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न्यूज क्लिपिंग्स् | पहाड़ से चिट्ठी- पंकज पुष्कर

पहाड़ से चिट्ठी- पंकज पुष्कर

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published Published on Aug 14, 2012   modified Modified on Aug 14, 2012
जनसत्ता 11 अगस्त, 2012: कुदरत हमें थिरता और नर्तन दोनों सिखाती है। हर्ष और विषाद के बार-बार आने वाले ऐसे ही अवसरों के बीच पहाड़ों का स्वभाव बना है। उत्तरकाशी के उफनते बादल पहाड़ और कुदरत के रिश्तों की जटिलता की ओर ध्यान दिलाते हैं। भला ऐसा कैसे है कि आपदाओं के बीच भी पर्वतीय जीवन प्रकृति-प्रेम का सहजीवन है।
बारिश को ही लें। यह मन में हिलोर पैदा करती है। लेकिन बरसात का मौसम बड़ा बहुरूपिया है। न जाने कब कौन-सा रूप धर कर हंसा दे, कब रुला दे। बारिश मेहर भी है और कहर भी। उत्तरकाशी, लेह और रोहतांग में बादलों का फटना एक मुहावरा भर नहीं, खतरे भरी आशंकाओं की सालगिरह मनाने जैसा है। एक कवि पर्वतीय गांव में बीते बचपन की एक रात को याद करता है। वे सो रहे थे कि तूफानी बरसात में छत उड़ गई। लगता था कि पूरा समंदर बादल बन बरस जाना चाहता है। बचपन का एक ऐसा अनुभव बादलों से होने वाली दोस्ती को पूरी जिंदगी के लिए तोड़ सकता है। लेकिन बादलों के रूप-रंग इतने इकहरे नहीं हैं। लोक-संस्कृति बादलों के बहुरूपी होने की गवाही देती है। यहां रूठे बादल को बुलाने के जतन हैं, तो बिगड़े बादलों को मनाने के जंतर भी। बादलों के छैल-छबीले रूप को देख तीज जैसे त्योहार बने हैं। बागों में लगे झूले से लेकर गाई जाने वाली कजरी बादलों का स्वागत करती है। लेकिन बादलों के रौद्र और सौम्य रूपों की असली दृश्य-विविधता पहाड़ों में प्रकट होती है।

इस दृश्य-विविधता को मैं अल्मोड़ा की सालमपट्टी के गांव जैंती में रह कर देखता हूं। पहाड़ों के देश में बारिश का मौसम, यानी मन का मोर हो जाना, रंग-बिरंगे आसमान का आंखों में उतर आना, बादलों का जमीन चूम लेना। सचमुच, पहाड़ों पर बादल छोटे-छोटे घरों में आ लुका-छिपी खेलते हैं, संग-संग झूमते हैं। अभी कांडे गांव में थे, हवा चली कि सिंगरौली पहुंच गए। एक और झोंका आया कि कुंज गांव! लगता कि पूरी घाटी को रुई के विशाल फाहों ने ढक लिया हो, सफेद धुएं में खो दिया हो। मैं कुंज के दोस्तों से पूछता कि सबकी लकड़ी गीली थी कि घाटी धुएं से भर गई! वे कहते हैं, कल कुंज की गोद में बादल सोए थे।

बारिश के दिनों में आसमान, धरती, बादल और हम सब केवल हाथ नहीं मिलाते, बल्कि गले मिलते हैं। बारिश में पहाड़ नई नवेली दुल्हन की तरह सज जाता। पूरा पहाड़ हरीतिमा बन जाता, फूलों का मायका बन जाता। फूल घर-आंगन के हर कोने में चादर से बिछ जाते। प्रकृति के अनूठेपन पर इतराते इन फूलों को देख पलकें झपकना भूल जातीं और पूरा शरीर नाक बन सूंघने लग जाता। बारिश में सतरंगा इंद्रधनुष कितना सुंदर हो सकता है, कोई जैंती आकर देखे। एक दिन मैंने धीरे-धीरे इंद्रधनुष को बनते देखा। उसके बाद फिर एक रोज मेरे सामने मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा इंद्रधनुष था। ऐसा, मानो लगभग पूरे गोले जैसी एक सतरंगी अंगूठी ने गहरी घाटी को झूले में बैठा बच्चा बना दिया था। इसी तरह, एक बार दो इंद्रधनुषों से एक साथ मिलना हुआ। यही है लौकिक का अलौकिक हो जाना।

जिन्हें चांद-तारों से दोस्ती हो, वे पावस को किसी पहाड़ी गांव में जाकर मनाएं। इस निमंत्रण के साथ एक कभी न ढलने वाली शाम का स्मृति-चित्र देखें। जैंती के पूरब में एक पहाड़ी है- धामदेव। शाम के गहराने के साथ धामदेव का आधा हिस्सा बादलों से छिपा देखा। बादल और धामदेव के पीछे से एक शर्मीला-सा चांद उग रहा था। बारिश से धुले आसमान में वह ऐसे चमक रहा था, मानो आसमान अकेले इसी के लिए बना है। एक अनूठा क्षण! बादलों के बीच से निकले चांद के चारों ओर वलय बने थे। चांद एक अनोखे इंद्रधनुषी आभामंडल से घिरा था। यह क्षण अनिर्वचनीय था।

पहाड़ पर बारिश हंसी-खुशी की फुहारें लाती है। लेकिन फिर से याद करें कि यही बारिश दुख-दर्द भी बन जाती है। ज्यादा बारिश से पहाड़ पर बड़ी-बड़ी चट्टानें खिसक जाती हैं। लोगों का इसमें दब जाना एक आम खबर की तरह गुजर जाता है। कुछ साल पहले पिथौरागढ़ का मालपा गांव पहाड़ खिसकने से पूरी तरह से तबाह हो गया। पहाड़ में ओले पड़ना क्या होता है, हमने जैंती में देखा। इतने ओले कि दिन भर के लिए सफेद चादर बिछ गई। ओलों की गेंद बना खेलते रहे, लेकिन बाद में यह भी महसूस हुआ कि ओलों ने इस बार की फसल चौपट कर दी है।

पहाड़ में हर कोई जानता है कि प्रकृति के खेल निराले हैं। इसमें सुख-दुख, अच्छा-बुरा सब साथ-साथ मिलता है। बारिश का मौसम कुछ दिन ठहर कर चला जाएगा और जाड़ों की तैयारी शुरू हो जाएगी। फिर आएगा असौज का महीना, खेती-बाड़ी के ढेर सारे काम, जाड़ों के लिए लकड़ी और घास इकट्ठा करने के कमरतोड़ू काम। लेकिन इस बीच सावनी मौसम कविता के नाम बादलों की चिट्ठी देकर जा चुका होगा।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/26243-2012-08-11-05-18-18


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