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न्यूज क्लिपिंग्स् | नदियां अविरल बहेंगी या नहीं हमें तय करना है-- श्रीश चौधरी

नदियां अविरल बहेंगी या नहीं हमें तय करना है-- श्रीश चौधरी

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published Published on Nov 3, 2016   modified Modified on Nov 3, 2016
ये नदियां नहीं बहेंगी, हम दशाश्वमेध, द्वारकाधीश या केशी घाट पर स्नान नहीं कर पायेंगे, उनका जल पीकर अपने शरीर के घाव एवं मन का पाप नहीं धो पायेंगे, वहां जाकर भी हम आरओ के पानी में स्नान करेंगे और बिस्लेरी ही पियेंगे, तो फिर इन मंदिरों का एवं वैशाख, कार्तिक एवं माघ महीने में वहां मास भर रहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है. पढ़िए अंतिम कड़ी.

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक भारत में यही नदियां राष्ट्रीय परिवहन का राजमार्ग थीं. बंगाल एवं बनारस की साड़ियां, कपड़ेे, बिहार का अनाज आदि गंगा-यमुना एवं इनकी सहायक नदियों के रास्ते काशी प्रयाग-कानपुर-आगरा-मथुरा-वृंदावन होते हुए दिल्ली तक जाती थी. बीच में मथुरा से अस्सी कोस दूर द्वारका-सूरत तक सड़क से चल कर समुद्री बंदरगाह तक ये माल पहुंचाये जाते थे, जहां से उन्हें मिस्र आदि सुदूर देशों तक भेजा जाता था. उधर से लौटते हुए वहीं बड़ी नौकाओं, हम उन्हें ‘धरैया नाव' कहते थे, पर महीनों रहने की घर जैसी व्यवस्था होती थी - चमड़े का सामान, धातु का सामान, अनाज आदि लेकर प्रयाग-काशी होते हुए, पटना भागलपुर-मुर्शिदाबाद होते हुए ढाका चटगांव पहुंच कर समुद्री बंदरगाह तक पहुंच जाती थीं, जहां से और बड़ी नौकाओं-जहाजों पर उन्हें सुदूर मलय द्वीपसमूह एवं फिलीपींस द्वीपसमूह तक भेजा जाता था. इन्हीं मार्गों से चल कर सम्राट अशोक के दूतों ने विदेश में बौद्व धर्म का प्रचार किया था. 

पुर्तगाली एवं अंगरेज व्यापारी भी नदियों के रास्ते ही जहां तक संभव हुआ भारत के एक भाग से दूसरी ओर जाते थे, व्यापार एवं युद्व करते थे. 1857 के गदर में लखनऊ के अपने किले पर बागी फौज का कब्जा हटाने के लिए अंगरेजों ने गंगा घाघरा-गोमती के रास्ते ही लखनऊ तक अपनी फौज भेजी थी. वे मुंबई, कोच्चि, चेन्नै-विशाखापत्तनम-राजमहेन्द्री-बालासोर-कलकत्ता, आदि भी पानी के जहाज से ही आते-जाते थे. स्टीम इंजिन बन जाने के बाद 1840 ई के एक विवरण के अनुसार, मद्रास से राजमहेन्द्री-विशाखापत्तनम अच्छे मौसम में तीन दिनों का समुद्री सफर था, कलकत्ता एक हफ्ते का. आज जहाजों में जो आधुनिक इंजन लगे हैं, उनसे ये दूरियां एक या आधे दिन की एवं एक साधारण रेल टिकट के एक तिहाई खर्चे की है. सहसा विश्वास नहीं होता है. किंतु यह गूगल पर जांच लेने जैसा सच है. हम कब तक गलत नारों में जियेंगे, उनके कुपरिणाम भोगेंगे! हम कब तक जान-बूझ कर ‘बेवकूफाना' निर्णय लेते रहेंगे!

