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न्यूज क्लिपिंग्स् | बजट 2016 : गांवों के कायाकल्प की कोशिश

बजट 2016 : गांवों के कायाकल्प की कोशिश

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published Published on Mar 2, 2016   modified Modified on Mar 2, 2016
भारतीय अर्थव्यवस्था पर वैश्विक मंदी के साथ कृषि संकट का भारी दबाव है. ऐसी स्थिति में आम बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ग्रामीण विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर पर जोर देकर सरकार की दूरदर्शिता और प्राथमिकता को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है. औद्योगिक उत्पादन और घरेलू मांग में बढ़ोतरी के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करना बहुत जरूरी है.

इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए वित्त मंत्री ने किसानों की बेहतरी के साथ गांवों के सर्वांगीण विकास की रूप-रेखा तैयार की है. बजट प्रावधानों में खूबियों और खामियों का होना स्वाभाविक है. इसे समग्रता से समझ कर ही सरकार की ग्रामीण नीति की दशा और दिशा से अवगत हुआ जा सकता है. इस दिशा में प्रस्तुत है ग्रामीण भारत पर ध्यान देने की बजटीय प्राथमिकताओं पर विभिन्न जानकारों की राय...

जरूरी है किसानों की आय बढ़ाना

देविंदर शर्मा
कृषि अर्थशास्त्री

भारत के 17 राज्यों में खेती से एक किसान की औसत आय 20 हजार रुपये सालाना है. इसमें उत्पादन का वह अंश भी शामिल है जिसे वह पारिवारिक उपभोग के लिए रखता है. दूसरे शब्दों में, इन राज्यों में किसान की औसत मासिक आय महज 1,666 रुपये है. जी हां, आपने सही पढ़ा. महज 1,666 रुपये.

इस तस्वीर में आप खुद को रख कर देखें. अगर आप किसान होते और आप पूरे महीने में सिर्फ 1,666 रुपये कमा पाते, तो आप क्या करना पसंद करते? आप पांच साल और इंतजार करते? उम्मीद पर जीते रहते, और सोचते रहते- वो सुबह कभी तो आयेगी!
जब बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में यह कहा कि ‘हमें ‘खाद्य सुरक्षा' से परे सोचना होगा और किसानों में ‘आय सुरक्षा' का भरोसा देना होगा', मैं सांस थामे इंतजार कर रहा था. लेकिन जब उन्होंने 2022 तक किसानों की आय दुगुना करना का वादा किया, तो मेरी सारी उम्मीदें टूट गयीं.

वित्त मंत्री की इच्छा है कि किसान पांच सालों तक इंतजार करें. पांच साल के बाद, और अगर यह वादा पूरा भी हो जाता है, इन 17 राज्यों में किसानों की मासिक आय 3,332 रुपये हो जायेगी.

मैं कल्पना कर सकता हूं कि 2022 में पेश होनेवाली आर्थिक समीक्षा में गर्व से घोषणा की जायेगी कि लगातार प्रयासों से सरकार किसानों की आय दुगुनी करने में सफल रही है. अर्थशास्त्री निश्चित तौर पर इसे बड़ी उपलब्धि के रूप में चिन्हित करेंगे. अगर मुद्रास्फीति के हिसाब को जोड़ कर देखें, तो तब भी 3,332 रुपये की आय 1,666 रुपये के बराबर होगी जो आमदनी किसान की आज है. इस लिहाज से एक अर्थ में सरकार ने ‘आय सुरक्षा' का वादा किया है.

ऐसे समय में जब कृषि क्षेत्र गंभीर संकट से जूझ रहा है और पिछले कई सालों से जारी संकट का उल्लेख 2016 की आर्थिक समीक्षा में भी विस्तार से किया गया है, मुझे आशा थी कि सरकार इस दिशा में कोई त्वरित कदम उठायेगी. देश में किसानों की आत्महत्या का प्रति दिन औसत 42 से बढ़कर 2015 में 52 हो गया है. ऐसी स्थिति में कृषि पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है.

बजट भाषण में करीब 50 बार कृषि का उल्लेख कर देने भर से लापरवाही और उदासीनता झेल रहे इस क्षेत्र को राहत नहीं मिल सकती है.

खेती का मौजूदा संकट कम कृषि उत्पादन का परिणाम नहीं है. ऐसा नहीं है कि किसान ऊपज बढ़ाना नहीं जानते और इसी कारण उनकी आमदनी नहीं बढ़ रही है. उत्पादकता महत्वपूर्ण है, लेकिन इसके लाभकारी मूल्य नहीं मिलने के कारण किसान परेशान है. उदाहरण के लिए भारत के प्रमुख खेतिहर राज्य पंजाब को देखें. पंजाब के किसान 99 फीसदी निश्चित सिंचित क्षेत्र में प्रति हेक्टेयर 4,500 किलोग्राम गेहूं और 6,000 किलोग्राम धान उपजाते हैं.

