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न्यूज क्लिपिंग्स् | प्रचंड गरमी पर उबलती बहस- इला भट्ट

प्रचंड गरमी पर उबलती बहस- इला भट्ट

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published Published on Jun 4, 2015   modified Modified on Jun 4, 2015
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्व, विशेष रूप से भारत, गरीबी के मुद्दे पर एक साथ नहीं आया है, जैसा कि यह जलवायु परिवर्तन पर एक साथ आया है. ये दोनों आपस में जुड़े हुए हैं. इसलिए, मैं भारत सरकार से आग्रह करूंगी कि देश का आइएनडीसी तैयार करते समय इसका ध्यान रखे कि क्या हमारे आइएनडीसी गरीबी को कम करने की दृष्टि से कार्बन उत्सजर्न को कम करने के लिए हमारी प्रतिबद्धता को प्रति¨बबित करते हैं?

जब कुछ ही दिनों में हमारे दो हजार से भी अधिक साथी नागरिक अभूतपूर्व प्रचंड गरमी से मर गये हैं, तो समय आ गया है कि भारत चरम मौसम और जलवायु परिवर्तन द्वारा खड़ी की गयी प्राणघातक विपत्तियों के प्रति जागे. 

प्रचंड गरमी का प्रभाव मानव संदर्भ में तो विनाशकारी है ही, बल्कि आíथक रूप से भी है, क्योंकि परिवार पालनकर्ताओं को खो देते हैं, कारोबार ठीक से व्यापार नहीं कर सकते हैं और पर्यटक दूर रहते हैं. मैक्सिको में अभी एक तूफान का आघात हुआ है और टेक्सास गंभीर बाढ़ के साथ संघर्ष कर रहा है. इस बीच घर के करीब हुए एक नये अध्ययन में भविष्यवाणी की गयी है कि अगली शताब्दी में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के साथ तापमान में वृद्धि होगी, एवरेस्ट पर्वत क्षेत्र में अधिकांश हिमनद विलुप्त हो जायेंगे.

यह सब दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन राष्ट्रीय सीमाओं का सम्मान नहीं करता है. कोई भी देश अपनी जमीन और अपने लोगों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बच नहीं सकता है. 

राष्ट्र, लोगों की ही तरह, इस धरती पर एक-दूसरे से बंधे हुए हैं, और एक के कृत्य का परिणाम अन्यों की भलाई पर होता है, क्योंकि हम सब अन्योन्याश्रित हैं.

स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल और समृद्ध मृदा, जो हमारे भोजन और ईंधन का उत्पादन करती है, पृथ्वी पर निरंतर जीवन के लिए आवश्यक हैं. प्रकृति का उपहार, यदि सभी प्रकार के जीवों के बीच सामूहिक रूप से और न्यायसंगत ढंग से साझा किया जाये, तो पृथ्वी पर हमारे अस्तित्व को आनेवाली सहस्नब्दियों तक सुनिश्चित कर सकता है. लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के मानवजाति के उपयोग और दुरुपयोग ने पृथ्वी को संकट में डाल दिया है. आधुनिक मानव गतिविधि का समर्थन करने के लिए जीवाष्म ईंधन के हमारे असंयमित उपयोग का ग्रह पर और उसके जलवायु पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है. 

उत्सíजत ग्रीनहाउस गैसों को वैज्ञानिकों द्वारा बढ़ते हुए तापमानों, मौसम के परिवíतत होते हुए स्वरूपों और दुनिया भर में बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के साथ जोड़ा गया है. लोगों और पर्यावरण पर उनका प्रभाव गंभीर और विनाशकारी है. यह सही समय है कि हमने इस पृथ्वी पर संतुलन बहाल करने के लिए उपाय किये हैं.

दिसंबर, 2015 में पेरिस में एक संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन होगा, जिसमें इस बात पर सहमत होने के लिए हर राष्ट्र के प्रतिनिधि एक साथ आयेंगे कि कैसे विश्व जलवायु परिवर्तन के मुद्दे का सामना करेगा, और उस प्रयास के हिस्से के रूप में, आनेवाले दशकों में कार्बन उत्सजर्न को अधिक सुरक्षित स्तर तक कम करेगा. 

सम्मेलन की तैयारी में, प्रत्येक देश को अपने ‘अभीष्ट राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान', या आइएनडीसी की घोषणा अवश्य करनी चाहिए, जिसमें जलवायु परिवर्तन के लिए प्रत्येक देश की अपनी कार्य योजना की व्याख्या की गयी हो.

भारत सरकार से जून में अपनी आइएनडीसी घोषित करना अपेक्षित है. चीन, बांग्लादेश और मालदीव जैसे हमारे पड़ोसी, तथा यूरोप, ब्राजील और यूएस आदि सभी जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए भारत की प्रतिबद्धता की प्रकृति और सीमा पर नजर रख रहे होंगे.

