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न्यूज क्लिपिंग्स् | टिकाऊ पर्यावरण में भारत से बढ़कर कोई नहीं-- वीरेन्द्र रावत

टिकाऊ पर्यावरण में भारत से बढ़कर कोई नहीं-- वीरेन्द्र रावत

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published Published on Feb 9, 2016   modified Modified on Feb 9, 2016
गुजरात के भोड़ासा में नई स्कूल बिल्डिंग बना रहे थे। मैं पहाड़ी आदमी हूं, उत्तराखंड में। मुझे हरियाली की आदत है तो मैंने ट्रस्टीज को कहा कि क्या हम ग्रीन बिल्डिंग बना सकते हैं। उन्होंने पूछा कि इसका क्या मतलब है तो मैंने कहा कि यदि इमारत में प्रकृति के नियमों का पालन करें तो ऐसी इमारत ग्रीन कहलाती है। उनकी रजामंदी के बाद मैंने आर्किटेक्ट को मेरा विचार समझाया। उसने इमारत को गोलाकार बना दिया ताकि हर कक्षा में हवा का प्रवाह अच्छा रहे। इस विचार ने विराट रूप धारण कर लिया। हमारे लिए ग्रीन यानी इन्क्लूजिवनेस, सर्वसमावेश है। यह इतना सफल हुआ कि मुझे अमेरिका में दो स्कूल स्थापित करने का आमंत्रण मिला है। अाबूधाबी में भी स्कूल स्थापित किया है। 31 मार्च को मुझे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने ग्रीन स्कूल पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया है।

हम भारतीयों से ज्यादा कौन सस्टेनेबल हैं? दादाजी का पाजामा है, फिर वह बरमूडा बन जाता है, फिर तकिये का कवर बन जाता है। अंत में उससे फर्श साफ करने का काम लिया जाता है। हमने भारतीय संस्कृति के मुताबिक पंच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश की अवधारणा पर काम किया। हमने बरसाती पानी को इकट्‌ठा करना शुरू किया। 20 फीसदी से शुरुआत कर अब हम स्कूल में 60 फीसदी एकत्रित बरसाती पानी का इस्तेमाल कर रहे हैं।

अग्नि यानी ऊर्जा। इमारत का लाइटिंग ऑडिट किया। हमारा दो माह का बिजली का बिल 50 हजार रुपए आता था। बच्चों ने कक्षाओं में ट्यूबलाइट को खुद ही बंद करना शुरू किया, क्योंकि स्कूल सुबह 7:30 से दोपहर 1:30 तक चलता था और पर्याप्त रोशनी रहती थी। हमारा बिजली का बिल घटकर 30 हजार पर आ गया। बच्चे सेंड फिल्टर वाला पानी ज्यादा इस्तेमाल करने लगे, क्योंकि मिट्‌टी से फिल्टर किए पानी में मिनरल उचित मात्रा में रहते हैं, जिससे प्यास जल्दी बूझ जाती है। पहले बच्चे बार-बार पानी पीने जाते थे और कक्षा में डिस्टर्बंस होता था, लेकिन इस परिवर्तन से उन्हें 45 से 90 मिनट तक प्यास नहीं लगती है। क्लास में बच्चों का प्रेजेंस बढ़ गया, एकाग्रता बढ़ी। हमारे स्कूल में प्रति विद्यार्थी तीन लीटर पानी खर्च होता है, जबकि विश्व में यह औसत कम से कम पांच लीटर है। इसके बाद हमने सोलर पेनल लगाए और बिजली की सारी जरूरत इससे पूरी होने लगी। वायु तत्व ऐसे ख्याल रखा कि एक पेड़ करीब 25 टन ऑक्सीजन पैदा करता है, जो 25 विद्यार्थियों के लिए पर्याप्त है। स्कूल में 25 बच्चों पर एक पेड़ और एक शिक्षक है।

फिर पृथ्वी यानी धरती। पहले माली रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करता था। हमने कंपोस्टिंग के जरिये खाद बनानी शुरू की। माली सुबह 11 बजे आता था और पौधों को पानी देता था। यह पानी जमीन में जाने की बजाय उसका वाष्पीकरण हो जाता। हमने बच्चों से कहा कि हर हफ्ते में एक कक्षा को पौधों को पानी देना है और वह भी सूर्यास्त के बाद। पहले सूखे पत्ते बिछाए और बाद में पानी डाला। पानी सीधे जड़ों मंे जाता और हफ्ते में एक ही दिन पानी देना पर्याप्त सिद्ध हुआ। पानी की 80 फीसदी बचत होने लगी। हमने ग्रीन स्टोरी टेलिंग का कैम्पेन चलाया। हर विद्यार्थी को कहा कि सालभर में उन्हें पर्यावरण को लेकर पांच स्थानीय कहानियां खोज के लानी हैं। चाहे दादी-नानी से सुुनकर लाएं या कहीं से पढ़कर। हमारे पास पांच-छह हजार कहानियों का संग्रह तैयार हो गया। इससे स्थानीय समाज को समझने में आसानी हो गई।

