदा करती है। इससे उत्पन्न होने वाले रोगों और बाढ़, सुखाड़, चक्रवात के आने का खतरा तेजी से बढ़ जाएगा। जलवायु परिवर्तन से न केवल आजीविका पर संकट आएगा बल्कि खाद्यान्न उत्पादन और इसकी उपलब्धता भी प्रभावित होगी।
जलवायु परिवर्तन का कृषि पर एक बड़ा असर ग्रीनहाउस प्रभाव भी है। वर्तमान में माना जा रहा है कि कुल ग्रीनहाउस उत्सर्जन का करीब पंद्रह फीसद तक कृषि से आता है। भविष्य में जंगलों की अंधाधुंध कटाई से यह हिस्सेदारी तीस प्रतिशत से अधिक हो जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। दुनिया के विकसित देशों का इस कारण विकासशील देशों पर दबाव भी बन रहा है कि वे अपने यहां कॉर्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करें। यूरोपीय देशों का आकलन है कि कुल कॉर्बन उत्सर्जन में पचहत्तर प्रतिशत विकासशील देशों का होता है। उनका दबाव इस बात को लेकर भी है कि विकासशील देश ‘सॉयल कॉर्बन सीक्वेस्ट्रेशन’ के माध्यम से कॉर्बन उत्सर्जन को कम करें। इस विधि में जमीन को लंबे समय के लिए परती छोड़ दिया जाता है। लेकिन विकासशील देशों, खासकर भारत और चीन जैसे देशों में जहां आबादी बेशुमार है, जमीन को परती छोड़ना न तो व्यावहारिक है और न लोगों के हित में। क्योंकि इन देशों की बड़ी आबादी पूरी तरह से कृषि पर ही आश्रित है।
वर्षा और तापमान में भी जलवायु परिवर्तन के चलते परिवर्तन हो रहे हैं। एक तरफ तापमान और दूसरी तरफ नमी में भी बढ़ोतरी हो रही है। इसके कई तरह के प्रभाव कृषि पर पड़ रहे हैं। मसलन, रबी की फसल में कमी होने की आशंका है। फलों, सब्जियों, चाय, कॉफी, सुगंधित चिकित्सीय पौधों और बासमती चावल की गुणवत्ता बदल जाएगी। वनस्पति और पशुपालन को प्रभावित करने वाले रोगाणुओं और कीड़ों की संख्या बदल और बढ़ जाएगी।
इसी तरह दुधारू पशुओं से उत्पाद घट जाएंगे; मछली प्रजनन, प्रवासन और मछली उत्पादन में कमी होगी। बाढ़, सूखा, समुद्री तूफान, भू-क्षरण और भू-स्खलन जैसी आपदाएं बढ़ जाएंगी। और इसके परिणामस्वरूप समुद्र का दायरा बढ़ जाएगा और लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। आमतौर पर यह माना जाता रहा है कि समुद्र का जल-स्तर बढ़ने की नौबत आएगी भी, तो इसमें कई दशक लगेंगे। मगर अंटार्कटिका में बर्फ पिघलने के क्रम को देखते हुए अब यह आशंका जताई जा रही है कि द्वीपीय राष्ट्रों के वजूद पर संकट और पहले भी आ सकता है।
इन तथ्यों के मद््देनजर विचारणीय विषय यह है कि आखिर क्या करना चाहिए। क्या विकसित देशों का हृदय परिवर्तन होने तक इंतजार किया जाए। पिछले बीस सालोें का अनुभव तो यही बताता है कि यह कदम हमारे लिए आत्मघाती होगा। यह न केवल हमारे अर्थतंत्र को नुकसान पहुंचाएगा बल्कि खेती को भी चौपट कर देगा। 
भारत में कृषि की इस साल की स्थिति को देखें तो खरीफ के मौसम में धान की बुआई सामान्य से अधिक हुई है, जबकि कम वर्षा होने के कारण मोटे अनाज, दलहन और तिलहन का रोपाई क्षेत्र घट गया है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, सात सितंबर 2012 को समाप्त सप्ताह तक 356.07 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की रोपाई की गई है, जबकि उसके एक सप्ताह पहले 347.10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में इसकी रोपाई की गई थी। इस सप्ताह के लिए धान की रोपाई का सामान्य क्षेत्र 344.69 लाख हेक्टेयर निर्धारित था।
