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न्यूज क्लिपिंग्स् | धरती कहे पुकार के

धरती कहे पुकार के

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published Published on Apr 8, 2010   modified Modified on Apr 8, 2010
ढ़ती हुई कीमतें उस आपदा का सिर्फ एक संकेत हैं, जिससे खेती जूझ रही है. दरअसल भारतीय कृषि क्षेत्र बुरी तरह से चरमरा रहा है. संकट से पार पाने के लिए नजरिए में बड़े बदलावों की जरूरत है. लेकिन कृषि मंत्री शरद पवार आपदा की इस आहट को सुनने के लिए तैयार नहीं. अजित साही और राना अय्यूब की रिपोर्ट

सरकारी नीतियों से लेकर अखबार की सुर्खियों तक तरजीह पाने वाली इस देश की शहरी आबादी को खेत-खलिहान से जुड़ी किसी बात से तब तक कोई खास लेना-देना नहीं होता जब तक या तो सब्जियों के दाम आसमान न छूने लगें या फिर चीनी या दाल जैसी रोजमर्रा की चीज अचानक ही बहुत महंगी न हो जाए. शहरी मध्यवर्ग में ऐसे लोग गिने-चुने ही होंगे जो रबी या खरीफ के बीच का फर्क बता सकते हों. कृषि विज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों और कार्यकर्ताओं को छोड़कर ज्यादातर लोग डब्ल्यूटीओ, नकदी फसलों, समर्थन मूल्य, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, खाद्य संप्रभुता और मोनोकल्चर या एकलसंस्कृति जैसे शब्दों पर गौर करने की जहमत नहीं उठाते. दस साल पहले तक सैकड़ों में सीमित किसान आत्महत्याओं का आंकड़ा आज दो लाख के करीब पहुंच चुका है. मगर किसी की इसमें कोई दिलचस्पी ही नहीं.
देखा जाए तो इस तरह की उपेक्षा दिखाकर हम अपने और अपने बच्चों के लिए एक बड़ा जोखिम मोल ले रहे हैं. यह कहने वाले जानकारों की संख्या लगातार बढ़ रही है कि भारत में खेती चौपट होने की दिशा में कदम बढ़ा रही है. अगर हमने इसे लेकर अपना बुनियादी नजरिया और नीतियां नहीं बदलीं तो वह दिन दूर नहीं जब अनाज की कमी और उसकी ऊंची कीमतों के चलते देश में व्यापक भुखमरी की स्थिति पैदा हो जाएगी. साथ ही करोड़ों किसानों के लिए जीना दूभर हो जाएगा.

अगर आपको अब भी यह बड़ी खबर नहीं लगती तो पढ़िए कि सरकार के कृषि प्रबंधन के आलोचक और कृषि विशेषज्ञ सुमन सहाय क्या कहती हैं, ‘दस साल पहले जब मैंने झारखंड में काम करना शुरू किया था तो वहां कोई नक्सलवाद नहीं था. मैं इन नाराज नौजवानों में से कइयों को जानती हूं. ऐसा नहीं है कि वे सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. वे तो बस खेती करना चाहते हैं. मगर उनमें से ज्यादातर ने मान लिया है कि उनकी सुनने वाला कोई नहीं, सरकार ने उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया है.’

झारखंड के किसानों के पास आज फसलों को देने के लिए पानी नहीं है. पिछली बार बुआई के मौसम में सरकारी बीज भंडारों से बीज मिलने में तीन महीने लग गए. तब तक बुआई के लिए बहुत देर हो चुकी थी. वहां शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा जिसे खेती से यह उम्मीद हो कि इससे साल भर तक उसके परिवार का पेट भर जाएगा. सहाय कहती हैं, ‘यहां तक कि जिन किसानों के पास दस-दस एकड़ जमीनें हैं वे भी खेती करने की बजाय शहर जाकर रिक्शा चलाने या फिर किसी दफ्तर में चपरासी की नौकरी करना पसंद करते हैं.’

