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न्यूज क्लिपिंग्स् | बुजुर्गों की बदहाली-- मणींद्र नाथ ठाकुर

बुजुर्गों की बदहाली-- मणींद्र नाथ ठाकुर

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published Published on May 3, 2018   modified Modified on May 3, 2018
कहा जा रहा है कि दुनिया अब बूढ़ी हो रही है. पचास के दशक की तुलना में 21वीं शताब्दी में साठ साल से ऊपर की उम्र के लोगों की संख्या तीन गुनी ज्यादा हो जायेगी. भारत में भी लगभग आठ प्रतिशत जनसंख्या साठ से ऊपर है, बिहार जहां अपेक्षाकृत युवा ज्यादा हैं, वहां भी यह प्रतिशत सात से कम नहीं है. लेकिन दुनिया के विकसित देशों की तरह भारत में अभी भी इन लोगों के लिए कोई खास नीति नहीं है. यह एक बड़ी समस्या है, समाज को इसका अंदाजा जितना जल्द हो उतना अच्छा है.
आये दिन महानगर में तो बुजुर्गों को प्रताड़ित किये जाने की खबर आते ही रहती है, लेकिन ग्रामीण समाज की हालत भी कोई अच्छी नहीं है. भारतीय समाज में बुजुर्गों की बदहाली का कारण यह है कि परिवार वाले न तो उनका सही देखभाल ही कर पा रहे हैं, न ही राज्य इस विषय में कुछ सोचता है.

जिस समाज में कभी बुजुर्गों का खास ख्याल किया जाता था, अब वही उन्हें बोझ समझा जाने लगा है. ऐसे में आनेवाले समय में कैसी नीतियों की जरूरत है, सोचना जरूरी है. इसके लिए सही नीति लाना राजनीति का एक अहम मुद्दा होना चाहिए.
आप यदि बिहार के गांवों में जायें, तो आपको एक अलग ही मंजर नजर आयेगा. खासकर उत्तरी बिहार के ज्यादातर गांवों से लोगों का भयंकर पलायन हुआ है. जाहिर है, पलायन करनेवाले लोग युवा ही हैं. नतीजतन, जनगणना के आंकड़ों की तुलना में कहीं ज्यादा बुजुर्ग लोग गांवों में रह रहे हैं. शहरों में भी उनकी संख्या कुछ कम नहीं है.

अब यदि विकास के मापदंड में बुजुर्गों की हालत को भी शामिल कर दिया जाये, तो पता चलेगा कि राज्य विकास के मामले में कुछ सीढ़ी और लुढ़क जाता, यदि नीचे जाने की कोई जगह होती तो. इसमें कोई शक की गुंजाइश ही नहीं है कि ज्यादातर राज्यों में, खासकर बिहार और झारखंड में उनकी हालत बेहद खराब है.

इसके पहले कि हम राज्य से अनुरोध करें कि इस विषय पर वृद्धावस्था पेंशन से आगे जाकर एक दृढ़ नीति का निर्माण करे या स्वयंसेवी संस्थाओं से अनुरोध करें कि उनके लिए रचनात्मक कार्य शुरू करें, यह जानना जरूरी होगा कि उनकी समस्याएं क्या हैं.
बिहार में ग्रामीण बुजुर्गों की सबसे बड़ी समस्या है आर्थिक. जिस राज्य में बड़ी संख्या में लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हों, वहां यदि लोग आर्थिक रूप से सक्रिय रहने की क्षमता ही खो दें, तो मार दोहरी हो जाती है. बच्चे तो कुपोषण के शिकार होते ही हैं, लेकिन बुजुर्गों में कुपोषण कुछ कम नहीं है. अपनी कार्य क्षमता को बनाये रखने के लिए उन्हें जितनी ऊर्जा रोज चाहिए उसका मिल पाना मुश्किल ही होता है.

दूसरी सबसे बड़ी समस्या है स्वास्थ्य का. कहते हैं कि वृद्धावस्था खुद ही एक बीमारी है. शरीर कमजोर हो जाता है, अनेक बीमारियां सताने लगती हैं. ऐसे में यदि स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह से निजी क्षेत्र में हों, तो फिर आप उनकी परेशानी का अनुमान लगा सकते हैं. अच्छे घरों में भी लोग बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर खर्च करने में हिचकिचाते हैं.

उसे बेकार का खर्च माना जाने लगता है. सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली ने उनके लिए बड़ी समस्या पैदा कर दी है. गौर करने की बात है कि स्वास्थ्य सेवा में केवल डॉक्टर या दवाएं ही नहीं हैं, बल्कि रोज-रोज दी जानेवाली वे सुविधाएं भी हैं, जिनके बिना बुजुर्गों को स्वास्थ सुरक्षा मिलना मुश्किल है.

