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न्यूज क्लिपिंग्स् | बढ़ती महंगाई की मुसीबत - संजय गुप्‍त

बढ़ती महंगाई की मुसीबत - संजय गुप्‍त

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published Published on Jun 20, 2016   modified Modified on Jun 20, 2016
दालों के साथ-साथ टमाटर, आलू और अन्य खाद्य पदार्थों के दामों में वृद्धि ने मोदी सरकार की चिंता बढ़ा दी है। महंगाई आम जनता को प्रभावित करने वाली सबसे बड़ी समस्या होती है, लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि मोदी सरकार दाल और सब्जियों सरीखी आवश्यक वस्तुओं की कीमत में वृद्धि का सामना उन्हीं उपायों से करती नजर आ रही है, जो विगत में असफल साबित हो चुके हैं। बात चाहे जमाखोरों की धरपकड़ की हो अथवा बिचौलियों पर अंकुश लगाने की या फिर वितरण के ढांचे में सुधार के कदम उठाने की; इन्हीं उपायों के सहारे अतीत में भी सरकारें बढ़ती महंगाई पर काबू पाने की कोशिश करती रही हैं और हर कोई इस सच्चाई से भी परिचित है कि इन उपायों को सीमित सफलता ही मिलती है। यह ठीक है कि न तो कृषि सरकारों का काम है और न ही मौसम उनके नियंत्रण में होता है, लेकिन उसकी यह जिम्मेदारी अवश्य है कि आवश्यक खाद्य वस्तुओं की उपलब्धता की निगरानी करें और यदि किसी चीज की किल्लत की आशंका हो तो उससे निपटने के उपाय भी समय रहते किए जाएं। इसका एक अर्थ यह भी है कि सरकारें फसलों के हिसाब-किताब से पूरी तरह अवगत रहें।

आम तौर पर ऐसा ही किया जाता है, लेकिन इसके बावजूद ऐसे उपाय मुश्किल से ही हो पाते हैं जिससे स्थितियां नियंत्रण में रहें और आवश्यक वस्तुओं की किल्लत न होने पाए। टमाटर, आलू आदि सब्जियों के दाम मौसम के प्रभाव के चलते ऊपर-नीचे होते रहते हैं, लेकिन असली चिंता का विषय दलहन के उत्पादन में आ रही कमी है। पिछले दो-तीन सालों से दलहन के उत्पादन में आ रही कमी के लिए मोदी सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता। यह दोष तो पूर्व की सरकारों का है जिन्होंने हरित क्रांति के उपरांत अपना सारा ध्यान गेहूं और चावल के उत्पादन को बढ़ाने पर लगा दिया। इसके चलते दलहन और तिलहन के उत्पादन को जो प्रोत्साहन मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। पिछले बीस वर्षों से दलहन के उत्पादन में लगातार गिरावट आ रही है, जबकि इसके विपरीत उसकी मांग बढ़ती जा रही है। इस बढ़ती मांग का एक कारण निर्धन माने जाने वाले वर्ग की आमदनी बढ़ना है। कुछ अर्थशास्त्रियों की दलील है कि दालें पहले निर्धन वर्ग की पहुंच से बाहर रहती थीं, लेकिन अब क्रय क्षमता में वृद्धि के चलते यह वर्ग दालों का उपभोग करने लगा है। यह एक सुखद परिवर्तन है, क्योंकि शाकाहारी लोगों के लिए दालें प्रोटीन का सबसे बड़ा स्रोत होती हैं। अगर दालें देश की एक बड़ी आबादी की थाली से दूर रहेंगी तो इसका सीधा असर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ेगा। बढ़ती मांग भी पिछले दो-तीन वर्षों में दालों की कीमत में वृद्धि का कारण बनी है। शायद हमारे नीति-नियंताओं ने इसका आकलन नहीं किया कि मांग के अनुरूप दालों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए। न तो दलहन के क्षेत्र में पर्याप्त वैज्ञानिक अनुसंधान हुए और न ही किसानों को उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

