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न्यूज क्लिपिंग्स् | नदी जोड़ो परियोजना पर फिर से बहस तेज

नदी जोड़ो परियोजना पर फिर से बहस तेज

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published Published on Mar 13, 2012   modified Modified on Mar 13, 2012
जरूरी है जल प्रबंधन
नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना पर बेशक कुछ सवाल उठे हों, लेकिन बदलते समय में इसकी महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। पानी का सवाल इतना बड़ा है कि किसी बड़े कदम से ही समाधान की तरफ बढ़ा जा सकता है। बहुत बारीक तथ्यों और तमाम पहलुओं पर निष्कर्ष के बाद करीब दस वर्ष पहले जो रिपोर्ट तैयार हुई थी, उससे हम उम्मीद कर सकते थे कि सुप्रीम कोर्ट का व्यावहारिक फैसला होगा।

सर्वोच्च अदालत ने इस परियोजना पर समयबद्ध क्रियान्वयन का आदेश दिया है और गेंद अब केंद्र सरकार के पाले में है। यह सोचने का वक्त आ गया है कि भारत को बदलने के लिए अब सिर्फ छिटपुट प्रयासों पर भरोसा नहीं किया जा सकता, बड़ी महत्वाकांक्षी योजनाएं भी हाथ में लेनी होंगी।

राजग सरकार के समय 2002 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नदियों को जोड़ने की बात की थी, तब इरादा यह था कि देश में जल संसाधन और प्रबंधन में जो असंतुलन है, उसे दूर किया जाए। यह स्वीकार करना होगा कि हमारे देश में पानी की समस्या से निपटना सबसे जरूरी कदम है।

पानी की समस्या कई तरह से है। इस देश में एक तरफ इलाका बाढ़ से ग्रसित रहता है, तो दूसरी ओर ठीक उसी समय पानी के अभाव में खेत सूखे रहते हैं। मानसून में गंगा ब्रह्मपुत्र बेसिन में बाढ़ का संकट खड़ा हो जाता है, तो पश्चिम भारत और प्रायद्वीपीय नदियां सूखी-सी हो जाती हैं। कहीं सिंचाई के साधन नहीं हंै, तो कहीं बिजली का संकट बना रहता है। पर्यावरण की चिंता जायज है, तो यह चिंता भी जरूरी है कि समय के साथ पानी का अभाव न रहे।

पानी के बिना जीवन कठिन न हो जाए। तमाम बेसिनों में पानी की उपलब्धता, खाद्यान्न की उपलब्धता और बाढ़ की विभीषिका से बचाव आदि के लिए इस योजना को साकार करने की जरूरत महसूस की गई। दरअसल इस परियोजना का विचार दस वर्ष पहले कुछ इलाकों में सूखे की विकराल समस्या को देखकर ही उपजा था। टॉस्क फोर्स खड़ा करने के पीछे मंसूबा यही था कि 37 नदियों पर काम तेजी से किया जाए। मुझे इस टॉस्क फोर्स की जिम्मेदारी दी गई थी। हमें शुरू से पता था कि पर्यावरण और विस्थापन को लेकर कुछ विरोध हो सकता है, मगर हमने सभी पक्षों की बात सुनने के बाद ही इसे आगे बढ़ाया था।

अगर सूक्ष्मता से देखा जाए, तो पता चलेगा कि नदियों को बांधने का काम भारत में अंगरेजों के समय से होता रहा है। दक्षिण भारत में पेरियार प्रोजेक्ट, पेराविकुलम एलियार प्रोजेक्ट, कुरनूल-कडप्पा, तेलुगु गंगा प्रोजेक्ट ऐसे उदाहरण हैं, जो इस बात के प्रतीक है कि प्रकृति पर ऐसे काम सहजता से किए जा सकते हैं। इनके अच्छे परिणाम दिखे हैं। खासकर पेरियार प्रोजेक्ट की उपलब्धि को गौर किया जा सकता है। पेरियार नदी पर जो काम हुआ है, उसके फायदे खेतों में नजर आए हैं। यह पहले भी हुआ है कि पानी को उन स्थानों में लाया गया, जो सूखा ग्रस्त क्षेत्र थे, जहां पानी का अभाव था। पेराविकुलम-एलियार प्रोजेक्ट जटिल परियोजना है, जिसमें कई बेसिन हैं।

इसकी सात धाराओं, जिनमें पांच पश्चिम और दो पूर्व की ओर है, उन्हें सुरंगों से जोड़ा गया है। इससे तमिलनाडु के कोयंबटूर और केरल के चित्तूर जिले के सूखागस्त क्षेत्र लहलहाने लगे। प्रोजेक्ट का कमांड एरिया 1.62 लाख हेक्टेयर है और इसकी 186 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता है। इसी तरह हिमाचल प्रदेश में इंटर सब-बेसिन को सिंधु बेसिन में स्थानांतरित किया गया। राजस्थान केनाल प्रोजेक्ट का भी नाम लिया जा सकता है। इससे हिमालय के पानी को राजस्थान के जरूरी हिस्सों में लाने में मदद मिली। केवल भारत ही नहीं, अमेरिका, चीन में भी नदियों को आपस में जोड़ने के सफल प्रयास हुए हैं। इससे विकास के आयाम खुले हैं।

