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न्यूज क्लिपिंग्स् | बांध, पर्यावरण और जनजीवन-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

बांध, पर्यावरण और जनजीवन-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

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published Published on Feb 16, 2018   modified Modified on Feb 16, 2018
महानंदा नदी को क्या कोसी नदी की तरह ही बिहार या सीमांचल का अभिशाप कहा जा सकता है? यह सवाल उठा रहे हैं कटिहार जिला के कदवा प्रखंड में जमा हुए हजारों लोग. देश में राजनीति के बदले माहौल में भी यदि यह संभव हो सका कि आस-पास के कई विधानसभा क्षेत्र के वर्तमान और भूतपूर्व विधायक अपनी पार्टियों की पहचान से ऊपर उठकर एक मंच पर आ सकें और एक स्वर में महानंदा पर बने इस रिंग बांध का विरोध करने में जुटें, तो इसका कारण है कि इस बांध के अर्थशास्त्र से लोग त्रस्त हैं. मजे की बात यह है कि बांध के दोनों तरफ के लोग इससे तबाह हो रहे हैं, लेकिन सरकार इसके निर्माण में संलग्न है.

पूर्णिया, अररिया, कटिहार एवं किशनगंज जिले हिंदुस्तान के सबसे गरीब जिले हैं. यहां प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है, जन्म लेते ही मरनेवाले बच्चों के संख्या सबसे ज्यादा है, शिक्षा सबसे कम है, मजदूरी के लिए पलायन सबसे ज्यादा है और मानव विकास के हर मामले में पिछड़ा है. यह सबकुछ तब है, जबकि यहां की जमीन बेहद उपजाऊ है, और लोग बहुत मेहनती हैं.

अंतरराष्ट्रीय सीमा से मिलनेवाला बिहार के कुछ ही जिलों में इनका नाम है, फिर भी इसकी बदहाली क्यों है? जिस पानी को अब ‘ब्लू गोल्ड' कहा जाता है, जिसके लिए दुनियाभर में हाहाकार मचा हुआ है, इस क्षेत्र में उसकी बहुतायत है. यहां के किसानों ने बिना किसी सरकारी सहायता के बांस बोरिंग के सहारे हरित क्रांति लाने का काम किया. पहले धान, फिर गेहूं और अब मक्के की फसल की बेशुमार पैदावार करके गुलाबबाग मंडी को दुनिया के नक्शे पर ला दिया. फिर भी यहां इतनी गरीबी क्यों है? यह सोचनेवाली बात है.

इसका एक बड़ा कारण है महानंदा नदी पर बना हुआ रिंग बांध. जबसे यह बांध बना है, इस इलाके में तबाही हो गयी है. अनाज का कटोरा कहे जानेवाले इस क्षेत्र से धान की फसल गायब हो गयी, गेहूं गायब हो गया, मिर्च गायब हो गयी, केला गायब हो गया और अब मक्के के गायब होने की बारी है. यहां के किसान बार-बार अपने को संवारते हैं और राज्य अपनी नीतियों से इन्हें बार-बार हारने को मजबूर कर देता है. पानी की बहुतायत ही यहां अभिशाप बन गयी है.

लोग आश्चर्यचकित हैं कि सरकार बार-बार बांध पर इतना खर्च क्यों करती है. 1987 की बाढ़ ने इस इलाके की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया था. फिर बहुत दिनों तक यह बांध नहीं बना और थोड़ी खुशहाली यहां लौटी थी. लेकिन, साल 2010 में बिहार सरकार ने इस पर 149 करोड़ रुपये खर्च कर बांध को न केवल ठोस किया, बल्कि उसके पहरे पर भी करोड़ों रुपये खर्च किये गये. इसके बावजूद पानी की धार को बांध सहन नहीं कर पाया.

और हर बार टूटता रहा. 2017 में तो जैसे कयामत ही आ गयी. प्रधानमंत्री को भी मुख्यमंत्री से बात करनी पड़ी. हजारों करोड़ रुपये के माल और असबाब की क्षति हुई. सड़कें टूटीं, रेल लाईन क्षतिग्रस्त हुई, घर-बार उजड़ गये, जानवर मारे गये, लोग मारे गये, हजारों एकड़ जमीन बंजर गयी, लेकिन न तो इसका कोई अध्ययन हुआ और न ही सरकार की नीति बदली.