इसी तरह मोटे अनाज का रकबा 173.85 लाख हेक्टेयर रहा, जबकि इससे पिछले सप्ताह यह आंकड़ा 167.87 लाख हेक्टेयर रहा था। इस समय तक मोटे अनाज का सामान्य क्षेत्र 202.24 लाख हेक्टेयर होता है। आंकड़ों के अनुसार इस समय तक दलहन का रकबा 101.69 लाख हेक्टेयर होता है। 7 सितंबर 2012 तक 98.25 लाख हेक्टेयर में दलहन की रोपाई की गई है। तिलहन की बुआई का क्षेत्र लगभग सामान्य रहा। उपर्युक्त आंकड़ों को देखने से साफ है कि वर्षा की कमी के कारण खासकर मोटे अनाज की फसल का क्षेत्रफल घट गया है।
यहां यह ध्यान देने की जरूरत है कि मोटे अनाज कम वर्षा में भी तैयार हो जाते हैं। पर इस साल हुई वर्षा मोटे अनाज के लिहाज से भी कम रही। इसका दूसरा पहलू यह है कि वर्षा हुई लेकिन समय पर कम हुई। यानी जब मोटे अनाज की बुआई का समय होता है, उनकी रोपनी के लिए जितना पानी चाहिए, उतना भी नहीं हो पाया। इस कारण इन फसलों की खेती पर असर पड़ा। बाद के दिनों में वर्षा काफी हुई। यह केवल इस साल का आंकड़ा उदाहरण के तौर पर है। असलियत यह है कि पिछले तीन-चार दशकों में वर्षा का समय बदलने, अनियमित वर्षा और गैर-जरूरी वर्षा के कारण फसल-चक्र पर बुरा प्रभाव पड़ा है और कई फसलें बहुत ही कम हो गई हैं या उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया है।
हालांकि, कृषि विशेषज्ञों का एक तबका आश्वासन दे रहा है कि जलवायु परिवर्तन का कृषि पर निकट भविष्य में कोई असर नहीं पड़ने वाला है। लेकिन यही विशेषज्ञ देश को आगाह भी कर रहे हैं कि दीर्घकालिक तौर पर कृषि पर जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने के लिए अभी से रणनीति बनाने की जरूरत है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक एस अयप्पन ने इसी साल कहा है कि वर्तमान में तो जलवायु परिवर्तन से कृषि को कोई खास खतरा नहीं है लेकिन अगले पांच-छह दशकों में इसका प्रभाव दिखने लगेगा और इससे सावधान हो जाने की जरूरत है। कृषि विशेषज्ञ और परिषद के किसान प्रकोष्ठ के प्रमुख मंगला राय ने एक समाचार एजेंसी को दिए बयान में कहा था कि जब चालीस-पचास साल बाद तापमान में दो से तीन डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो जाएगी, उस समय कृषि बुरी तरह से प्रभावित होगी। इसलिए कृषि पर तीव्र मौसमी उतार-चढ़ाव के खतरों से निपटने के लिए अभी से दीर्घकालिक योजना बनानी होगी।
आज सारी दुनिया में जलवायु परिवर्तन के खतरे का शोर सुनाई दे रहा है। लेकिन इसका शोर ही मचता है, गंभीरता से इस पर चर्चा नहीं होती, वरना जीवन शैली का मुद्दा जरूर उठता। इस जीवन शैली के कारण खेती पर कई तरफ से मार पड़ रही है। साथ में जलवायु बदलाव ने खेती के मानव-जनित और व्यवस्था-जनित संकट को कई गुना बढ़ा दिया है।
जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं है। इससे भावी पीढ़ियों के लिए भी गंभीर संकट आने वाला है। कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाले कुल नुकसान की अस्सी फीसद कीमत विकासशील देशों को चुकानी पड़ेगी। आज जो संयुक्त राष्ट्र संचालित सहस्राब्दी विकास लक्ष्य का ढोल पीटा जा रहा है उस तक पहुंचने के लिए विकासशील देशों को एक बड़ी राशि अदा करनी होगी, जो शायद उनके लिए संभव नहीं होगा।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/31463-2012-10-26-05-46-28


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close