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न्यूज क्लिपिंग्स् | मंशा नेक पर अभी तो मुमकिन नहीं - सुषमा रामचंद्रन

मंशा नेक पर अभी तो मुमकिन नहीं - सुषमा रामचंद्रन

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published Published on Dec 10, 2015   modified Modified on Dec 10, 2015
चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास 'अ टेल ऑफ टू सिटीज" की मशहूर पंक्तियां हैं : 'वह सबसे बेहतरीन दौर था, लेकिन वह सबसे बदतर भी था।" दिल्ली सरकार के सम-विषम फॉर्मूले के परिप्रेक्ष्य में हम डिकेंस के इस संवाद को बदलकर यूं भी कर सकते हैं कि 'वह एक बेहतरीन विचार था, लेकिन वह बदतर भी था!" हां, यह जरूर है कि दिल्ली सरकार के इस निर्णय के बाद इस महानगर पर प्रेतछाया की तरह मंडराने वाला प्रदूषण का कुहासा हाल-फिलहाल तो कुछ हद तक छंट जाएगा। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को इस विचार की प्रेरणा बीजिंग से मिली है, लेकिन दिल्ली बीजिंग नहीं है। इन मायनों में यह विचार भयानक तरीके से गलत भी साबित हो सकता है, क्योंकि हमारे पास सार्वजनिक परिवहन की वैसी सुविधाएं ही नहीं हैं कि वे निजी वाहनों का त्याग करने वालों की दैनिक जरूरतों की पूर्ति कर सकें।

वास्तव में सच्चाई तो यह है कि आज अगर दिल्ली या देश के किसी भी अन्य शहर में लोग निजी वाहनों को प्राथमिकता देना पसंद करते हैं तो उसका कारण लोक परिवहन के साधनों का भीषण अभाव ही है। हां, यह जरूर है कि दिल्ली मेट्रो के प्रारंभ होने के बाद दिल्लीवासियों को लोक परिवहन की एक बहुत बड़ी सुविधा मिली है और यह सेवा उनके लिए किसी वरदान से कम नहीं है, इसके बावजूद यह काफी नहीं है। शहर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए पर्याप्त बसें ही उपलब्ध नहीं हैं। पिछले कुछ सालों में न केवल दिल्ली की आबादी में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है, बल्कि रोजगार की तलाश में आसपास के इलाकों से आने वाले लोगों की संख्या में भी खासा इजाफा हुआ है। इतने लोगों की रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति करना कोई आसान चुनौती नहीं है।

वास्तव में यह एक दीर्घकालिक समस्या है और दुनियाभर के देशों में इसके अलग-अलग समाधान खोजे गए हैं। मिसाल के तौर पर चीन में एक शहर से दूसरे शहर जाना ही बेहद कठिन बना दिया गया है। अपनी शंघाई यात्रा के दौरान मुझे बताया गया था कि इस बेहद समृद्ध शहर में रोजगार के लिए प्रवेश करने वालों को सीमा पर ही रोक लिया जाता है और अगर यह पाया जाता है कि उनमें अपने काम के लिए जरूरी कौशल का अभाव है तो उन्हें उल्टे पैर वापस लौटा दिया जाता है।

जाहिर है, भारत जैसे देश में ऐसा कर पाना संभव नहीं है। इससे बेहतर तो यही होगा कि स्थानीय ग्रामीण-कस्बाई क्षेत्रों में रोजगार के अवसर निर्मित किए जाएं, ताकि लोगों को रोजी-रोटी के लिए पलायन करने को मजबूर न होना पड़े। विभिन्न् सरकारों द्वारा इस दिशा में वादे जरूर किए जाते रहे हैं, लेकिन ठोस रूप से कुछ किया नहीं गया। इसी का नतीजा है कि दिल्ली जैसे महानगर रोजगार के लिए पलायन करके आने वाले लोगों से खचाखच भर चुके हैं और अनियोजित शहरीकरण और बेतरतीब बसाहटों के कारण उसका नागरिक ढांचा चरमरा गया है।

परिवहन समस्याएं और वाहनों से होने वाला प्रदूषण इस बड़ी तस्वीर का ही एक पहलू है। केजरीवाल सरकार के सम-विषम फॉर्मूले से इतना तो होगा ही कि जानलेवा प्रदूषण पर कुछ हद तक लगाम लग सकेगी। इससे पहले बीजिंग और सिंगापुर में इसे आजमाया जा चुका है, लेकिन अमूमन इस प्रणाली का उपयोग आपातकालीन व्यवस्था के तौर पर तात्कालिक रूप से किया जाता है। मिसाल के तौर पर, बीजिंग में किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय आयोजन से पूर्व। दिल्ली में एक दीर्घकालिक समस्या के अल्पकालिक निदान के रूप में यह कितना प्रभावी हो सकेगा, तय नहीं है।

