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न्यूज क्लिपिंग्स् | प्राथमिकता नहीं है पर्यावरण-- ज्ञानेन्द्र रावत

प्राथमिकता नहीं है पर्यावरण-- ज्ञानेन्द्र रावत

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published Published on Nov 30, 2018   modified Modified on Nov 30, 2018
पर्यावरण क्षरण का प्रश्न आज समूचे विश्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है. कई रिपोर्टों, वैज्ञानिक अध्ययनों और शोधों ने रेखांकित किया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण उपजे खराब मौसम से प्रलयंकारी घटनाएं बढ़ेंगी. तेजी से बढ़ते तापमान के चलते गर्मी में लोगों की मौत का सिलसिला बढ़ेगा. ग्लेशियरों का पिघलना तेज होगा, जिससे नदियों का जलस्तर बढ़ेगा. ऐसे में बाढ़ की विभीषिका का सामना करना आसान नहीं होगा. इससे जहां फसलें बर्बाद होंगी, खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ेगा, वहीं सूखे की गिरफ्त में आनेवाले इलाकों में भी इजाफा होगा. एक परिणाम भयंकर पेयजल संकट के रूप में भी होगा.

खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ने से कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या बढ़ेगी. मॉनसून पर निर्भर हमारी खेती-आधारित अर्थव्यवस्था के लिए यह बहुत खतरनाक होगा. जरूरत है स्वच्छ और सुरक्षित उर्जा की तरफ तेजी से कदम बढ़ाने की. इसलिए इस गंभीर चुनौती से निपटने के लिए अभी हमारे पास मौका है. यदि इसे हमने गंवा दिया, तो बहुत देर हो जायेगी.

संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गुतारेस ने चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दुनिया तेजी से काम नहीं कर रही है. उन्होंने अगले महीने पोलैंड में होनेवाले जलवायु सम्मेलन से पहले 2015 के पेरिस जलवायु सम्मेलन के समझौते को लागू करने का अनुरोध किया है.


विडंबना यह है कि हमारी सरकारें ढिंढोरा तो बहुत पीटती हैं, पर इस पर कभी गंभीर नहीं रहतीं. इसका सबूत है कि पिछले आम चुनाव में और अभी हो रहे पांच विधानसभा चुनावों में हमारे राजनीतिक दलों के लिए पर्यावरण के मुद्दे की कोई अहमियत नहीं है. दुख है कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी दल ने पर्यावरण को चुनावी मुद्दा बनाया ही नहीं. इस विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी के घोषणा पत्र में पर्यावरण के सवाल नहीं हैं. कारण बिल्कुल साफ है कि यह मुद्दा न तो उनकी जीत का आधार बनता है और न इससे उनका वोट बैंक मजबूत होता है.


राजनीतिक दल आज इस पर ध्यान न दें, लेकिन इस सच को नकार नहीं सकते हैं कि मानवीय स्वार्थ के चलते जहां विभिन्न संकट पैदा हुए हैं, वहीं इसकी मार से शहरी, ग्रामीण, अमीर, गरीब, उच्च वर्ग, निम्न वर्ग या प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी या कमजोर तबका- कोई भी नहीं बचेगा. भाग्य विधाताओं ने तेज विकास को ही सबसे बड़ी जरूरत माना है.


प्राचीन काल से ही हमारे जीवन में परंपराओं-मान्यताओं का बहुत महत्व रहा है. हमारे पूर्वजों ने धर्म के माध्यम से पर्यावरण चेतना को हमारे जन-जीवन में बांधा और उसे संरक्षण प्रदान किया. हमारी संस्कृति वन-प्रधान रही है.


उपनिषदों की रचना वनों से ही हुई. हिमालय एवं उसकी कंदराएं योगी-मुनियों की तपस्थली रहे, जहां उन्होंने गहन साधना कर न केवल जीवन-दर्शन के महत्व को बतलाया, बल्कि यह भी कि वन हमारे जीवन की आत्मा हैं. वट, पीपल, खेजड़ी, तुलसी आदि की उपादेयता-उपयोगिता इसका जीवंत प्रमाण है. जीवों को हमने देवी-देवताओं के वाहन के रूप में स्वीकार किया है. इनकी महत्ता न केवल पूजा-अर्चना में, बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी है.