कार्बन उत्सजर्न को कम करने के लिए सभी देशों द्वारा प्रतिज्ञा एक महत्वपूर्ण पहला कदम है. विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों की वर्तमान, अतीत और भविष्य की ऊर्जा आवश्यकताओं को देखते हुए न्यायसंगत क्या है, यह एक वैध प्रश्न है. और फिर भी, हम इसे जलवायु परिवर्तन वार्ता पर हावी होने की अनुमति नहीं दे सकते हैं. हम बड़े मुद्दे को आंख से ओझल नहीं होने दे सकते हैं, जो है ‘पृथ्वी ग्रह के लिए न्यायसंगत क्या है?', ‘धरती मां के हितों की रक्षा कौन करेगा?'

यूरोपीय संघ ने 1990 के स्तरों की तुलना में 2030 तक उत्सजर्न में 40 प्रतिशत की कमी की प्रतिज्ञा की है. अमेरिका ने घोषणा की है कि वह 2025 तक 2005 के ग्रीनहाउस गैस उत्सजर्न के स्तरों से नीचे 26-28 प्रतिशत की कमी का लक्ष्य रख रहा है. चीन का कहना है कि इसका 2030 तक अपने उत्सजर्नों में शिखर तक पहुंचने के बाद उन्हें कम करने का लक्ष्य है. विश्व समुदाय के एक उत्तरदायी सदस्य के रूप में भारत को भी अपना संकल्प अवश्य दिखाना चाहिए.

और तब भी, विनाशकारी प्रथाओं को कम करने की मात्र प्रतिज्ञाएं और वादे हमें एक अधिक स्वस्थ ग्रह की दिशा में नहीं ले जायेंगे. हमें इस बात को करीब से देखने की आवश्यकता है कि हम कैसे अपनी पृथ्वी का उपयोग और दुरुपयोग करते हैं, और हमें उत्पादन और उपभोग की विधाओं का पुनरावलोकन करने की आवश्यकता है. 

चूंकि प्रगति की हमारी वर्तमान राह पर्यावरणीय अवक्रमण, औद्योगिक प्रदूषण और मानव शोषण से अटी पड़ी है, इसलिए समय आ गया है कि हम वृद्धि और विकास की अपनी धारणा को संशोधित करें.

खाद्य की बंपर फसल के उत्पादन के लिए हमारी कृषि, बहुमूल्य जलभृत पानी, कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करती है. लेकिन साथ ही नदियों को प्रदूषित करने, मृदा को नष्ट करने और शरीर में कैंसरकारियों को प्रवेश कराने का प्रबंध करती है.
हाल के वर्षो में सूखा और बाढ़ ने गरीबों के जीवन में कहर ढाया है. 

परिवíतत हो रहे मॉनसून के स्वरूप ने हमारी फसलों और आजीविका को प्रभावित किया है, जो शहरों की ओर से बड़े पैमाने पर प्रवासन में परिणत हो रहा है. बढ़ता हुआ शहरीकरण, यदि शुरू करने के लिए कोई हो, तो बुनियादी ढांचे के टूटने और मलिन बस्तियों के प्रसार में परिणत हुआ है. हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने में बड़े-बड़े चीरे लगे हुए हैं. जलवायु परिवर्तन के प्रभाव वास्तव में दूरगामी हैं.

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्व, विशेष रूप से भारत, गरीबी के मुद्दे पर एक साथ नहीं आया है, जैसा कि यह जलवायु परिवर्तन पर एक साथ आया है. ये दोनों आपस में जुड़े हुए हैं. इसलिए, मैं भारत सरकार से आग्रह करूंगी कि देश का आइएनडीसी तैयार करते समय दो प्रश्नों को ध्यान में रखे. क्या हमारे आइएनडीसी गरीबी को कम करने की दृष्टि से कार्बन उत्सजर्न को कम करने के लिए हमारी प्रतिबद्धता को प्रति¨बबित करते हैं? 

क्या हमारे देश की आíथक समृद्धि को बढ़ाने के लिए हमारी प्रतिबद्धता इसकी पारिस्थितिक समृद्धि को भी बढ़ाती है? भारत के पास अखंडता और दृष्टि दोनों को दिखाने का एक अवसर है. हमें पहले गैर-प्रदूषणकारी अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने, औद्योगिक अतिरेकों की निगरानी, अपशिष्ट को कम और पुनर्चक्रित करने, नदियों और जलाशयों को स्वच्छ करने, स्थायी कृषि पद्धतियों को गले लगाने, जैव विविधता को बढ़ाने, जंगलों को पुनर्जीवित करने, और पर्यावरण को खराब किये बिना लोगों के जीवन और कार्य की स्थितियों को सुधारने हेतु उनके साथ भागीदारी गढ़ने के लिए हमारी प्रतिबद्धता की पुष्टि करनी चाहिए. 

यदि हम ऐसा कर सकें, तो दिसंबर में पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन में, हमारे कारण की मजबूत एवं आशा की नरम आवाज होगी.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/462160.html


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