37 हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों को जोड़ने वाली इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए समयबद्ध क्रियान्वयन का आदेश होने पर अब उम्मीद बनती है कि सरकार सकारात्मक रुख अपनाएगी। यह जरूर है कि ऐसी योजना को कार्यरूप देने में विस्थापन से मसलों को भी बहुत गंभीरता से देखा जाना चाहिए। आमतौर पर सरकारें इस पर ध्यान नहीं दे पातीं, लेकिन यह संभव न हो, ऐसा भी नहीं है। विस्थापन का मुद्दा सुलझाया जा सकता है। इस पर शुरू से ही एक परिपक्व नीति बननी चाहिए। अपनी रिपोर्ट में हमने इसका पूरा उल्लेख किया था। उन सब जगहों को चिह्नित किया गया था, जहां विस्थापन की समस्या खड़ी होगी। सवाल इसका भी है कि अत्यधिक देरी परियोजनाओं को नुकसान पहुंचाती है। योजना को कार्यरूप देते समय ऐसे तमाम मुद्दों पर बहुत गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

क्रमबद्ध तरीके से आगे बढ़कर हम ऐसे रास्ते पर चल पड़ेंगे, जो दुनिया को चौंका सकता है। फिर हमारा व्यर्थ पानी समुद्र में नहीं जाएगा। इंटर लिंकिग से जिन नदियों में पानी नहीं है, वहां पानी पहुंचेगा। जहां पानी का ज्यादा बहाव है, वह पानी बाढ़ के तौर पर तबाही नहीं मचाएगा। इसके साथ ही विद्युत उत्पादन की बड़ी संभावना इससे जोड़कर देखी जा रही है। पर इस परियोजना के क्रियान्वयन से पहले हमें पड़ोसी देशों से संबंधों को भी ध्यान रखना होगा, क्योंकि इन दस वर्षों में काफी कुछ बदला है। भारत में जब नदियों पर बात होगी, तो नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों की अनदेखी नहीं की जा सकती। साफ है कि इस तरफ कदम बढ़ाने पर दुनिया की निगाह हमारी तरफ होगी।

( सुरेश प्रभु )लेखक नदी जोड़ो परियोजना के लिए गठित टॉस्क फोर्स के अध्यक्ष थे।

कुदरत के खिलाफ
एक बार फिर से नदियों को जोड़ने की बात उठी है। इस बार सुप्रीम कोर्ट ने नदियों को जोड़ने के लिए समयबद्ध क्रियान्वयन का आदेश दिया है। सर्वोच्च अदालत के फैसले पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि सरकार को नदी जोड़ने की याद दिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने एक विचित्र जिम्मेदारी निभाई है। एनडीए सरकार के समय इस मामले को लेकर विवाद उठा था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसके पालन के लिए एक अलग व्यक्ति की नियुक्ति की थी। तब भी मुझसे नदियों को जोड़ने के सवाल पर प्रश्न पूछा गया था। मैंने उस समय भी कहा था कि नदियों को जोड़ना प्रभु का काम है, सुरेश प्रभु इस काम में न पड़ें।

प्रकृति कभी-कभी बहुत मेहनत से कुछ नदियों को जो़ड़ने का काम करती है। तब इस योजना को पूरा करने में उसे कुछ लाख साल लग जाते हैं। उदाहरण के लिए, हिमालय से निकली गंगा और यमुना अलग-अलग घाटियों का चक्कर लगाते हुए इलाहाबाद में जाकर मिलती हैं। इस पूरी कवायद में प्रकृति को इतनी मेहनत करनी पड़ती है कि हमारा समाज उसके ऐसे मिलन को तीर्थ की संज्ञा देकर अपनी कृतज्ञता अर्पित करता है।

इसी तरह प्रकृति जरूरत पड़ने पर हर नदी को तोड़ती भी है। समुद्र में मिलने की तैयारी में प्रकृति को नदी का स्वभाव बदलना पड़ता है। इस क्रम में वह नदी को चौड़ा बनाती है और असंख्य धाराओं में तोड़कर उसे समुद्र में मिलने लायक बनाती है। इस मुहाने का भी बहुत सम्मान किया जाता है। इन स्थलों पर भी मेले लगते हैं। कहने का भाव यही है कि ऐसे बदलाव प्रकृति एकाएक नहीं करती। लेकिन मनुष्य इसे कुछ सालों में पाट देना चाहता है। और यहीं से सारी विसंगतियां शुरू होती हैं। इसी से पता चलता है कि प्रकृति को देखने और समझने का हमारा नजरिया कैसा है।