भारत में खेती के क्षेत्र में तेज गिरावट की शुरुआत तो 1990 के दशक में ही हो गई थी लेकिन पिछले छह साल के दौरान जिस एक व्यक्ति के रहते इसकी सबसे ज्यादा दुर्दशा हुई वे हैं केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार. देश के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक पवार खुद एक किसान के बेटे हैं जिन्होंने महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों की जमीन पर अपनी राजनीति की मजबूत इमारत खड़ी की. उनके बारे में कहा जाता है कि वे न सिर्फ भारतीय बल्कि दुनिया भर की खेती का चलता-फिरता ज्ञानकोष हैं. 2004 की गर्मियों में जब उन्होंने इस मंत्रालय की कमान संभाली थी तो कइयों को उम्मीद थी कि पवार अपने इस व्यापक ज्ञान का उपयोग कर कृषि क्षेत्र की नीतियों में सुधार लाएंगे ताकि किसानों को गरीबी के दलदल से बाहर निकाला जा सके. लोगों को यह भरोसा था कि वे आयात को बढ़ाए बिना खाद्य भंडारों का बेहतर प्रबंधन करके कीमतों को नीचे रखेंगे.

मगर पिछले छह साल से पवार की अगुवाई वाले कृषि मंत्रालय ने लगातार ऐसी नीतियां बनाई हैं कि न तो गरीब किसानों की मुसीबतें कम हुई हैं और न अनाज का प्रबंधन बेहतर हुआ है. इसकी बजाय उनका मंत्रालय मांग और आपूर्ति की बाजारवादी अर्थव्यवस्था, बड़े कॉरपोरेट घरानों, आयात में बढ़ोतरी और पानी व दूसरे संसाधन खाने वाली चावल, गेहूं और गन्ना जैसी फसलों के पक्ष में खड़ा नजर आया है. विडंबना देखिए कि मीडिया में उनकी चर्चा कृषि से ज्यादा क्रिकेट के क्षेत्र में उनके प्रबंध कौशल के चलते होती रही है. वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर कहते हैं, ‘खेती की अपनी व्यापक समझ का इस्तेमाल पवार ने प्रबंधन की बजाय मनमानी के लिए किया.’

परिणाम तो बुरा होना ही था. इस साल फरवरी से इस महीने तक खाद्य पदार्थों की कीमतों ने जबर्दस्त छलांग लगाई तो पवार ने कृषि मंत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झड़ने की भरसक कोशिश की. ऐसा करने में वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी इसके लिए बराबरी का जिम्मेदार बताने की हद तक चले गए. हालांकि फौरन ही उन्होंने यह साफ करने की कोशिश की कि उनके बयान को गलत तरीके से समझ गया है. एक दिन लोकसभा में उनके भाषण के दौरान समूचे विपक्ष ने बीच में ही वॉकआउट कर दिया.
अक्सर अविचलित रहने वाला यह शख्स लड़खड़ाने लगा है यह तब साफ जाहिर हो गया जब उन्होंने कांग्रेस पार्टी को अपने उस प्रवक्ता को हटाने पर मजबूर कर दिया जिन्होंने देश की कृषि नीतियों के लिए उन्हें कोसते हुए कैमरे के सामने ही असंसदीय भाषा का इस्तेमाल कर डाला. हटाए गए प्रवक्ता सत्यव्रत चतुर्वेदी और पवार दोनों से जब इस बारे में बात करने की कोशिश की गई तो उन्होंने कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

हालांकि पवार अपनी नीतियों का बचाव करते हैं (देखें इंटरव्यू). वे कहते हैं कि उनकी बनाई नीतियों की वजह से 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) के पहले दो वर्षों में भारतीय कृषि क्षेत्र में 3.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई जबकि 1990 के दशक के दौरान यह ज्यादातर दो प्रतिशत के आसपास घूमती रही थी. पवार किसानों को दिए जा रहे ऋणों में भारी बढ़ोतरी का भी हवाला देते हैं. कृषि क्षेत्र पर उनका जोर है यह बताने के लिए वे राष्ट्रीय कृषि विकास योजना सहित कई योजनाएं शुरू किए जाने का हवाला भी देते हैं.

