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न्यूज क्लिपिंग्स् | भोजन बर्बाद करने की इज्जत- अरुण कुमार त्रिपाठी

भोजन बर्बाद करने की इज्जत- अरुण कुमार त्रिपाठी

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published Published on Jul 5, 2012   modified Modified on Jul 5, 2012
जनसत्ता 2 जुलाई, 2012: भोजन की बरबादी को सामाजिक प्रतिष्ठा माना गया है। उत्तर भारत की एक कहानी इस पाखंड को बखूबी बयान करती है। पिता ने अपने पुत्र को समझाया कि जब भी किसी और के घर आयसु (न्योता) खाने जाओ तो थोड़ा-बहुत भोजन छोड़ दिया करो। बेटे ने पूछा, पिताजी ऐसा क्यों? पिता ने समझाया कि बेटा, वह इज्जत है। आयसु खाते समय बेटे को पिता की हिदायत भूल गई। भूख होती ही ऐसी है। उसने परोसे गए भोजन का आखिरी हिस्सा भी खा लिया। जब उसे याद आया तो पिता से बोला- पिताजी, हमने तो इज्जत भी खा ली। पिता नाराज हुए और उसकी पिटाई करने लगे। यह दिखाने के लिए कि हम खाते-पीते घर के हैं या भुक्खड़ नहीं हैं। यह प्रवृत्ति आज भी तमाम समाजों में पाई जाती है। कुछ लोग तो जान-बूझ कर ज्यादा परोसने का आग्रह करते हैं ताकि बाद में इज्जत के तौर पर कुछ छोड़ा जा सके। इस तरह वे आयोजन करने वाले के सामर्थ्य का इम्तहान भी लेते हैं और इसी आदत के चलते आयोजन करने वाला बरबादी का एक अनुमान रख कर भोजन तैयार करवाता है।

अध्ययन और आंकडेÞ बताते हैं कि भारत और अन्य विकासशील देशों के समाजों में यह आदत तो घटी है लेकिन उसे सरकारों ने अपना लिया है। दूसरी तरफ अमेरिका और यूरोप के वे समाज इस पाखंडपूर्ण आदत के शिकार हो गए हैं, जो भारत को चिढ़ाते हुए यह कहते हैं कि यहां के लोग लंबे समय तक भुखमरी के शिकार रहे हैं और इसलिए अब इतना खाने लगे हैं कि उन्हें मधुमेह और मोटापे जैसी बीमारियों ने घेर लिया है। इज्जत के तौर पर अनाज बरबाद करने की हमारी सरकारी आदत के चलते ही इलाहाबाद हाईकोर्ट को खुले में अनाज रखने के खिलाफ इतना सख्त आदेश  देना पड़ा।
हाईकोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को हिदायत दी है कि अनाज को खुले में किसी हालत में न रखा जाए। अगर पर्याप्त भंडारगृह नहीं हैं तो उसके लिए अस्थायी भंडारण का इंतजाम किया जाए। लेकिन अदालत ने इसे महज नैतिक आदेश बना कर नहीं छोड़ दिया है। उसने इसे लागू करने के पुख्ता इंतजाम किए हैं। हाईकोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि सार्वजनिक संपत्ति की बरबादी भारतीय दंड संहिता के तहत एक अपराध है। अगर सरकार के अधिकारी इस तरह का अपराध करते हैं तो आइपीसी के तहत मुकदमा दायर किया जाना चाहिए और इसके लिए आर्थिक अपराध शाखा को मुस्तैद भी किया गया है, ताकि दोषी अफसरों पर मुकदमा किया जा सके और उनकी तनख्वाह से बरबादी की रकम काटी जा सके।

लेकिन बरबादी की आशंका जितने बडेÞ पैमाने पर है उससे साफ लगता है कि हमारी सरकारों ने अनाज के इस नुकसान को, जिसे बरबादी कहना ज्यादा सही होगा, अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है। वरना क्या वजह है कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में 66 लाख टन अनाज खुले में पड़ा है और केंद्रीय खाद्य और आपूर्ति मंत्री केवी थॉमस ने अब और गेहूं खरीद से हाथ खड़े कर दिए हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया है कि अनाज की खरीद को घटाया जाए।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य ने जून के मध्य में ही खरीदारी बंद कर दी है। मध्यप्रदेश में बोरे नहीं मिले तो गेहूं के ढेर वैसे ही पडेÞ हुए हैं। केंद्रीय भंडारण की क्षमता महज 6 करोड़ 40 लाख टन की ही बताई जाती है, जबकि उस भंडार में 8.23 करोड़ टन अनाज पहले से रखा हुआ है। ऐसे में साफ लगता है कि सरकार खुले में अनाज रख कर एक फर्जी आत्मविश्वास और इज्जत का दावा कर रही है। हकीकत में उसे न तो खाद्य सुरक्षा की चिंता है न ही कड़ी मेहनत से पैदा किए गए इस कनक की।