हमारे देश में कहीं बरसात ज्यादा होती है, तो कहीं कम। इसी को देखते हुए अब सरकारों को लगने लगा है कि एक जगह का ज्यादा पानी सूखे वाले इलाके में भेजा जा सकता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। एक तो इस काम में खर्चा बहुत आएगा। दूसरा, इसमें आज के हालात देखते हुए घोटालों की इतनी आशंका होगी कि 2 जी का घोटाला भी छोटा पड़ जाएगा।

इसके अलावा इस परियोजना के लिए देश का भूगोल बदलना पड़ेगा। नदियां लाखों साल में अपना रास्ता बनाती है। हमारे देश की कोई भी नदी ऐसी नहीं, जिसकी आयु दो-तीन सौ वर्षों से कम हो। इसमें अधिकांश नदियां पश्चिम से पूरब की ओर बहती हैं। केवल दो नदियां अपवाद हैं। हम इनमें किसी भी नदी का रास्ता नहीं बदल सकते। अब अगर हम यह चाहते हैं कि उत्तर की नदी दक्षिण, दक्षिण की नदी पूरब और पूरब की नदी पश्चिम की ओर बहने लगे, तो ऐसा संभव नहीं है।

आजादी के बाद राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना बनाने के लिए बड़े-बड़े वैज्ञानिकों से राय ली गई थी। उसमें देखा गया कि सिंचाई के लिए नदियों को जोड़ने से वास्तव में कोई लाभ होगा या नहीं। लंबी जद्दोजहद होती रही। गारलैंड कैनॉल योजना जैसी योजनाएं भी सामने आई थीं। इसे बनाने में दस्तूर जैसे ईमानदार लोग भी थे। वे सब प्रकृति को जीतने का सपना देख रहे थे। मगर यह देश का सौभाग्य है कि ऐसा नहीं हो पाया। तब यही महसूस किया गया कि ऐसी योजनाएं व्यावहारिक नहीं है। बेशक वह आकर्षक लगें, पर उसे पटरी पर नहीं उतारा जा सकता। नतीजतन उस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

मौजूदा परियोजना का क्रियान्वयन बहुत जटिल है। अनुभव बताता है कि यहां एक छोटी-सी परियोजना भी समय और खर्च का विस्तार ले लेती है, तब 37 हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी नदियों का कैसा हश्र होगा। बेशक चीन या पश्चिमी दुनिया में ऐसी योजना के सफल होने का उदाहरण दिया जा सकता है, लेकिन हमारे देश की कार्य-संस्कृति कैसी है, यह किसी से छिपा नहीं है। इसके अलावा, प्रकृति के खिलाफ जाने वाली कई योजनाओं के विरोध में हमारे यहां सफल जनांदोलन भी हुए हैं। उनकी आंच हमेशा बनी रहती है।

इस योजना के लक्ष्य और उपलब्धियों की बात करते हुए हम इसकी कमियों को छिपा जाते हैं। इसे लेकर उठाई जा रही आपत्तियां ठोस हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद हो सकता है कि सरकार योजना के क्रियान्यन के लिए हिम्मत दिखाए, लेकिन पहले कदम से ही आभास होने लगेगा कि डगर कितनी मुश्किल भरी है। इसके लोकर तमाम सवाल खड़े होंगे। पर्यावरण को होनेवाले नुकसानों की बात को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें, तो बड़े आर्थिक बजट जुटाना, ऊपर से लालफीताशाही क्या इसे मुकाम तक पहुंचने देगी?

आज हम देखते हैं कि देश के कई राज्यों में पानी बंटवारे को लेकर वर्षों से विवाद चल रहा है। इसके अलावा पड़ोसी देशों के साथ भी पानी को लेकर कशमकश जारी है। नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान से पानी को लेकर आए दिन किसी न किसी तरह की बहस होती ही रहती है।

ऐसे में देश की महत्वपूर्ण नदियों को जोड़-तोड़ कर अपने हिसाब से बहाने की कवायद बेहद मुश्किल भरी हो सकती है। इस परियोजना के लाभ और हानि, दोनों पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सबसे बड़ी बात पर्यावरण के लिहाज से कोई ऐसी गुंजाइश नहीं छूटती कि हम यह हौसला पालें। इसलिए मैंने कहा कि यह काम प्रभु और प्रकृति पर ही छोड़ देना चाहिए।

(अनुपम मिश्र )लेखक सुपरिचित पर्यावरणविद् हैं।

http://www.amarujala.com/Vichaar/Aalekh/Again-sparked-a-debate-on-the-river-linking-project-4-2-2497.html


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