मगर जानकारों का मानना है कि पवार की नीतियों ने भारतीय कृषि को अस्थिर और खतरनाक दिशा में धकेलना शुरू कर दिया है जिससे गरीबी और भुखमरी जैसी समस्याओं का दायरा बढ़ा है. खाद्य नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘खाद्य आयात का मतलब है बेरोजगारी का आयात.’ शर्मा वर्तमान कृषि संकट का ठीकरा पश्चिम, कारोबार, नकदी फसलों और आयात की तरफ झुकी कृषि नीतियों पर फोड़ते हैं. वे कहते हैं कि 1960 के दशक में हरित क्रांति के बाद से मंत्रियों, नौकरशाहों, वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों ने भारतीय कृषि की घोर उपेक्षा की है.

जब पवार ने 2004 में कृषि मंत्री का पदभार संभाला था तो साफ तौर पर कई चीजों की दरकार थी. फर्टिलाइजरों और कीटनाशकों की कीमतें आसमान छू रही थीं, उनपर लगाम लगाने की जरूरत थी. कृषि पैदावार के दाम बढ़ने का नाम नहीं ले रहे थे जिससे किसानों की उपज से होने वाली आमदनी लगातार कम हो रही थी. 2004 में ही एक आधिकारिक सर्वे हुआ था जिसमें यह बात जाहिर हुई थी कि एक किसान की औसत आमदनी 2,200 रुपए महीने से भी कम है. इसपर भी ध्यान देने की जरूरत थी.

किसान अपनी उपज बेचने के लिए संघर्ष कर रहे थे, इसके बावजूद पवार ने तिलहन से लेकर कपास जैसी फसलों तक पर आयात शुल्क में भारी कटौती का समर्थन किया. यह बड़ी हैरत की बात थी. तहलका से बात करते हुए पवार तर्क देते हैं कि अगर वे अब आयात शुल्क में बढ़ोतरी करते हैं तो दूसरे देश भी भारतीय कृषि उत्पादों पर भविष्य में आयात शुल्क बढ़ा सकते हैं. यानी जो गड़बड़ हुई है उसे चलते रहने देना होगा. उसे सही करना एक नई गड़बड़ को जन्म देगा.

महाराष्ट्र में शेतकरी कामगार पार्टी के वरिष्ठ नेता एनडी पाटिल गुस्से में कहते हैं, ‘हमारे कपास किसान आत्महत्या कर रहे हैं और हम 10 प्रतिशत के आयात शुल्क पर कपास का आयात कर रहे हैं.’ पाटिल के मुताबिक डब्ल्यूटीओ के तहत भारत आयातित कपास पर 150 प्रतिशत तक आयात शुल्क लगा सकता है. शर्मा के मुताबिक आयातित कपास पर कम आयात शुल्क हास्यास्पद है क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय संघ अपने किसानों को भारी सब्सिडी देते हैं. इसमें नकद रकम देना भी शामिल है. शर्मा कहते हैं, ‘उन्हें घर में बैठे-बैठे चेक मिल जाते हैं. हमारे किसानों को भी मिलने चाहिए.’ सुमन सहाय को याद है कि जब वे जर्मनी में रहती थीं तो किस तरह उनके पड़ोसी एक किसान परिवार ने नकद सब्सिडी पाने के लिए अपनी गाएं अपने आप को ही बेच दी थीं.

पवार की नीतियों की आलोचना न करने वाले लोग भी आयात को लेकर उनके तर्क को पचा नहीं पाते. महाराष्ट्र के नासिक कस्बे में रहने वाले कृषि नीति शोधकर्ता मिलिंद मुरुगकर पूछते हैं, ‘हमारे पास लाखों टन गेहूं गोदामों में है फिर भी हम 15 रुपए किलो की दर पर गेहूं आयात कर रहे हैं. क्यों?’ मुरुगकर कहते हैं कि उन्हें यह समझ में नहीं आता कि आखिर पवार देश में मौजूद अनाज का भंडार क्यों नहीं खोलते.

