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न्यूज क्लिपिंग्स् | बच्चों की कब्रगाह है मेलघाट-शिरीष खरे

बच्चों की कब्रगाह है मेलघाट-शिरीष खरे

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published Published on Aug 12, 2010   modified Modified on Aug 12, 2010
विदर्भ को देश भर में किसानों की आत्महत्या वाले इलाके के रुप में जाना जाता है लेकिन इसी इलाके में सतपुड़ा पर्वत में बसी मेलघाट की पहाड़ियों में छोटे बच्चों की मौत के आंकड़े पहाड़ियों से ऊंचे होते चले जा रहे हैं. साल दर साल कोरकू आदिवासियों के हजारों बच्चे असमय काल के गाल में समाते चले जा रहे हैं.
कुपोषण


मेलघाट में 1993 को पहली बार कुपोषण से बच्चों के मरने की घटनाएं सामने आई थीं. यही वह समय था, जब देश की मौजूदा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल यहां से संसद में पहुंची थीं. मगर 1993 से अब तक कुल 10 हजार 762 बच्चों की मौत हो चुकी है. तब से अब तक सरकार द्वारा यहां अरबों रूपए खर्च किए जाने के बावजूद मौत का तांडव है कि रूकने के बजाय और तेज़ होता जा रहा है.

इस साल भी मानसून से पहले किये गए सर्वेक्षण से जो आंकड़े आए हैं, उनमें भी वहीं हैरतअंगेज, चिंतनीय और शर्मनाक कहानियां छिपी हुई हैं. बल्कि इस साल तो बीते साल के मुकाबले कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या में दोगुनी बढ़ोतरी होने की आशंकाएं जतायी जा रही हैं.

मेलघाट में बीते 5 सालों में 0 से 6 साल तक के बच्चों की मृत्यु दर के सरकारी आकड़ों को देखा जाए तो यहां 2005-06 में बाल मृत्यु का आंकड़ा 504 था, 2006-07 में जो 490 पर अटका, 2007-08 में यह 447 तक तो जा पहुंचा, मगर 2008-09 में यह बढ़कर 467 हो गया, और 2009-10 में यह और बढ़कर 510 तक आ पहुंचा. गौरतलब है कि बीते तीन सालों से यहां बच्चों की मृत्यु दर लगातार बढ़ रही है. इस साल कुपोषण के ग्रेड-4 में 39 बच्चे पाये गए हैं, जो कि बीते साल के मुकाबले 10 ज्यादा हैं. जबकि इस साल कुपोषण के ग्रेड-3 में 442 बच्चे पाये गए हैं, जो कि बीते साल के मुकाबले 213 ज्यादा हैं.

बीते 17 सालों के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि मेलघाट में सलाना 700 से 1000 बच्चे कुपोषण के कारण दम तोड़ देते हैं. जहां 2007-08 में सबसे कम 447 बच्चे मारे गए, वहीं 1996-97 में सबसे ज्यादा 1050 बच्चे मारे गए.

इस साल भी मेलघाट में मरने वाले बच्चों का सरकारी आंकड़ा 500 को पार कर चुका है, इसलिए हर साल की तरह इस साल भी कोई न कोई सरकारी दौरा और आयोजन होना है, मगर उसके बाद प्रशासनिक अमला किस तरह से कुंभकरणी नींद में डूब जाता है,यह जानने के लिये हर साल के आंकड़ों पर नजर डालना काफी है.

यह बरसात का मौसम है. बरसात के मौसम में लोग काम के लिए घर से बाहर नहीं निकल पाते हैं, इसलिए उनके सामने भोजन का संकट रहता है. सबसे ज्यादा बच्चे भी इसी मौसम में मरते हैं. इसी मौसम के बीतते ही प्रशासनिक अमला थोड़े दिनों के लिए जाग जाता है.

1993 के बरसात का मौसम बीतते ही सबसे पहले महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने यहां दौरा किया था. उसके बाद से हर साल के सर्द समय में कभी सरकारी दौरों तो कभी मेलघाट कुपोषण की चर्चाओं से सरकारी भवनों के भीतर गर्मी तो बनी रहती है, मगर उन चर्चाओं की गर्मी से मेलघाट अछूता ही रह जाता है.

