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न्यूज क्लिपिंग्स् | भारत, नरेंद्र मोदी और गुजरा साल-- आकार पटेल

भारत, नरेंद्र मोदी और गुजरा साल-- आकार पटेल

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published Published on Dec 31, 2015   modified Modified on Dec 31, 2015
2015, उम्मीदों से लबालब होने के साथ कुछ हैरान करनेवाला भी वर्ष रहा. भारतीय क्रिकेट टीम जहां विश्व क्रिकेट के क्षितिज पर एक शक्ति के रूप में उभरी, तो शेयर बाजार लगभग वहीं खड़ा है, जहां वह मई 2014 के अंत में था. वैसे एयर इंडिया, ऊर्जा व परिवहन क्षेत्रों में सरकार की नीतियां रंग लायी. बिहार चुनाव में भाजपा की हार के बीच व्यक्तिगत तौर पर पीएम नरेंद्र मोदी के लिए यह एक अच्छा वर्ष रहा. अलविदा, 2015 की अंतिम कड़ी में आज इन्हीं सब बातों से होंगे रू-ब-रू.

2015 बड़ी उम्मीदों के साथ-साथ थोड़े मोहभंग का भी वर्ष रहा. पिछले तीस वर्षों में पहली बार लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हासिल करते हुए नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही उनसे क्रांतिकारी नीतियां लागू करने की उम्मीदें बांध ली गयी थीं. यह वर्ष कांग्रेस के लिए भी पुनरोत्थान का मौका था और इसी साल यह भी लगा था कि जातियों तथा समुदायों के पारंपरिक आधारों से बढ़ कर नीतियों तथा राजनीति पर मध्यवर्ग के मुद्दे हावी होंगे. आखिर इन उम्मीदों पर गुजरा साल कितना खरा उतरा?

इस वर्ष की बड़ी सफलता को देखें, तो विराट कोहली के आक्रामक नेतृत्व में श्रीलंका तथा दक्षिण अफ्रीका की ताकतवर टीमों को परास्त कर अंततः भारतीय क्रिकेट टीम विश्व क्रिकेट के क्षितिज पर एक शक्ति के रूप में उभर सकी. हालांकि बीसीसीआइ अब भी संकट के दौर से गुजर रहा है, मगर उससे अप्रभावित रहते हुए भारतीय टीम अपनी स्थिरता कायम करने में कामयाब रही.

यदि उन क्षेत्रों को देखें, जहां भारत कोई खास सफलता हासिल नहीं कर सका, तो नरेंद्र मोदी से बड़ी आशाएं लगाये शेयर बाजार लगभग वहीं आ खड़ा हुआ, जहां वह मई 2014 के अंत में था. तब एक डॉलर की कीमत 58 रुपये थी, जो आज बढ़ कर 66 रुपये हो गयी है.

इसी तरह, मनमोहन दशक की 7.75 फीसदी की औसत विकास दर गिर कर आज 7.2 फीसदी पर आ चुकी है और अगले साल इसके और भी घटने की संभावना है. विश्व की सबसे तेज अर्थव्यवस्था होने का भारत का दावा केवल इसी आधार पर सच है कि इसकी गिरावट दर चीनी अर्थव्यवस्था से थोड़ी धीमी है. इस वर्ष के हर माह में निर्यात घटता गया, और जहां तक ‘मेक इन इंडिया' की नीति का सवाल है, यदि आगे इसमें कुछ और जोड़ा न जा सका, तो अब तक यह नाकाम ही रही है. अलबत्ता, परिवहन के क्षेत्र में मोदी को जरूर कुछ सफलता मिली है. सुरेश प्रभु अब तक के बेहतर रेलमंत्री साबित हुए हैं.

एयर इंडिया ने वर्षों बाद परिचालन मुनाफे का मुंह देखा तथा कोयले व ऊर्जा के क्षेत्रों में सरकार की पहलकदमियां रंग लायीं. जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में मोदी ने भारतीय हितों का बचाव करने में काफी अच्छा प्रदर्शन किया.