आप कल्पना करें दिल्ली के राजघाट से एक हजार यात्रियों को लेकर जानेवाला दसों जहाज पटना के लिए रोज चलता है, मद्रास से रोज पांच दस हजार यात्रियों को लेकर चलने वाले जहाज कलकत्ता के लिए मुंबई से कोच्चि-सूरत, आदि के लिए चलते है, तो महीनों लगने वाले रेल की लंबी कतार में खड़ा, दिल्ली-वासियों की सेवा करता, परंतु उनका तिरस्कार सहता बिहारी मजदूर, कितनी प्रसन्नतापूर्वक कितनी बार कितने सुख में गांव घर आयेगा-जायेगा और अपने हाजीपुर का केला, मुजफ्फरपुर की लीची, झंझारपुर का सफेदा मालदा, मखान, दरभंगा की मछली एवं यहां का पान आदि ले जायेगा, बेचेगा. यूरोप-अमेरिका में आज भी ऐसा होता है, मिसिसिपी, हडसन, वोल्गा, राइन, सीन, टेम्स नदियों पर अब भी यह सब कुछ होता है, माल एवं यात्री चलते हैं, एवं कुछ और भी होता है- सप्ताहांत में इन जहाजों पर मौज, भोज, नृत्य-गीत, पार्टियां, सैर-सपाटे, होते हैं. कारों एवं मोटर साइकिलों की तरह लोग अपनी आर्थिक स्थिति के अनुरूप छोटी-बड़ी नौकाएं रखते हैं एवं मजे करते हैं न कि शौचालयों के किनारे अपराधियों की तरह दबे- सहमे मनुष्येतर प्राणियों जैसा सफर करते हैं. हम कब तक इस अनावश्यक अन्याय को चलाते एवं झेलते रहेंगे.

नदियां तो स्वयं जुड़ी हुई हैं, पर हम इन्हें तोड़ रहे हैं, इनका उपयोग नही कर रहे हैं एवं दूसरी ओर कृत्रिम रूप से इन्हें जोड़ने पर जोर लगा रहे हैं. उत्तर एवं दक्षिण भारत की नदियों को कृत्रिम रूप से जोड़ने में एवं उन्हें चलाये रखने मेंं कई राज्य सरकारों के सालाना बजट से अधिक का व्यय प्रतिवर्ष आयेगा एवं पर्यावरण की जैसी-तैसी हो जायेगी. जो नदियों को जोड़ने की बात कर रहे हैं, वे एक गंदा एवं भद्दा मजाक कर रहे हैं.
1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्णय टिहरी बांध बनाने के पक्ष में दिया था, उसकी फिर से समीक्षा होनी चाहिए. और यह समीक्षा नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल द्वारा होनी चाहिए. बहती नदी पर सबका हक है, आज के नागरिकों का ही नही सिर्फ महानगर निवासियों का ही नहीं.

जो नागरिक अभी नहीं पैदा हुए हैं, उनका भी हक इन नदियों पर तथा इनके जल पर है. इन पर मेरे गांव के उस गरीब का भी हक है, जिसने ताजमहल तथा काशी विश्वनाथ का नाम सुना तो है, पर अभी तक देखा नहीं है. वायु मार्ग से वहां तक जाने में नितिन गडकरी, भारत के भूतल परिवहन मंत्री, के अनुसार, उसे पांच रुपये प्रति किमी, सड़क से दो रुपये, रेल से एक रुपये एवं जलमार्ग से 10 पैसे प्रति किमी ही लगेंगे. फिर भी आज भारत में कुल माल एवं मुसाफिर का एक प्रतिशत से भी कम भार नदियों के रास्ते ले जाया जाता है, 50 प्रतिशत से अधिक सड़क से एवं 40 प्रतिशत से अधिक रेल मार्ग से ले जाया जाता है. नदियों एवं जलमार्ग से जाने पर यात्रा एवं वस्तुओं की कीमत कितनी कम हो जायेगी, इसकी कल्पना हम सहज ही कर सकते हैं.