अनुभवी कृषि अर्थशास्त्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री वाईके अलघ आयात शुल्क घटाए जाने पर सावधान करते हैं. हाल ही में उन्होंने आयात शुल्कों पर एक दिशा तय करने के लिए बनाई गई एक समिति के निष्कर्ष सरकार को सौंपे हैं. इस समिति की अगुवाई भी अलघ ने ही की थी. वे बताते हैं, ‘हमने कहा कि सरकार को सक्षम किसान के खर्चे की भरपाई करनी चाहिए. कम शुल्कों पर आयात की इजाजत देने का मतलब यह है कि आप विदेशी किसानों को सब्सिडी दे रहे हैं. एक साल तो तिलहन पर आयात शुल्क खत्म ही कर दिया गया. यानी हम तब मलेशियाई और अमेरिकी किसानों को सब्सिडी दे रहे थे.’
उधर, सिंचाई के मोर्चे पर भी पवार की निष्क्रियता समझ से परे है. हैरत की बात है कि चार दशक पहले हरित क्रांति के बाद से आज तक सरकार की नीतियां सिर्फ उसी 40 फीसदी खेती की जमीन की तरफ झुकी रही हैं जो मुट्ठी भर राज्यों में है और जिसे ट्यूबवेलों और नहरों के जरिए व्यापक सिंचाई की सुविधा दी जा रही है. बाकी 60 फीसदी हिस्से की तरफ न के बराबर ध्यान दिया गया है. यह भूमि पूरी तरह से इंद्रदेव की कृपा के हवाले रही है और इसीलिए इसमें ऐसी फसलें उगाई जाती हैं जो सूखे मौसम की मार झेल सकें. मसलन तिलहन, दालें, ज्वार-बाजरा जैसा मोटा अनाज इत्यादि. अगर सरकार ने इन अनाजों की खेती को प्रोत्साहन दिया होता तो न सिर्फ लाखों किसानों की आजीविका चलती बल्कि देश के करोड़ों गरीब भूखों को सस्ता अन्न मिलता जिनका 80 फीसदी हिस्सा इसी शुष्क जमीन पर रहता है.

शुष्क भूमि के प्रति सरकार की यह उपेक्षा अक्षम्य है. दिल्ली स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी से जुड़े विपुल मुद्गल कहते हैं कि हरित क्रांति वाले इलाकों को सरकार औसतन 1.3 लाख रुपए प्रति एकड़ सब्सिडी देती है. इनमें पवार की कर्मस्थली प. महाराष्ट्र के वे इलाके भी शामिल हैं जो गन्ना उगाते हैं और जमकर पानी खर्च करते हैं. इसकी तुलना में शुष्क भूमि वाले इलाकों में सब्सिडी के लाभ का यह आंकड़ा महज पांच हजार रु प्रति हेक्टेयर (तकरीबन ढाई एकड़) है. मुद्गल कहते हैं, ‘किसी ने भी इन इलाकों के लिए एक अलग सिंचाई नीति बनाने के बारे में नहीं सोचा.’ वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने 2010 के बजट में इसकी पहल की है. चार करोड़ रुपए का खर्च रखकर. मगर मुद्गल कहते हैं कि यह राशि ऊंट के मुंह में जीरे जितनी भी नहीं है.

योजना आयोग के सदस्य मिहिर शाह कहते हैं कि भारतीय कृषि को बर्बाद होने से बचाने की मुहिम में जल प्रबंधन एक बड़ी भूमिका निभाएगा. शाह ने प्रधानमंत्री के कहने पर आयोग का सदस्य बनने से पहले दो दशक मध्य प्रदेश के गांवों में बिताए हैं. 1998 में उन्होंने भारत के शुष्क भूमि वाले इलाकों पर एक किताब लिखी थी जिसमें यह बताया गया था कि कैसे हरित क्रांति ने हर जगह एक ही समाधान पेश किया कि पानी चाहिए तो ट्यूबवेल खोद डालो, जिससे स्थितियां खराब होती चली गईं.