यह निश्चित रूप से फसल उत्पादकता का बहुत उच्च स्तर है. बजट में सरकार द्वारा घोषित सिंचाई सुविधा के विस्तार समेत सभी विकास सूचियां पंजाब में पहले से ही उपलब्ध हैं. इसके बावजूद, जैसा कि कृषि व्यय एवं मूल्य आयोग के आंकड़ों में बताया गया है, राज्य में एक हेक्टेयर जमीन में धान और गेहूं की पैदावार से सालाना 36 हजार रुपये की कुल आमदनी होती है यानी हर महीने मात्र तीन हजार रुपये.

इस राशि की तुलना सातवें वेतन आयोग के बाद मिलनेवाले एक चपरासी के 18 हजार रुपये के मूल मासिक वेतन से करें. मुझे आश्चर्य नहीं होगा अगर नया भरती हुआ चपरासी भी आय करदाताओं की श्रेणी में आ जाये.

इसलिए इस वर्ष की आर्थिक समीक्षा की यह बात सही नहीं है कि भारतीय कृषि की मुख्य चुनौती निम्न उत्पादकता है. यह स्पष्ट करना होगा कि असली चुनौती वह है, जिसे वित्त मंत्री ने चिन्हित किया है- ‘आय सुरक्षा'.

किसानों की बात करने पर मुख्यधारा के अर्थशास्त्री और मीडिया तुरंत ही आपको वामपंथी करार दे देते हैं.

कई टेलीविजन चैनलों पर यह देख कर मुझे बहुत धक्का लगा कि पैनल में बैठे लोग बजट में ‘कृषि' शब्द पर जोर देने से स्पष्ट रूप से निराश थे. जो बात नहीं समझी जा रही है, वह यह है कि कृषि अनुत्पादकता या कम कमाई के कारण दुसाध्य नहीं हुई है, बल्कि इसे जान-बूझकर वर्षों से कुपोषित रखा गया है. वर्ष 1970 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 76 रुपये प्रति कुंतल था. वर्ष 2015 में, 45 सालों के बाद, इसमें 19 गुणा वद्धि हुई और इसकी दर 1,450 रुपये प्रति कुंतल हो गयी. इसी अवधि में सरकारी कर्मचारियों के मूल वेतन (महंगाई भत्ते के साथ) में 120 से 150 गुणा बढ़ोतरी हुई, कॉलेज शिक्षकों और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों के वेतन 150 से 170 गुणा, स्कूली शिक्षकों के वेतन 280 से 320 गुणा, और उद्योग जगत के शीर्ष अधिकारियों के वेतन 1,000 गुणा तक बढ़े.

विगत 45 वर्षों में कर्मचारियों के वेतन में भारी वृद्धि होती रही, किसान अपने उचित बकाये के लिए तरसते रहे. अगर गेहूं की कीमतें कम-से-कम 100 गुणा भी बढ़ायी जातीं, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य कम-से-कम 7,600 रुपये प्रति कुंतल होता. इस पर तर्क यह दिया जाता है कि अगर गेहूं की कीमतें बढ़ीं, तो खाद्य मुद्रास्फीति बहुत अधिक बढ़ जायेगी. इससे स्पष्ट है कि सिर्फ खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखने के लिए सालों से किसानों को दंडित किया जाता रहा है.

यही कारण है कि एनडीए सरकार कृषि लागत के ऊपर 50 फीसदी लाभ देने के अपने वादे से पीछे हट गयी है. न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिहाज से देखें, तो किसानों की आय में सिर्फ 3.2 से 3.6 फीसदी की मामूली वार्षिक वृद्धि हुई है. साफ है कि संगठित क्षेत्र में हर व्यक्ति के वेतन में भारी वृद्धि होती रही, और जान-बूझकर किसानों की अवहेलना की जाती रही.

मेरी राय में सरकार को अपनी ‘किसान-विरोधी' छवि में सुधार के लिए यह उचित समय था. कृषि में सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी के साथ आय बढ़ाने के उपाय भी लाये जाने चाहिए थे.

यदि सरकार किसानों की मदद के लिए तीन लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज दे देती और किसानों की आय सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय आयोग गठित कर देती, तो समूची अर्थव्यवस्था का कायाकल्प हो सकता था.