1994 में उत्तराखंड से गुजरात आने के बाद मैं कॉर्पोरेट सेक्टर में था। हमने प्रबंधन और अन्य कॉलेजों में एक एम्प्लाएबिलिटी टेस्ट किया कि कितने बच्चे रोजगार के योग्य हैं। हमें लगा कि यह तो बहुत कम है। समस्या कॉलेज की नहीं, स्कूलों की थी। इसलिए हमने स्कूलों के लिए टीचर्स ट्रेनिंग शुरू की। बच्चे को समझाने की जरूरत नहीं होती। उसे समझने की जरूरत होती है। हमने बच्चों को समझाना बंद कर, समझना शुरू कर दिया। फिर समझाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। जैसे हमने बच्चों की लेबलिंग बंद कर दी कि यह बच्चा होशियार है, वह डल है। फिर रुचि समझनी शुरू की। सिलेबस को ड्रामेटाइज कर दिया। किस्से-कहानियों में बच्चों को बहुत मजा आने लगा। हमने इन्क्वायरी बेस्ड टिचिंग शुरू की। हर कक्षा के बच्चे को हर विषय में हफ्ते में कम से कम दस प्रश्न पूछने होते हैं। शिक्षक को उन सारे प्रश्नों का संतोषजनक जवाब देना होगा। चूंकि बच्चे कुछ भी पूछ सकते हैं, इसलिए शिक्षकों ने भी पढ़ना शुरू कर दिया। कमजोर बच्चों के लिए शनिवार शाम ‘पायजामा क्लास' शुरू की। वे डिनर बॉक्स लेकर आते और पायजामा पहनकर आते। जैसे किसी बच्चों को छह माही परीक्षा में 25 फीसदी अंक आए तो उसे 15 दिन का वक्त देकर कहा जाता कि उस दिन उसकी पायजामा क्लास है। उस दिन उसे शिक्षक से ऐसा प्रश्न पूछना होता, जिसका जवाब वे न दे सके तो वह पास हो जाएगा। अब एक कठिन प्रश्न पूछने के चक्कर में वह सौ अन्य प्रश्न व उनके उत्तर पढ़ डालता है। 15 दिन में वह पूरा सैलेबस पढ़ जाता। फिर वह जाकर शिक्षिका से पूछता और उन्हें आता भी है तो वे जवाब नहीं देतीं। उसका आत्मविश्वास बढ़ जाता।

ज्ञान की खोज में सारे बच्चे-शिक्षक एक हो गए। भेदभाव नहीं रहा। बच्चों में आत्मविश्वास विकसित हो गया। यही हमारे ग्रीन स्कूल और पश्चिम के ग्रीन स्कूल का फर्क है। मैं अमेरिकी स्कूलों में बच्चों से पूछा कि हाउ ग्रॉसरी कमर टू यूवर होम? उनका जवाब था, फ्राम ग्रॉसरी स्टोर। हम बच्चों में वह संस्कृति ही बना देते हैं। पश्चिम में सोलर एनर्जी इस्तेमाल करने वाले स्कूल को ग्रीन स्कूल कह देते हैं। हमने एक प्रयोग और किया। हर व्यक्ति का होम गार्डन होता है। छुटि्टयों में बाहर जाए तो उनकी देखभाल कौन करेगा? हमारे बच्चे ऐसे लोगों के गमले स्कूल में ले आते हैं। हमारे पास कॉल आते हैं कि हम दस दिन बाहर जा रहे हैं। दस दिन उनके गमले हमारे स्कूल में रहेंगे। जब वापस आते हैं तो गमले तो ले ही जाते हैं, बच्चों को पांच सौ से पांच हजार रुपए तक इनाम भी दे जाते हैं। सबसे बड़ी बात उनके साथ हमारा रिश्ता हो जाता है। इंदौर में चोइथराम स्कूल को ग्रीन करने को कहा गया है। हमने हर बच्चे को एक वर्ग मीटर का गार्डन दिया है। जो बच्चा वहां सब्जियां उगाएगा, वे उन्हें घर ले जाएगा। हमें कहीं बुलाते हैं तो पहले हम कैंपस का बायो डायवर्सिटी ऑडिट करते हैं। कितने पक्षी हैं, कितने पेड़ हैं, कितनी गिलहरियां हैं आदि। इस तरह बच्चों को पहले कैंपस के पर्यावरण से जोड़ते हैं। फिर टीचर्स का सेशन लेते हैं। फिर बच्चों का और फिर बताए अनुसार काम शुरू होता है।


http://www.bhaskar.com/news/ABH-virendra-rawat-column-5243267-NOR.html


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