तहलका से बात करते हुए शाह बताते हैं कि भारत की शुष्क भूमि में से ज्यादातर उन चट्टानों से बनी है जो लाखों साल पहले तब अस्तित्व में आईं थीं, जब अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप टूटकर अलग हो गया था और कई भयानक ज्वालामुखी विस्फोट हुए थे. ऐसी शुष्क जमीन में भूमिगत जल हजारों साल के दौरान चट्टानों के बीच में बनी खोखली जगहों में इकट्ठा हो गया था. शाह कहते हैं, ‘महाराष्ट्र के सूखे इलाकों में गन्ना उगाना पारिस्थितिकी और पानी के स्तर के प्रबंधन के बुनियादी सिद्धांतों का मखौल उड़ाना है. पिछले तीस साल में हमने उस पानी का ज्यादातर हिस्सा इस्तेमाल कर लिया है और अब बहुत कम पानी बचा है.’

खेती को लेकर हर तरफ इसी उपेक्षा का आलम है. जून में जब हर तरफ गर्मी के चलते पानी की कमी होती है तो पंजाब में चावल उगाया जाता है. यह घमंड नहीं तो और क्या है. ऐसी गतिविधियों के चलते हर जगह भूमिगत जल का स्तर खतरनाक तरीके से नीचे तक चला गया है. शाह कहते हैं कि भारत को सिंगापुर जैसे देशों से सीख लेनी चाहिए जहां पुनर्शोधित पानी का खूब उपयोग हो रहा है. यहां तक कि सेमीकंडक्टर निर्माण जैसे उन उद्योगों में भी जिनमें उच्च गुणवत्ता वाले पानी की जरूरत होती है. वे कहते हैं, ‘देखा जाए तो जरूरत इस बात की है कि स्थानीय लोगों को जल का समुचित प्रबंधन करना सिखाया जाए.’

यह सभी जानते हैं कि पवार की पूरी राजनीति महाराष्ट्र की ताकतवर शुगर लॉबी के इर्द-गिर्द घूमती है जो गन्ना उगाने वालों और चीनी उत्पादक सहकारी संस्थाओं से मिलकर बनती है. बांबे हाई कोर्ट के पूर्व जज बीजी कोलसे पाटिल, जिन्होंने समाजसेवा के लिए वक्त से पहले ही अपनी नौकरी छोड़ दी, पवार की काफी आलोचना करते हुए आरोप लगाते हैं कि कृषि मंत्री खेती को लेकर राजनीति कर रहे हैं और जमाखोरी के जरिए कृत्रिम कमी पैदा करने वाले व्यापारियों के साथ उनकी मिलीभगत है.

जैसा कि पाटिल तल्ख स्वर में कहते हैं, ‘कई व्यापारियों ने मुङो बताया है कि पवार उनसे सरकारी दर से ज्यादा दाम पर गन्ना खरीदने को कहते हैं ताकि कमी पैदा हो जाए. उसके बाद व्यापारी इसे सरकार को कहीं ज्यादा दाम पर बेचते हैं.’ पवार की राजनीतिक, कृषि संबंधी और कारोबारी गतिविधियों पर सालों से नजदीकी निगाह रखने वाले पाटिल का दावा है कि अपनी कठपुतली हुकूमत के जरिए वे महाराष्ट्र की करीब 200 चीनी कोऑपरेटिवों की कमान अपने हाथ में रखते हैं. वे कहते हैं, ‘उन्होंने इनमें से कई कोऑपरेटिवों को बीमार इकाई घोषित करवा दिया था जिससे वे भारी कर्ज की पात्र हो गईं. यह पैसा पवार या उनके आदमियों को मिल गया.’ पवार ने हमेशा इन आरोपों को नकारा है.