सरकारी दौरा तारीख बताकर किया जाता है. तारीख के फाइनल होते ही यहां के शांत सरकारी भवनों में अचानक हलचल मचती है. सूचना मिलते ही सारे कर्मचारी और साधन सक्रिय हो जाते हैं. क्योंकि नेताओं को मुख्य सड़क के गांवों और अस्पतालों को ही देखने समझने के लिए निकाला जाता है, इसलिए दूर-दराज के कर्मचारियों को बेफ्रिकी रहती है. इस समय में उनके लिए सुविधाओं वाली जगहों पर ही ठहरने के इंतजाम किए जाते हैं, इसलिए उनके पीछे रहने वाले अधिकारियों द्वारा कुपोषण के कारण तो गिनाए जाते हैं, मगर योजनाओं या उनमें होने वाली अनियमितताओं को छिपाने का सिलसिला जारी रहता है.

अमरावती जिले में आने वाला मेलघाट प्रदेश के अत्यंत गरीब जिलों में से एक है. यहां 51.28% परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं. जाहिर है, गरीबी की स्थिति बेकारी का नतीजा होती है और इसका सीधा असर स्वास्थ्य की स्थितियों पर पड़ता है. लेकिन यह बात चौंकाने वाली है कि इतनी बड़ी आबादी और उसकी नाजुक परिस्थितियों के मुकाबले यहां अस्पताल और उसमें कुल बिस्तरों की संख्या नही के बराबर है

जिले में कुल 56 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं और हर एक केंद्र पर करीब 30 हजार लोगों का भार है. इसी तरह कुल 320 उप-स्वास्थ्य केन्द्र हैं और इनमें से हर एक केंद्र पर 6 हजार लोगों का भार है. 1981 में 1 लाख की आबादी के लिए यहां अस्पताल के 63 बिस्तर थे. यह आंकड़ा 10 साल बाद बढ़ने के बजाय 1991 में घट कर 62 हो गया. 20 साल बाद यानी 2001 में यह आंकड़ा घटते हुए 56 पर जा पहुंचा.

इसके अलावा इलाज का हाल और बुरा है. सलिता का ही मामला लें. पांच साल पहले सलिता के उप-प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में सुमिता नाम की बच्ची मर गई थी. तब से इमरजेंसी केस को 15 किलोमीटर दूर खतरू के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र भेजा जाता है. 6 उप-प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों से जुड़कर बने 1 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में 1 शिशु विशेषज्ञ और 112 प्रकार की दवाईयां होनी चाहिए. लेकिन खतरू की हालत खराब है.

खतरू के सरपंच केण्डे सावलकर कहते हैं-“यहां व्यवस्था है ही नही. गंभीर किस्म के सारे केस धारणी के उप-जिला चिकित्सालय भेजे जाते हैं. ऊपर से कर्मचारियों का व्यवहार बेहद खराब हैं. वह मरीज से एंबुलेंस में डीजल डलवाने को कहते हैं. यहां से मरीज को 110 किलोमीटर का ऊबड़-खाबड़ रास्ता तय करके जाना पड़ता है.”

धारणी से करीब 150 किलोमीटर दूर हतरू सहित 12 पहाड़ी गांवों में सड़क नही मिलती. जब रूई पठार, डोभी, भुतरूम, कुही, एकतई, खुटिदा, भाण्डुम, सिमौरी और कारंजखेड़ा के मरीज उप-जिला चिकित्सालय पहुंचते हैं, तब भी उनकी दिक्कतों का अंत नहीं होता है. स्थानीय स्तर पर मशीनरी सुविधाएं हैं, मगर कर्मचारियों से उनकी खराबियों की खबरें मिलती हैं. कई बार वह बिजली न होने का तर्क देते हैं. ऐसे में इमरजेंसी-रुम के जेनेरेटर की बात की जाये तो वह उसमें डीजल न होने का रोना रोते हैं. नतीजन गंभीर किस्म के ज्यादातर केस यहां से भी रेफर होकर जिला चिकित्सालय अमरावती भेज दिये जाते हैं.

जाहिर है सिर्फ भव्य भवन आदर्श चिकित्सा की नींव नहीं बनते हैं. कुल 2 लाख 19 हजार हेक्टेयर वाली मेलघाट पहाड़ियों में ऐसे ही 98 उप-प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, 11 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और 03 ग्रामीण चिकित्सालय खड़े मिलते हैं.