नदियां नैसर्गिक राजमार्ग हैं. ईश्वर ने इन्हें मछली एवं मनुष्य दोनों के लिए बनाया है. परंतु हम इन्हें मार रहे हैं. पटना मुंगेर-भागलपुर के बीच रहनेवाली डॉल्फिन मीठे पानी की विश्व में दुर्लभ प्रजाति थी, संरक्षित जीव (प्रोटेक्टेड एनिमल) का दर्जा था इसका, मुंगेर-भागलपुर के मछुआरे इसे नहीं मार सकते थे, परंतु टिहरी एवं फरक्का ने इसे समाप्त कर दिया है. और अब इस पर निर्भर मनुष्यों की बारी है. टिहरी एवं फरक्का के बांधों ने जैसे कलकत्ता से कानपुर तक चलने वाली मालवाही नौकाओं एवं जहाजों को समाप्त किया, वैसे ही उन पर आधारित नाविकों-कर्मचारियों उद्योगों की जीविका भी समाप्त हो गयी. इसे फिर से बहाल करना चाहिए.

एक छोटी सी बात से मैं इस लेख को समाप्त करना चाहता हूं. वास्तव में यह लेख नहीं, एक निवेदन है. एक बार आइआइटी मद्रास के भूतपूर्व डायरेक्टर प्रो एमएस अनंत ने मुझे ऐसा कहा था. वे केमिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हैं, क्वांटम मैकेनिक्स के विशेषज्ञ हैं और उनके शोध पत्रों-ग्रंथों की पहली ही पांडुलिपि हमेशा प्रकाशित होती रही है. उसका संशोधन नहीं करना पड़ता है. एक बार उन्होंने मुझसे मजाकिया लहजे में कहा, "श्रीश, जानते हो अमेरिका एवं भारत में सबसे बड़ा फर्क क्या है? अमेरिका में जहां भी पानी या पहाड़ के पास मनोरम दृश्य दिखा, वे होटल बना लेते हैं. भारत में हम वहां मंदिर बनाते हैं."

कितना सच और कितनी बड़ी बात उन्होंने बतायी. बद्रीनाथ, ऋषिकेश, हरिद्वार, काशी, पुरी, रामेश्वरम, पशुपतिनाथ आदि सत्यत: हरि या हर तक पहुंचने के द्वार हैं. परंतु ये नदियां नहीं बहेंगी, हम दशाश्वमेध, द्वारकाधीश या केशी घाट पर स्नान नहीं कर पायेंगे, उनका जल पीकर अपने शरीर के घाव एवं मन का पाप नहीं धो पायेंगे, वहां जाकर भी हम आरओ के पानी में स्नान करेंगे और बिस्लेरी ही पियेंगे, तो फिर इन मंदिरों का एवं वैशाख, कार्तिक एवं माघ महीने में वहां मास भर रहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है.

परंतु हम बिस्लोरी पियें या गंगाजल, यह हमारे नेता या बड़े नौकरशाह नहीं तय करेंगे. वे तय कर चुके हैं. जैसा कि टिहरी के सुंदर लाल बहुगुणा ने 1986 के उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद कहा था, टिहरी का बांध उत्तराखंड के निवासियों के आंसुओं पर बना है. बिहार-झारखंड-उत्तर प्रदेश से भी गंगा जी एवं अन्य नदियां लुप्त हो जायें, उसके पहले हमें, इन नदियों के किनारे अभी भी रह रहे करोड़ों ग्रामवासियों को, तय करना है कि ये नदियां अविरल बहेंगी.
(समाप्त)

(लेखक आइआइटी मद्रास के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और संप्रति जीएलए यूनिवर्सिटी मथुरा में डिश्टिंग्विश्ड प्रोफेसर हैं)

http://www.prabhatkhabar.com/news/vishesh-aalekh/story/886449.html


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