पवार के एक और तीखे आलोचक हैं बालासाहेब विखे पाटिल. पाटिल आठ बार लोकसभा सांसद रह चुके हैं और वाजपेयी सरकार में उद्योग मंत्री हुआ करते थे. पवार ने चालीस साल पहले कोआ¬परेटिव कारोबार की बारीकियां विखे पाटिल द्वारा संचालित एक कोऑपरेटिव में ही सीखी थीं. विखे पाटिल को हैरानी है कि एक तरफ तो पवार इतनी सारी चीनी कोऑपरेटिवों को बीमारू इकाई घोषित करवा रहे हैं और दूसरी तरफ वे पुणो में दो चीनी कारखाने शुरू कर रहे हैं. नासिक में तहलका से बात करते हुए विखे पाटिल कहते हैं, ‘अगर कोऑपरेटिव बीमार हैं तो कंपनियां तरक्की कैसे करेंगी?’ वे यह भी कहते हैं कि शुष्क जमीन पर होने वाली फसलों में पवार की दिलचस्पी सिर्फ उन फैक्टरियों को सब्सिडी देने में है जो ज्वार और बाजरे से शराब बनाती हैं. वे कहते हैं, ‘ये हैं पवार की किसान समर्थक नीतियां.’

या फिर जमीन का ही उदाहरण लीजिए जो दशकों से हो रही खूब खेती और कीटनाशकों और खाद के जमकर इस्तेमाल से बर्बाद हो चुकी है. एकलसंस्कृति यानी सिर्फ एक या दो फसलें उगाने की परंपरा भी भारतीय कृषि के लिए बेहद विनाशकारी साबित हुई है. पहले परंपरा यह थी कि किसान बदल-बदलकर फसलें उगाते थे जिससे जमीन हमेशा उपजाऊ बनी रहती थी. लेकिन अब बार-बार एक ही फसल उगाए जाने से जमीन की उर्वरता काफी कम हो गई है. तहलका से बात करते हुए पवार भी एकलसंस्कृति वाली इस खेती पर अफसोस जताते हैं.

लेकिन खेती को लेकर उनका नजरिया यही है कि वही उगाओ जो बाजार चाहता है न कि पेट. और इससे एकलसंस्कृति को ही और बढ़ावा मिलता है क्योंकि नकदी फसलें बाजार की मांग पूरी करने के लिए उगाई जाती हैं न कि पेट भरने के लिए. यही वजह है कि पवार ने अंगूरों की खेती पर जमकर जोर दिया है जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में महंगे दामों पर बिकने वाली शराब बनती है. पवार की इस बात के लिए भी काफी आलोचना हुई है कि पूर्वी महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में हजारों किसानों ने खुदकुशी कर ली मगर वे कभी उनके परिवारों का हाल तक जानने नहीं गए. सिवाय एक बार तब जब जून, 2006 में उन्हें जबर्दस्ती प्रधानमंत्री के साथ वहां जाना पड़ा था. मैगसेसे पुरस्कार विजेता और वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ तल्खी के साथ कहते हैं, ‘पवार बयान जारी कर रहे थे कि आत्महत्याएं कम हो गई हैं. वास्तव में महाराष्ट्र में हमेशा सबसे बुरी स्थिति रहती है.’ उस साल स्वतंत्रता दिवस भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा था कि किसानों की व्यथा का उनके दिल पर गहरा असर हुआ है. साईनाथ इस बात को याद करते हुए कहते हैं, ‘उस समय पवार श्रीलंका दौरे पर जा रही भारतीय टीम की सुरक्षा की बात कर रहे थे.’