देश के 60 करोड़ किसानों के हाथ में अधिक आय न सिर्फ उन्हें ‘आय सुरक्षा' प्रदान करती, बल्कि इससे घरेलू मांग में भारी वृद्धि होती जिससे औद्योगिक वृद्धि को तेज गति मिलती. वास्तव में, ‘सबका साथ-सबका विकास' का यही एकमात्र तरीका है.
गांवों पर फोकस का इंडस्ट्री में दिखेगा असर

मनोज पांडा

डायरेक्टर,

इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ

आम बजट में कृषि पर खास फोकस किया गया है. इससे गांवों में भी खरीद की क्षमता बढ़ेगी. कृषि पर फोकस को लेकर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा. यही कारण है कि इस बजट से उद्योग जगत को भी थोड़ी राहत मिलेगी. बीते वर्षों में जिस तरह से कृषि की उपेक्षा हो रही थी, उससे गावों की खरीद क्षमता बहुत ही कम हो गयी थी. अब इस बजट से कृषि और ग्रामीण विकास को एक नयी दिशा मिलेगी. गांव और खासकर पंचायतों के लिए जो घोषणाएं की गयी हैं, यदि उन पर अमल होता है, तो निश्चित रूप से इसका लाभ गांव और किसान को मिलेगा. सरकार का यह कदम स्वागतयोग्य है.

बजट में कृषि, स्टार्टअप और फाइनेंसियल स्टेबलिटी पर विशेष फोकस है. कुछ अन्य खास क्षेत्रों में भी फोकस किया गया है. बजट में आर्थिक ग्रोथ पर ध्यान रखा गया है. यदि कृषि का विकास होता है, तो इससे गांवों में आम आदमी के पास भी खर्च करने की क्षमता बढ़ेगी. जब खर्च होगा, तो निश्चित रूप से इससे इंडस्ट्री को लाभ होगा. यही कारण है कि सुस्त पड़ी इंडस्ट्री में यह बजट जान फूंकने का काम करेगा.

आम बजट सभी वर्ग के लोगों और सभी क्षेत्रों के लिए होता है. इसलिए सिर्फ खास क्षेत्रों पर फोकस कर यह नहीं बताया जा सकता है कि बजट में सारी बातें अच्छी हैं. ग्रामीण और कृषि क्षेत्रों पर फोकस कर सरकार ने अच्छा काम किया है, लेकिन बजट में अब भी स्पष्टता का अभाव है.

कर्मचारी वर्ग के इपीएफओ (कर्मचारी भविष्य निधि) पर टैक्स को लेकर जिस तरह से घोषणा की गयी थी, उसका विरोध होना स्वभाविक था. हालांकि, सरकार द्वारा इस पर यूटर्न लेने की बात बतायी जा रही है. मध्यवर्ग में नौकरीपेशा लोग थोड़ा निराश हैं, क्योंकि इस बार भी टैक्स के स्लैब में उन्हें राहत नहीं मिली है. निर्यात को कैसे बढ़ावा देना है, इस पर भी सरकार की ओर से ठोस चीज बजट में शामिल नहीं की गयी है.

सातवें वेतन आयोग को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है. जीएसटी को सरकार एक ही साथ लागू कर देगी, क्योंकि ऐसा करने से बहुत बड़ा अंतर एक साथ आयेगा. इसीलिए इसे धीरे-धीरे शुरू करना चाहिए. बजट में सरकार ने छोटी-छोटी बातों पर भी ध्यान दिया है, लेकिन कुछ और चीजों पर गहराई से विचार कर स्पष्टता लायी होती तो और अच्छा रहता.

(बातचीत : अंजनी कुमार सिंह)

ग्रामीण विकास पर जोर

हर्षवर्धन नेवतिया, अध्यक्ष, फिक्की

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती देने और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को रफ्तार देने की पहल से आनेवाले समय में इसका लाभ मिलेगा और इन क्षेत्रों में मजबूती आने से आपूर्ति बढ़ेगी और रोजगार के अवसरों में काफी वृद्धि होगी. पिछले दो सालों से कमजोर मॉनसून के कारण कृषि क्षेत्र पर काफी दबाव था और इसे दूर करने के उपाय जरूरी हैं. सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए लंबी अवधि की योजना बनायी है.

कृषि में बेहतरी की उम्मीद

ब्रजेश झा, अर्थशास्त्री (इंस्टीट्यूट ऑफ इकॉनोमिक ग्रोथ)

किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य इस बजट की सबसे बड़ी खासियत है. यह समय भले ही पांच साल का है, फिर भी अच्छी पहल है. ग्रामोद्योग पर भी जोर दिया गया है. कस्बाई इलाकों में 300 क्लस्टर बनाये जायेंगे, जो ग्रामोद्योग के लिए जरूरी है. इससे किसानों को अपनी आमदनी बढ़ाने का कृषि से इतर भी विकल्प मिलेगा और गांवों से पलायन रुकेगा.

बजट 2016 : गांवों के कायाकल्प की कोशिश http://www.prabhatkhabar.com/news/special-news/story/733439.html


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