महाराष्ट्र की 50वीं सालगिरह के जश्न में मुंबई भले ही रौशनी में नहायी हुई हैं, मगर मेलघाट की यह पहाड़ियां भूख और अंधकार में डूबी हुई हैं.


45 घरों वाला खुटिदा गांव स्वास्थ्य की स्थानीय व्यवस्थाओं का नमूना भर है. यहां से 8 किलोमीटर दूर सलिता का उप-प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है, जहां कायदे से सभी कार्यकर्ताओं की हाजिरी के साथ-साथ 27 प्रकार की दवाईयां होनी चाहिए. मगर लालबा कास्तेकर से मालूम हुआ- “कार्यकर्ता एक तो दिखते नहीं और अगर दिखे भी तो दवाईयां नहीं मिलती हैं. एएनएम को हफ्ते में एक बार गांव आना चाहिए. मगर वह गर्भवती औरतों की जांच करने के लिए भी नहीं आ पाती है. ऐसे में पैसा हुआ तो प्राइवेट अस्पताल जाओ, नहीं तो घर पर ही रहो.”

मगर बारिश में जब खंडू नदी तीन तरफ से घेरती है, तब यहां के लोगों को इमरजेंसी के समय 19 किलोमीटर दूर मध्यप्रदेश में मोहरा गांव के प्राइवेट अस्पताल में जाना पड़ता है.

पेट भर भोजन और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं के नहीं मिलने पर कुपोषण पेट में ही पलने लगता है. ऐसे में बच्चे 2 किलो वजन लिए पैदा होते हैं. यह दशा ग्रेड-1 के कुपोषित बच्चे को ग्रेड-2 में, और ग्रेड-2 के कुपोषित बच्चे को ग्रेड-3 से होते हुए ग्रेड-4 में पहुंचा देती है.

कारंजखेड़ा गांव के 113 घर दो बस्तियों में बंटे हैं. चरनकुपाटा नाला के उत्तरी तरफ 43 घरों वाला स्कूलढ़ाणा है और दक्षिणी की ओर 70 घरों वाला पटेलढ़ाणा. पटेलढ़ाणा से 1 किलोमीटर दूर स्कूलढ़ाणा की आंगनबाड़ी में कुल 98 बच्चे हैं. सरकार आंगनबाड़ी के हर बच्चे पर केवल 2.40 पैसे प्रति दिन का भोजन देने को कहती है. यह वितरण भी प्रदेश में ठेका प्रणाली से चलता है. मगर कारंजखेड़ा आंगनबाड़ी की हालत और बदतर इसलिए है, क्योंकि यहां की कार्यकर्ता ने भोजन वितरण का ठेका खुद अपने नाम करवा लिया है.

धाजु लोकाजी कास्तेकर ने बताया कि कार्यकर्ता ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में रहती है, इसलिए पोषक और पर्याप्त भोजन नहीं देती. कम भोजन बनने से पटेलढ़ाणा के बच्चे छूट जाते हैं, और हर रोज केवल खिचड़ी ही पकती है.

यानी मेनु के हिसाब से भोजन केवल मेनुकार्ड में ही दर्ज है. यहां से मेलघाट की कुल 337 आंगनबाड़ियों और 213 प्राइमरी स्कूलों में भोजन के वितरण की स्थितियों का अंदाजा लगता है.
एकतई गांव के 175 परिवारों में से 40 के पास ही राशन-कार्ड है. राशन की दुकान का डीलर साबूलाल बैठकर है, जबकि राशन की दुकान उसका भाई बाबूलाल बैठकर चलाता है. खुरीदा गांव के बाबू बाबन ने बताया कि राशन-दुकान से 35 किलो अनाज के बजाय 25 किलो ही मिलता था, और बाकी का माल बाहर बेचा जाता था. इसी के चलते गांव के कुछ लोगों से उसकी मारपीट हुई. मामला थाने होते हुए कचहरी तक पहुंचा. उस समय करीब 50 लोगों ने तहसील में राशन वितरण में धांधली की शिकायत की थी, और उसके 8 महीने बाद फूड सप्लाई इंस्पेक्टर ने राशन दुकान में आकर ताला डाल दिया.