इसका क्या कारण हो सकता है? आजकल टीवी के किसी चैनल में किसी सीरियल का एक प्रचार चल रहा है. एक पत्रकार का सवाल है कि सड़क पर इतने गड्ढे क्यों हैं? नेता जी का जवाब है: ‘क्योंकि गड्ढे हैं तो मरम्मत है, मरम्मत है तो पैसे हैं, पैसे हैं तो हम हैं, हम हैं तो देश है; आप इन सवालों को पूछकर क्या देश विरोधी हरकत नहीं कर रहे हैं.' शायद ये सीरियल वाले देश की जनता की नब्ज को पहचानने में उस्ताद हैं. क्या यही कारण है इस बांध के बनाने और उसके मरम्मत होते रहने का? यह सवाल जनता पूछना चाहती है.

काफी समय से पानी पर काम करनेवाले आईआईटी से पढ़े-लिखे एक सिविल इंजीनियर दिनेश मिश्र जी ने तो अपनी पुस्तक ‘बंदिनी महानंदा' में साफ तौर पर समझाया है कि महानंदा को बांधने की योजना तकनीकी तौर पर बेहद बेकार है. सीमांचल की यह विपदा मानवकृत है. यहां की राजनीति की कमजोरी है कि जनहित को ताख पर रखकर यहां की नीतियां चल रही हैं. लोग आपदा को भगवान की माया मान लेते हैं. कोई राजसत्ता के खिलाफ संघर्ष भी कितना करे.

लोगों ने न्यायालय का भी रास्ता अपनाया. पटना उच्च न्यायालय ने 1987 की बाढ़ से संबंधी एक मुकदमें में सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करने का निर्देश दिया, लेकिन न्यायालय की कौन सुनता है. अभी हाल में फिर गरीब लोगों ने कुछ पैसे जमाकर न्यायालय से गुहार लगायी है. लेकिन, जब तक न्यायालय कुछ कहेगी तब तक तो कितनी बार बांध का बनना-टूटना चलता रहेगा. राजस्व बर्बाद होता रहेगा. लोग तबाह होते रहेंगे. तब तक इस क्षेत्र में न तो कोई व्यापार संभव होगा, न ही कोई उद्योग लग सकेगा और न ही मत्स्य पालन या वृक्षारोपण हो सकेगा. फिर लोग थक-हारकर न्यायालय जाना छोड़ देंगे और यह इलाका और गरीब होता चला जायेगा.

शायद सरकार तक अपनी बात पहुंचाने का एक रास्ता हो सकता है. गांधीजी ने नीलहों के खिलाफ आंदोलन के लिए जिस तरह से हजारों किसान से उनके दुख-दर्द की कहानी को सुना था, उसे दस्तावेज में बदल दिया था, ठीक उसी तरह कोई यहां के लोगों का दुख-दर्द भी सुने और उसे देश और दुनिया के सामने लाये.

यहां के लोगों को चाहिए कि भारत के कुछ प्रसिद्ध पत्रकार, प्राध्यापक, अवकाशप्राप्त न्यायाधीश और पानी पर काम कानेवाले समाजसेवी संस्थाओं को जमा करके एक जन अदालत चलाये, ताकि कम-से-कम इसजन अदालत में नीति-निर्माताओं का कोई प्रतिनिधि उन्हें यह बता सके कि आखिर किसके हित में उनसे बलिदान की अपेक्षा की जा रही है.

बिहार की वर्तमान सरकार के विकास के दावों को यदि सच मानें, तो फिर जनता की आवाज वहां तक पहुंचनी चाहिए. सरकार को या तो यह बताना चाहिए कि बांध क्यों बनाया गया, तकनीकी विशेषज्ञों की इस पर क्या राय है, इससे फायदा-नुकसान का लेखा-जोखा क्या है और जिनका जीवन इससे संकट में पड़ता है, उनके लिए क्या योजनाएं हैं, या फिर इस बांध को हमेशा के लिए उजाड़ देना चाहिए. इससे राज्य के राजस्व की रक्षा होगी, लोगों का जीवन बचेगा और शायद यह इलाका एक बार फिर खुशहाल हो सकेगा.

https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/great-river-dam-environment-life/1123786.html


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