पर अनाज और भोजन बरबाद करके इज्जत बढ़ाने की यह प्रवृत्ति अलग-अलग तरह से पूरी दुनिया में पाई जाती है। यह बात हाल में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तत्त्वावधान में खाद्य और कृषि संगठन के साथ, विश्व बैंक और दूसरी संस्थाओं ने रियो+20 में जारी ‘‘भावी अकाल से कैसे बचें’’ नामक रपट में कही है। यह रपट दुनिया की सरकारों, समाजों और कॉरपोरेट जगत को संवेदनशील बनाने के साथ उनके भीतर एक जिम्मेदारी का भाव पैदा करने की कोशिश करती है। लेकिन उस भाव के पहले एक तरह का अपराध-बोध भी पैदा होना चाहिए। हमारी यूपीए सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक तैयार करने के वादे के बावजूद पिछले तीन साल से टालमटोल कर रही है जबकि हकीकत यह है कि दुनिया में एक तिहाई अनाज या भोजन बदइंतजामी के चलते नुकसान की भेंट चढ़ जाता है या फिर जान-बूझ कर बरबाद कर दिया जाता है।

अनुमान है कि विश्व में सालाना 1.3 अरब टन अनाज या भोजन अलग-अलग कारणों से बरबाद होता है। अमेरिका और यूरोप में भोजन और अनाज की सालाना बरबादी 22.2 करोड़ टन की है, जबकि अश्वेत अफ्रीका के विशाल परिक्षेत्र में महज 23 करोड़ टन अनाज का ही उत्पादन होता है। हमारे यहां यह बरबादी चालीस प्रतिशत के आसपास है।
 
दूसरी तरफ दुनिया के तमाम देशों में हथियारों का जखीरा जमा करने की होड़ मची हुई है। दरअसल, विश्व में खाद्य उपलब्धता और खाद्य सुरक्षा का यथार्थ बेहद कड़वा है। सन 2010 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया में 1.4 अरब लोग मोटापे के शिकार हैं और करीब 92.5 करोड़ लोग कुपोषण के। भारत के सैंतालीस प्रतिशत बच्चे कुपोषण से प्रभावित बताए जाते हैं। वैसे यह संख्या हमारी कुल आबादी में बाईस करोड़ से ज्यादा ही है।

इन स्थितियों के बावजूद अगर भोजन की बरबादी की जा रही है तो हाइकोर्ट की भाषा में उसे राष्ट्रीय संपत्ति या   मानवीय संपत्ति की बरबादी मानते हुए अपराध मानना गलत नहीं होगा। लेकिन जहां अमेरिका और यूरोप में यह बरबादी उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते व्यक्तिगत स्तर पर ज्यादा है वहीं दक्षिण एशिया, अफ्रीका और अन्य विकासशील देशों में सरकारी संस्थाओं की लापरवाही और अक्षमता के चलते। अमेरिका और यूरोप का उपभोक्ता बाजार की तमाम योजनाओं के कारण ढेर सारा खाद्य पदार्थ खरीद लेता है और उपभोग न कर पाने के कारण बाद में उसे फेंकता है। वहां प्रतिव्यक्ति सालाना 280 से 300 किलो भोजन-अनाज बरबाद होता है, जिसमें उपभोक्ता का योगदान 95 से 115 किलो है। जबकि एशिया और अफ्रीका में यह बरबादी प्रतिव्यक्ति 6 से 11 किलो सालाना की है। पर विकासशील देशों में अनाज का नुकसान चालीस प्रतिशत तक है जो कि खेत से शुरू हो जाता है और खलिहान से होते हुए रसोई की थाली तक जारी रहता है।