आर्थिक तंगी, स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव तो समस्या है ही, लेकिन सबसे बड़ी समस्या है उनका एकाकीपन. ऐसे बुजुर्ग जिनके बच्चे मजदूरी करने बाहर चले गये हैं, उनकी तो यह समस्या है ही, लेकिन मध्यम वर्गीय बुजुर्गों की हालत भी कुछ कम खराब नहीं है.

बिहार में खासकर आपको लाखों ऐसे लोग मिल जायेंगे, जिनके बच्चे बाहर रहते हैं, अच्छी नौकरी करते हैं. इन बुजुर्गों को महानगर का सजा-धजा फ्लैट रास नहीं आता है.

ऐसा लगता है जैसे किसी बड़े पेड़ को उखाड़ कर नयी जगह पर लगाने का प्रयास किया जा रहा हो. न तो हवा उनकी अपनी है, न मिट्टी और न ही पानी. फिर आप उनसे कैसे यह उम्मीद करते हैं कि अपने पुत्र या पुत्री की नयी संस्कृति में रमकर दिनभर आकाश में टंगे रहते हुए वे आनंद में रहेंगे? उनकी हालत त्रिशंकु सी हो जाती है, न तो गांव या कस्बे में अकेले रह सकते हैं, न ही बड़े शहर में रहने के काबिल हैं.

अकेलेपन के कारण उनमें मानसिक बीमारियां बढ़ती जा रही हैं. अपना शहर और गांव भी धीरे-धीरे बेगाना हो गया है. चीजें बदल गयी हैं, लोग बदल गये हैं, जनसंख्या बढ़ रही है, जरूरी सुविधाएं कम हो गयी हैं, घर और दिल दोनों छोटे हो गये हैं.
सबसे बड़ी समस्या है कि जिस भारतीय संस्कृति का हवाला देकर लोग सत्तासीन हो रहे हैं, उसमें ही इतना बदलाव आ गया है कि बुजुर्गों की इज्जत की जगह अब उन्हें बेकार माना जाने लगा है.

वह भी तब जब आज की बुजुर्ग पीढ़ी ने तो अपना सब कुछ नयी पीढ़ी के निर्माण में खर्च कर दिया था, अपने लिए तो कुछ बचाकर रखा ही नहीं था. आज की युवा पीढ़ी तो सचेत हो गयी है और अपनी सुरक्षा की बात भी सोचती है. उनके लिए तो बच्चों का सफल हो जाना ही सब कुछ था, वही सामाजिक सुरक्षा थी. लेकिन अब संस्कृति बाजारू होती जा रही है.

जो लोग माता-पिता का इलाज नहीं करवा पाते हैं, जीते जी उन्हें हर तरह की तकलीफ देते हैं, उनके मरने पर बड़ा भोज करते हैं, क्योंकि यह भोज उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए है, बुजुर्गों के सम्मान के लिए नहीं. दिखावे की अनावश्यक चीजें माता-पिता, दादा-दादी से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी हैं. पारिवारिक हिंसा केवल औरतों के खिलाफ ही नहीं है, बल्कि बुजुर्गों के खिलाफ भी है. इसके कई उदाहरण हाल में हमारे सामने आये हैं.

अब सवाल है कि हम करें क्या? इस बाजारू संस्कृति में बुजुर्गों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार कैसे मिले? बिना राज्य के सचेत हुए यह संभव नहीं है. आज की युवा पीढ़ी ही कल बुजुर्ग हो जायेगी, इसलिए एक उचित नीति में सबका हित है. सवाल केवल वुद्धावस्था पेंशन का नहीं है. सवाल है सुविधाओं का और सम्मान का. राज्य से भी आगे जाकर समाज को भी कोई समाधान निकालना चाहिए, यह हमारा दायित्व है. केरल की कुछ संस्थाओं ने इस विषय में बहुत ही अच्छा काम किया है.

लोग उन संस्थाओं से जुड़ते हैं, अपनी क्षमता और अपना समय अंकित करवाते हैं. फिर संस्थाएं आवश्यकता के अनुसार उनकी सेवा को बुजुर्गों तक पहुंचाने का काम करती हैं. समय आ गया है कि हम इन बातों पर विमर्श करें और अपनी राजनीति को इस ओर मुखातिब होने के लिए विवश करें.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/elderly-badhali-india-bihar-distressed-young-generation/1151584.html


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