दलहन के साथ एक समस्या यह रहती है कि इसकी फसल में बहुत जल्दी कीड़े लग जाते हैं, जिसके चलते फसल खराब होने का खतरा हमेशा बना रहता है। इसके अतिरिक्त दालों के भंडारण की जो मौजूदा व्यवस्थाएं हैं, उनमें उपज को बचाने के पर्याप्त उपाय नहीं हैं। दालों की कमी पूरी करने के लिए अभी तक उनका आयात निजी व्यापारी ही करते रहे हैं। जाहिर है कि वे ऐसा करते समय अपने मुनाफे को प्राथमिकता देते हैं। इस बार सरकार खुद दालों का आयात करने जा रही है, लेकिन अभी तक 30 हजार टन दालों का भी आयात नहीं हो सका है, जबकि बफर स्टाक के लिए साढ़े छह लाख टन दालों का आयात करने की जरूरत होगी। सरकार ने पहले घरेलू बाजार से दाल खरीदने की सोची थी, लेकिन इससे दालों के दाम बढ़ने की आशंका थी इसलिए उसे यह इरादा त्यागना पड़ा। यह कहना कठिन है कि सरकार समय रहते दालों का पर्याप्त आयात कर उसका बफर स्टॉक बना सकेगी। एक अन्य उपाय के तहत सरकार ठेके पर खेती के रूप में दूसरे देशों में दालों के उत्पादन पर विचार कर रही है। चूंकि अनेक ऐसे देश हैं जिनमें दालों की खपत भारत के मुकाबले बहुत कम है, इसलिए वहां दालों का उत्पादन किया जा सकता है। लेकिन समस्या यह है कि मौसम की मार से ऐसे देश भी जूझ रहे हैं।

जहां तक टमाटर अथवा अन्य सब्जियों के दामों में वृद्धि की बात है तो इसकी मुख्य वजह कोल्ड चेन का अभाव है। पर्याप्त संख्या में कोल्ड स्टोरेज न होने के कारण किसान के पास सब्जियों को तत्काल बेचने के अलावा और कोई उपाय नहीं रहता और अकसर भरपूर उत्पादन की स्थिति में वे अपनी उपज औने-पौने दामों में बेचने के लिए मजबूर होते हैं। हाल में प्याज के साथ ऐसा ही हुआ।

पिछले कई वर्षों से सरकार यह कोशिश कर रही है कि निजी क्षेत्र कोल्ड चेन का तंत्र मजबूत करने के लिए आगे आए, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। एक तो निजी क्षेत्र पर्याप्त लाभ के प्रति आश्वस्त नहीं है और दूसरे, उसे तमाम तरह की प्रशासनिक अड़चनों की भी चिंता होती है। सब्जियों के भंडारण के लिए उपयुक्त कोल्ड चेन का निर्माण न हो पाने का खामियाजा जनता को महंगाई के रूप में भुगतना पड़ रहा है। सब्जियों के मामले में ऐसा कोई तंत्र भी विकसित नहीं हो पाया है, जिसकी मदद से उन्हें एक राज्य से दूसरे राज्य में भेजने में आसानी हो। अकसर यह देखने में आता है कि किसी एक क्षेत्र में पर्याप्त उपलब्धता के कारण किसी सब्जी के दाम एकदम नीचे गिर जाते हैं, जबकि अन्य जगहों पर वही सब्जी महंगे दामों में बिक रही होती है। फलों अथवा सब्जियों के दामों को नियंत्रित रखने के लिए केवल इतना ही आवश्यक नहीं है कि एक मजबूत कोल्ड चेन की स्थापना की जाए, बल्कि मांग वाले क्षेत्रों में उनकी सुगम आपूर्ति भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

भारत एक विशाल देश है। देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सड़क मार्ग से जाने में ट्रकों को चार-पांच दिन का समय लग जाता है। इतनी अवधि में सब्जियां और फल आम तौर पर खराब हो जाते हैं। इस खतरे से बचने के लिए फलों और सब्जियों को आसपास के क्षेत्रों में ही बेचने की विवशता होती है। शायद यह स्थिति अभी बनी रहनी है। फलों और सब्जियों के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि पर सरकार अधिक से अधिक जमाखोरी पर अंकुश लगाने अथवा वितरण की व्यवस्था में सुधार के कुछ कदम उठा सकती है, ताकि लोगों को तात्कालिक राहत मिले, लेकिन जरूरत तो दीर्घकालिक उपायों की है। उचित यह होगा कि सरकार उत्पादन से लेकर भंडारण और वितरण के पूरे ढांचे को बदलने की दिशा में सक्रिय हो। यह बदलाव पुराने तौर-तरीकों पर अमल से तो नहीं होने वाला।

(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं


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