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न्यूज क्लिपिंग्स् | नरेगा मजदूरों की काली दिवाली- ज्यां द्रेज

नरेगा मजदूरों की काली दिवाली- ज्यां द्रेज

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published Published on Nov 24, 2014   modified Modified on Nov 24, 2014
कुछ दिन पहले जब दीये और पटाखे की रोशनी से देश जगमगा रहा था तो बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में सैकड़ों नरेगा मजदूर ‘काली दीवाली' मनाने के लिए इक्कट्ठा हुए। उन्हें महीनों से मजदूरी नहीं मिली थी। मजदूरी मिलने के इंजतार में थक-हार कर नरेगा मजदूरों ने तत्काल भुगतान की मांग के साथ एक धरने का आयोजन किया। धरने पर बैठे मजदूर ज्यादा कुछ नहीं मांग रहे थे- उन्हें बस दिन भर की मेहनत की 162 रुपये की मजदूरी समय पर चाहिए थी, ताकि, वे भी दीवाली मना सकें।

 

इस धरने पर दुःख की छाया मंडरा रही थी। धरने का सोलहवां दिन था लेकिन सरकार की तरफ से सहयोग के कोई संकेत नहीं थे। इसके बावजूद यह धरना बहुत प्रेरक था। गरीब महिलाओं के मुंह से नरेगा के सकारात्मक असर के बारे में सुनना एक यादगार अनुभव था। चंद साल पहले तक इनमें से अधिकतर महिलाओं का दायरा या तो अपनी घर की चहारदीवारी तक सीमित था या फिर उन्हें चंद पैसों के लिए खेतों में हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी। एक तरह से देखें तो उनका जीवन किसी गुलाम के जीवन जैसा था। नरेगा के सहारे वे अपने घर से बाहर निकलने में सक्षम हुईं, उन्हें अपनी मेहनत की कमाई का जरिया मिला और उन्होंने अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीखा। नरेगा ने महिलाओं के बीच एकजुटता की भावना पैदा की। नरेगा से उनकी कठिन जिंदगी को सुकून के कुछ पल नसीब हुए, जीवन में थोड़ी उम्मीद और उत्साह का संचार हुआ।

 

मैं यह नहीं कह रहा कि हर जगह नरेगा को लेकर यही भावना व्याप्त है- बात इससे अलग भी है। लेकिन कई जगहों पर, जहां नरेगा के मजदूर संगठित होने में सफल रहे हैं, मुझे बहुत कुछ मुजफ्फरपुर जैसा ही अनुभव हुआ(मुजफ्फरपुर में नरेगा मजदूरों को स्थानीय बिजली-मिस्त्री ने संगठित किया था)। मध्यप्रदेश के बडवानी, यूपी के सीतापुर, राजस्थान के राजसमंद और झारखंड के लातेहर में नरेगा मजदूरों ने इसी तरह की लड़ाई लड़ी है।इन सभी जगहों पर वे नरेगा के क्रियान्वयन में सुधार कराने में तो सफल रहे ही, साथ ही ग्रामीण मजदूरों के भीतर अपने हक को लेकर जागरुकता आई, वे सशक्त हुए।


रांची लौटते वक्त रास्ते में मैं टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ रहा था और इसी क्रम में मेरी नजर जगदीश भगवती तथा अरविन्द पानागरिया के एक लेख पर गई जिसमें नरेगा की तीखी आलोचना की गई थी। मुझे बड़ा अचरज हुआ। मैने सोचा कि क्या जगदीश भगवती और अरविन्द पानागरिया का लेख उसी नरेगा के बारे में है जिसको लेकर मुजफ्फरपुर में मजदूर धऱने पर बैठे थे ? भगवती और पानागरिया को लगता है कि नरेगा और कुछ नहीं "गरीबों तक पैसा पहुंचाने का एक औजार" भर है। यही नहीं, लेख में कल्पना की छलांग मारते हुए हवाई गिनती के आधार पर दोनों का निष्कर्ष है कि नरेगा में मजदूरी के रुप में दिए जाने वाले एक रुपये पर, पूरे पाँच रुपये का खर्चा बैठता है और इस कारण यह पूरी योजना "लचर" है।

 

 

भगवती और पानागरिया के तर्क के दोष और तथ्यों के प्रति उनकी अनभिज्ञता को भारत के छह बेहतरीन अर्थशास्त्रियों ने अपने एक प्रत्युत्तर में बखूबी उजागर किया है। संक्षेप में कहें तो भगवती और पानागरिया ने अपने निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए नरेगा के भीतर लागत को बढ़ा-चढ़ाकर और उसके फायदे को कम करके पेश किया। मिसाल के लिए नरेगा के अंतर्गत निर्मित संपदा के मूल्य की उन्होंने गणना ही नहीं की। अब इसे व्यवसायिक मीडिया में चल रहे नरेगा-विरोधी दुष्प्रचार की ताकत का चमत्कार माना जाएगा कि भगवती और पानागरिया सरीखे जाने-माने अर्थशास्त्री नरेगा की संपदा का मूल्य शून्य बताते हैं और इस गणना को मीडिया में सीधे-सीधे स्वीकार कर लिया जाता है।

 

बहरहाल, मुझे लगता है कि पूरी बहस में नरेगा के कुछ महत्वपूर्ण पक्ष की अनदेखी हुई है। नरेगा सिर्फ रोजगार या कह लें "आमदनी के हस्तांतरण" का जरिया भर नहीं है। यह बहुत सारी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, पर्यावरणीय तथा सांगठनिक गतिविधियों की संभावनाशील आधारशिला है। यहां एक-दो मिसाल के सहारे यह बात समझी जा सकती है। नरेगा ने स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक क्षमता में सुधार के लिए कई रचनात्मक प्रयासों की राह तैयार की है। दस साल पहले तक ज्यादातर राज्यों में प्रखंड विकास कार्यालय जीर्ण-शीर्ण और सूना जान पड़ता था लेकिन आज यही कार्यालय दस साल पहले के इस दृश्य से अलग जान पड़ता है, वहां काम भी एक बदले तेवर में हो रहा है। ग्राम पंचायत के कार्यालय अभी ज्यादातर राज्यों में सुस्ती का शिकार हैं, उम्मीद की जानी चाहिए कि चुस्ती-फुर्ती में आने की बारी अब उनकी है।

 

इसी तरह नरेगा पर्यावरण-संरक्षण का भी उपयोगी साधन है। वृक्षारोपण या फिर मेंड़दार खत्तियों का निर्माण सामाजिक रुप से मूल्यवान है लेकिन ये कार्य स्वतःस्फूर्त भाव से नहीं होते क्योंकि ऐसे कार्यों का कोई तात्कालिक आर्थिक लाभ मिलता नहीं दिखता। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कामों, जैसे बेरोजगार मजदूर का पेट पालने की जरुरत से पेड़ काटकर जलावन बेचना, को भी रोकने में नरेगा मददगार है। जलवायु-परिवर्तन तथा पारिस्थितिकीगत अन्य संकटों के मद्देनजर नरेगा का पर्यावरणीय महत्व को बढ़ते जाना है।

(प्रभात खबर, शनिवार,22 नवबंर 2014 को प्रकाशित)



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