जल देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं और नदियां देवी के रूप में पूजनीय हैं. इन्हें यथासंभव शुद्ध रखने की मान्यता और परंपरा है. पहले लोग आसमान देख आनेवाले मौसम, भूमि को देख भूजल स्रोत तथा पक्षी, मिट्टी एवं वनस्पति के अवलोकन मात्र से भूगर्भीय स्थिति और वहां मौजूद पदार्थों के बारे में बता दिया करते थे. यह सब उनकी पर्यावरणीय चेतना के कारण ही संभव था. लेकिन आज हम उससे कोसों दूर हैं.


विकास के दुष्परिणाम के रूप में जंगल वीरान हुए, हरी-भरी पहाड़ियां सूखी-नंगी हो गयीं, जंगलों पर आश्रित आदिवासी रोजी-रोटी की खातिर शहरों की ओर पलायन करने लगे, पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा गया, वन्यजीव विलुप्ति के कगार पर पहुंच गये और जीवनदायिनी नदियां प्रदूषित हो गयीं. हमने यह कभी नहीं सोचा कि यदि यह सब नहीं बचेंगे, तो इतिहास के साथ हमारा आनेवाला कल भी समाप्त हो जायेगा.


दशकों से डीजल और बिजली के शक्तिशाली पंपों के सहारे कृषि, उद्योग और नगरीय जरूरतों की पूर्ति के लिए जल का अत्यधिक दोहन, उद्योगों से निकले विषैले रसायनयुक्त अपशेष-कचरा, उर्वरकों-कीटनाशकों के बेतहाशा प्रयोग से भूजल के प्राकृतिक संचय व यांत्रिक दोहन के बीच के संतुलन बिगड़ने से पानी के अक्षय भंडार माने जानेवाले भूजल स्रोत के संचित भंडार अब सूखने लगे हैं.


वैज्ञानिकों ने बताया है कि जलवायु में बदलाव से सदानीरा गंगा और अन्य नदियों के आधार भागीरथी बेसिन के प्रमुख ग्लेशियरों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. हिमाच्छादित क्षेत्रों में हजारों-लाखों बरसों से जमी बर्फीली परत तक पिघलने लगी है. ऐसा ही चलता रहा, तो कुछ दशकों में गोमुख ग्लेशियर समाप्त हो जायेगा और नदियां थम जायेंगी. यह सबसे खतरनाक स्थिति होगी.


पर्यावरणविदों का मानना है कि धरती को बचाने के लिए हरियाली बेहद जरूरी है. सरकार दावा भले करे, लेकिन सच यह है कि वन क्षेत्र घट रहा है. देश का एक भी मैदानी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जो 33 फीसदी वन क्षेत्र के मानक पर खरा उतरता हो. आज उत्तर प्रदेश के 5.9, बिहार के 7.8 और पश्चिम बंगाल के 14 फीसदी क्षेत्रफल में ही वन बचे हैं, जबकि राज्य सरकारों का ध्यान आर्थिक विकास पर ही केंद्रित है.


उनकी प्राथमिकता में न जंगल हैं और न नदी है. भीषण सूखे और सतह के उपर के तापमान में हुई बढ़ोतरी से वाष्पीकरण की दर तेज होने से कृषि भूमि सिकुड़ती जा रही है. बारिश की दर में खतरनाक गिरावट और मानसून की बिगड़ी चाल के चलते कहीं देश सूखे और कहीं बाढ़ के भयावह संकट से जूझ रहा है.


पर्यावरण स्वच्छता में राजधानी दिल्ली का हाल बीमारू राज्यों से भी बदतर है. पर्यटन विकास के नाम पर पर्यावरण की अनदेखी हो रही है.


पर्यावरण को रोजगार से नहीं जोड़ा जा रहा है. यह जरूरी है कि पर्यावरण संरक्षण की कोशिशों में कंपनियों के हित की जगह जन-भागीदारी को अहमियत दी जाये. यदि हम समय रहते कुछ कर पाने में नाकाम रहे, तो जल्दी ही इंसान, जीव-जंतु और प्राकृतिक धरोहरों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा.



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