व्यक्तिगत तौर पर मोदी के लिए यह एक अच्छा वर्ष रहा. उनकी लोकप्रियता ने अपनी ऊंचाई बनाये रखी और देशवासियों का एक बड़ा बहुमत यह मानता रहा कि वह अच्छा काम कर रहे हैं. उनकी स्वीकार्यता दर भाजपा को मिले मतों की दोगुनी से भी ज्यादा है, जो उनकी लोकप्रियता का विस्तार तथा गहराई दर्शाती है. उन्होंने बिहार में चुनाव के दौरान अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल करते हुए जम कर प्रचार किया और उन्हें पराजित करने के लिए लालू, नीतीश तथा कांग्रेस को साथ आना पड़ा.

हालांकि इसे मोदी के लिए एक बड़ा नुकसान माना गया, पर मेरे विचार से तो उन्होंने वास्तव में अच्छा प्रदर्शन किया. उन्होंने भाजपा को 1970 के कांग्रेस में बदल दिया, यानी उसे केवल तभी परास्त किया जा सकता है, जब बाकी सब साथ आ जायें. ऐसा साथ टिकाऊ नहीं हो सकता और भाजपा के मतदाता आश्वस्त रह सकते हैं कि अगले चुनाव में उनकी पार्टी सत्ता में आ सकती है.

मोदी की भारी लोकप्रियता ने यह सुनिश्चित कर दिया कि लोकसभा में उनका सम्मान तथा भय बना रहेगा. विपक्ष ने बुरा प्रदर्शन करते हुए अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने के लिए केवल व्यवधान डालने की नीति अपनायी. यदि मोदी देश का ध्यान पुनः विकास की ओर मोड़ने में सफल रहते हैं, तो फिर मीडिया को कांग्रेस के रवैये के प्रति उतावला होते देर नहीं लगेगी.

गांधी परिवार ने बुरा प्रदर्शन करते हुए अपनी विश्वसनीयता और भी खो डाली. राहुल गांधी ने तो खास तौर पर यह दिखा दिया कि उनमें कांग्रेस के पुनरुत्थान की शक्ति, उत्साह एवं क्षमता नहीं है और जब-तब अस्वस्थ होती सोनिया तथा एक अनिच्छुक प्रियंका का अर्थ यह है कि पार्टी के लिए कोई भी अल्पावधि आशा नहीं बची है.

मोदी राजनीति में कोई गंभीर चुनौती का सामना नहीं कर रहे, पर उनके पुराने वोटबैंक, गुजरात के पाटीदार, जरूर विद्रोही हो गये. इस आंदोलन का ठंडा पड़ जाना मोदी के लिए निश्चित रूप से सकारात्मक रहा. यदि 2016 में मोदी अपने बड़े विधायी परिवर्तनों को लाना चाहते हैं, तो उन्हें बिहार में प्रदर्शित अपना ‘रौद्र रूप' छोड़ कर अधिक समझौतावादी होना होगा.

वे पाक प्रधानमंत्री को गले लगा चुके हैं. यदि वे राहुल के साथ भी वही नीति अपनाते हैं, तो उनकी राह अधिक आसान हो सकती है. कांग्रेस दिवालिया हो चुकी है और वह व्यवधान डालने के सिवा और कोई उपाय नहीं सोच सकती. यह मोदी पर निर्भर है कि वे इस परिस्थिति में किस तरह अपने एजेंडे को पारित करा सकते हैं. अगले साल जब अर्थव्यवस्था और भी गिरेगी, तो अपनी लोकप्रियता अक्षुण्ण रखने के लिए मोदी को इस साल की अपेक्षा और भी बहुत कुछ करना होगा.

(अनुवाद : विजय नंदन)


http://www.prabhatkhabar.com/news/vishesh-aalekh/story/685917.html


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