यह भी सब जानते हैं कि अपने पूर्व संसदीय क्षेत्र बारामती, जहां से अब उनकी बेटी सुप्रिया सुले संसद में आई हैं, को पवार ने कृषि क्षेत्र का एक शानदार मॉडल बना दिया है. कृषि क्षेत्र पर नजदीकी से नजर रखने वालीं नई दिल्ली स्थित पत्रकार भवदीप कंग कहती हैं कि पवार कृषि क्षेत्र को हमेशा बारामती के चश्मे से देखते हैं. उन्हें लगता है कि किसानों की खुशहाली, सिंचाई, ज्यादा उत्पादन, फसल के बाद होने वाले प्रबंधन और कृषि प्रसंस्करण की सुविधाओं से आती है. इसका एक उदाहरण दुग्ध कोऑपरेटिव हैं. वे कहती हैं, ‘दुधारू पशु खरीदने के लिए कर्ज से लेकर, दूध संग्रह केंद्रों और फिर वहां से शीतल संयंत्र और ब्रिटैनिया फैक्ट्री तक व्यवस्था में कोई खामी नहीं है.’ भारत से यूरोपीय संघ को जितने अंगूरों का निर्यात होता है उनका 80 फीसदी हिस्सा महाराष्ट्र से आता है. बारामती में भारत की वाइन बनाने वाली पहली फैक्ट्री भी है. अंगूर की एक प्रजाति को तो वहां शरद सीडलेस नाम ही दे दिया गया है.

इसमें कोई शक नहीं कि पवार का यह मॉडल, जिसे कृषि उत्पादन का वैज्ञानिक प्रबंधन भी कहा जाता है, बारामती में बहुत सफल रहा है. इसने बारामती को सूखाग्रस्त और निम्न आय वाले इलाके से बदलकर भारत के सबसे खुशहाल, सिंचित और औद्योगिक इलाकों में से एक बना दिया है. मगर बारामती एक छोटा-सा उदाहरण है जिसका पवार ने कुछ स्पष्ट वजहों से ख्याल रखा है और यह मॉडल पूरे देश में लागू करना बहुत मुश्किल है. ऐसे में सवाल उठता है कि फिर क्या किया जाए?

देविंदर शर्मा इसका जवाब देते हुए कहते हैं, ‘नई खेती.’ वे बताते हैं कि आंध्र प्रदेश के 23 में से 21 जिलों में यह हो रही है. वहां तीन लाख किसानों ने इसे अपनाया है. वे न खाद का इस्तेमाल करते हैं न कीटनाशकों का. शर्मा कहते हैं, ‘उत्पादन में कोई गिरावट नहीं आई है और फसलों में कीड़े लगने की समस्या भी कम हो गई है.’ पिछले साल वहां सभी किसानों ने अपनी आय में बढ़ोतरी की बात कही. यही नहीं, अपने ही पैसे से किसान एक स्वसहायता समूह भी शुरू कर चुके हैं. शर्मा कहते हैं, ‘क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि उसके खाते में पांच हजार करोड़ रुपए की रकम है?’

गैरसरकारी संगठनों द्वारा शुरू किए गए इस प्रोजेक्ट, जिसे कम्यूनिटी मैनेज्ड सस्टेनेबल एग्रीकल्चर नाम दिया गया है, को आंध्र प्रदेश सरकार ने अधिग्रहीत कर लिया है. अब तो विश्व बैंक ने भी इसे समर्थन देना शुरू कर दिया है. शर्मा कहते हैं, ‘यह नई खेती प्राकृतिक संसाधनों का नाश नहीं करती. न ही इससे भूमि के स्वास्थ्य, जलस्तर या आजीविका का विनाश होता है. यह ग्लोबल वार्मिग में और गरमी नहीं जोड़ती.’ लेकिन पवार को इस नई खेती में कोई दिलचस्पी नहीं. शायद इसलिए क्योंकि यह नई खेती जीडीपी में कुछ नहीं जोड़ती. क्योंकि इसमें बड़ा कारोबार शामिल नहीं है. क्योंकि यह बाजार के लिए नहीं बल्कि पेट के लिए है.


http://www.tehelkahindi.com/indinon/national/558.html


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