हम अगर रियो में पेश संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनइपी) की रपट पर गौर करें तो इसमें चेतावनी के साथ सुझाव भी मौजूद हैं। पर वह सुझाव आखिर में वालमार्ट और यूनीलीवर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रयासों पर ज्यादा केंद्रित दिखता है। कहा गया है कि वालमार्ट दस लाख और यूनीलीवर पांच लाख किसानों को जोड़ कर खाद्य संरक्षण की ऐसी शृंखला बनाना चाहती है जिससे अनाज की बरबादी रुके। वे छोटे उत्पादकों पर अपनी निर्भरता बढ़ाना चाहती हैं क्योंकि वे ज्यादा उत्पादन करते हैं और ज्यादा भरोसेमंद होते हैं।

यूएनइपी की इस रपट में हालांकि थोडेÞ विकेंद्रीकरण की बात की गई है लेकिन अनाज उत्पादन और उसके भंडारण में विकेंद्रीकरण के महत्त्व को साफ तौर पर रेखांकित नहीं किया गया है। वजह साफ है कि इस रपट को तैयार करने वाले बाजार और कंपनियों से ही ज्यादा उम्मीद पाले हुए हैं। यही वह नजरिया है जो हमसे खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ लाने और उनसे किसानों के लिए कोल्ड स्टोरेज बनाने की उम्मीद करता है।

लेकिन मौजूदा आंकड़ों और स्थितियों से एक अलग सोच भी निकलता है और उस तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए। राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर अनाज के भंडारण, वितरण और व्यापार ने जहां अकाल की चुनौती का मुकाबला किया था वहीं दंवाई, मड़ाई और भंडारण में होने वाली अनाज की बरबादी ने नए विकल्पों की तरफ सोचने को मजबूर कर दिया है। मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने यह बात जोर देकर कही थी कि भारत में अब अकाल नहीं पड़ सकता क्योंकि वह लोकतांत्रिक देश है, वहां सूचनाएं दबाई नहीं जातीं और वहां अनाज के भंडारण और वितरण की पर्याप्त व्यवस्था है। वहीं कालाहांडी के अकाल पर तीखी टिप्पणी करते हुए किशन पटनायक ने कहा था कि अगर कालाहांडी के उत्पादन को वहां से खरीद कर बाहर न ले जाया जाए और एक प्रकार से वहां बाहरी हस्तक्षेप बंद कर दिया जाए तो वहां की सामान्य स्थिति लौट सकती है। अनाज के केंद्रीय भंडारण और वितरण के विपरीत स्थानीय उत्पादन और उसके भंडारण का यह सिद्धांत आजकल फिर पूरी दुनिया में चर्चा में है।

यह बात बार-बार कही जा रही है कि एकल फसल उगाने की संस्कृति ने गांवों और स्थानीय इलाकों, यहां तक कि देशों की आत्मनिर्भरता को खत्म किया है। हम गेहूं और चावल जितना निर्यात करते हैं उससे कम दाल और तेल का आयात नहीं करते। उससे भी बड़ी बात यह है कि अनाज, फल और सब्जियों को दूर तक ले जाने में परिवहन और रखरखाव पर जो धन और ऊर्जा का खर्च आता है वह उसके उत्पादन के मुनाफे को बेकार कर देता है।

भोजन और अनाज की बरबादी और खुदरा क्षेत्र में बढ़ते विदेशी निवेश की बढ़ती चुनौती और विरोध के बीच अर्थशास्त्री प्रोफेसर कमल नयन काबरा ने किसानों के उत्पादों को स्थानीय स्तर पर संरक्षण देने की एक योजना तैयार की है। उनका मानना है कि अगर सरकार और सहकारिता इकाइयां किसानों के लिए गांव, ब्लाक और जिले के स्तर पर कोल्ड स्टोरेज तैयार करें और उसमें किसानों के मौसमी और जल्दी खराब होने वाले उत्पादों का संरक्षण किया जाए तो इससे चौतरफा फायदा होगा। एक तो किसानों को भंडारण के बदले बांड देकर उन्हें कर्ज दिलाने का इंतजाम किया जा सकता है और दूसरी तरफ सीजन की कम कीमत की मार से भी बचाया जा सकता है।

अनाज की बरबादी को अपनी इज्जत मान चुकी हमारी तमाम सरकारों को खेती और गांव के बारे में इन योजनाओं पर विचार करना चाहिए। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और भावी अकाल से बचने के लिए ऐसी योजनाएं काफी कारगर हो सकती हैं।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/23188-2012-07-02-05-33-03


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