विदर्भ में कुपोषण


हालत यह है कि अब यहां के लोगों को 6 किलोमीटर दूर जाकर राशन लाना पड़ता है. यानी जो जनता अव्यवस्था के खिलाफ लड़ी, प्रशासन ने उसी को परेशानी में डाल दिया है.

बीते साल मेलघाट में रोजगार गांरटी योजना के तहत कुल 75 हजार 909 जाब-कार्ड बांटे गए, मगर काम 14 हजार 502 मजदूरों को ही मिला. अगर आप जिले की सलाना रिपोर्ट पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि उसमें रोजगार गांरटी के अलावा बाल विकास एकीकृत योजना और आदिवासी विकास से जुड़ी विशेष योजनाओं के खर्च का ब्यौरा प्रकाशित नहीं होता है.ऐसे अहम आंकड़े आईसीडीएस विभाग, पंचायत समिति और जिला परिषद के आफिस से भी नहीं मिलते. इसे आप क्या कहेंगे ?

मेलघाट पहाड़ियों पर करीब 3 लाख लोग रहते हैं, जिसमें से 80% कोरकू जनजाति के लोग हैं. यह लोग यहां की 27% जमीन पर खेती करते हैं. यह खेती पूरी तरह मानसून के भरोसे है. मगर मेलघाट पहाड़ियों का 73% हिस्सा क्योंकि जंगलों से ढ़का रहा है, इसलिए यहां आजीविका का मुख्य साधन खेती के बजाय जंगल ही रहा है. अफसोसजनक है कि 1974 में ‘मेलघाट टाईगर रिजर्व एरिया’ क्या घोषित हुआ, कोरकू जनजाति के लोगों को जंगल से लगातार बेदखल भी होना पड़ा, जिसका सीधे तौर पर बुरा असर उनकी आजीविका और जीवनचर्या पर पड़ना ही था, बीते 34 सालों से यहां रोटी का संकट गहराता जा रहा है. महाराष्ट्र की 50वीं सालगिरह के जश्न में मुंबई भले ही रौशनी में नहायी हुई हैं, मगर मेलघाट की यह पहाड़ियां भूख और अंधकार में डूबी हुई हैं.

यहां की जमीन से कोरकू जनजाति का अतीत देखा जाए तो 1860-1900 के बीच प्लेग और हैजा से पहाड़ियां खाली हो गई थी. तब यह लोग मध्यप्रदेश के मोवारगढ़, बैतूल, शाहपुरा भवरा और चिंचोली में जाकर बस गए. उसके एक दशक बाद अंग्रेजों की नजर यहां के जंगल पर पड़ी. अंग्रेजों को फर्नीचर की खातिर पेड़ काटवाना और उसके लिए पहुंच मार्ग बनवाना था. इसलिए कोरकू जनजाति को वापिस बुलाया गया.

आजादी के तकरीबन 25 सालों तक उनका जीवन जंगल से जुड़ा रहा. मगर 1974 में सबसे पहले वन-विभाग ने बाघ के पंजों के निशान खोजने और उनकी लंबाई-चैड़ाई तलाशने के लिए सर्वे किया. फिर जमीनों को हदों में बांटा जाने लगा. इस तरह जंगल की जमीन राजस्व की जमीन में बदलने लगी और यहां से लोगों को बेदखल किया जाने लगा.

1980 के बाद से तो वन-विभाग इन्हें पानी की मछली, जमीन के कंदमूल और पेड़ की पत्तियों के इस्तेमाल से भी रोकने लगा. इन्होंने जंगल से जीवन जीना सीखा था. मगर जैसे-जैसे जंगल से जीवन को अलग-थलग किया जाने लगा, वैसे-वैसे उनका जीना दूभर होता चला गया.

आज मेलघाट में जंगली पहाड़ियों की पंरपराओं का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो चुका है. आज सामाजिक ऊथल-पुथल अपने विकराल रुप में हाजिर है. जबकि राहत के तौर पर तैयार सरकारी योजनायें बेअसर ही रही हैं. हर योजना ने लोगों को कागजों में उलझाए रखा है और लोग भी उलझकर जंगल पर अपने हक की मांग करना भूल गए हैं. उनके सामने केवल दो जून की रोटी ही सबसे बड़ा सवाल है, जिससे उन्हें हर रोज जुझना पड़ता है.

 

http://raviwar.com/news/371_child-malnutrition-in-melghat-vidharbh-shirish-khare.shtml


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