दिल्ली सरकार की मंशा भी फिलवक्त तो यही है कि अल्पकालिक तौर पर ही इस फॉर्मूले का प्रयोग किया जाए, लेकिन कम समय में भी यह दिल्लीवासियों के लिए खासी मुसीबतें खड़ी कर सकता है। अव्वल तो कार्यक्षमता का संकट है। दिल्ली पुलिस का कहना है कि उसके पास केवल 6000 पुलिसकर्मी हैं और उनमें से भी लगभग 30 प्रतिशत वीआईपी ड्यूटी पर तैनात रहते हैं। 30 प्रतिशत अन्य पुलिसकर्मी यातायात संबंधी ड्यूटियों पर लगाए जाते हैं। ऐसे में दिल्ली पुलिस के लिए यह व्यावहारिक रूप से लगभग असंभव होगा कि गलत नंबर वाले हर वाहन को रास्ते में ही रोक दे। ध्यान दिया जाना चाहिए कि आज दिल्ली मे कोई 90 लाख वाहन मौजूद हैं और इनमें से 44 लाख वाहन रोज सड़कों पर होते हैं।

दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि अगर लोग निजी वाहनों का उपयोग नहीं करेंगे तो इतने बड़े शहर में परिवहन कैसे करेंगे? दिल्ली के मौजूदा ट्रैफिक के सुनियोजन के लिए उसका बस नेटवर्क नाकाफी है। दिल्ली मेट्रो का तेजी से विस्तार जरूर हो रहा है, लेकिन इसके बावजूद पीक ऑवर्स के दौरान मेट्रो ओवर क्रॉउडेड रहती हैं। अगर किसी तरह इसका सुनियोजन भी कर लिया गया तो जो लोग शारीरिक रूप से अक्षम होने के बावजूद रोज काम करने जाते हैं, उनका क्या होगा? आपातकालीन चिकित्सा की जरूरत होने पर सम-विषम के फेर में लोग अस्पताल तक कैसे पहुंचेंगे? यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह की आपातकालीन परिस्थितियों में लोग आज भी एंबुलेंस के बजाय निजी वाहन से ही अस्पताल जाना पसंद करते हैं। इतना ही नहीं, इस निर्णय से कारों की बिक्री में उल्टे और इजाफा भी हो सकता है, क्योंकि सक्षम लोग भिन्न् नंबर की एक और कार खरीदकर अपनी रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति करने की कोशिश कर सकते हैं।

इसका यह मतलब नहीं कि ये योजना कामयाब नहीं हो सकती, लेकिन इसके लिए पहले खासी तैयारी करने की जरूरत है। संबंधित अधिकारियों को इस तरह की योजना के संचालन के लिए अंतरराष्ट्रीय मानकों को सीखने-समझने की जरूरत होगी। 'कार पूलिंग" की संस्कृति को भी विकसित करने की जरूरत है, जिसमें एक गंतव्य पर आने-जाने वाले लोग एक ही कार को दूसरों के साथ शेयर करते हैं। इसके लिए बड़ी लेकिन खाली कारों के बजाय भरी हुई कारों को सड़कों पर प्रोत्साहन दिए जाने की जरूरत है। लेकिन सबसे अच्छा तो यही होगा कि लोक परिवहन के साधनों को दुरुस्त किया जाए। अगर मेट्रो शहर की जीवनरेखा बन चुकी है तो मेट्रो स्टेशनों तक सुगम पहुंच की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। जहां तक पुलिस व्यवस्था का सवाल है तो अब वीआईपी ड्यूटी में लगे पुलिसकर्मियों को उनके वास्तविक काम पर लगाए जाने की जरूरत है।

अगर दिल्ली हफ्ते में दो दिन भी 'कारमुक्त" रहे तो इससे उसके प्रदूषण के स्तर में 30 से 60 फीसदी की गिरावट दर्ज की जा सकती है। दुनिया के अनेक शहरों में इसी तर्ज पर निजी वाहनों के बजाय लोक परिवहन के साधनों को तरजीह दी जाने लगी है। ऐसे में हमारे यहां ऐसी संस्कृति क्यों नहीं विकसित की जा सकती? बहरहाल, दिल्ली सरकार की मंशा भले ही नेक हो, इस योजना को लागू करने से पहले तो यही बेहतर होगा कि वह अच्छे-से ठोक-बजाकर पूरी तैयारी कर ले।

(लेखिका आर्थिक मामलों की वरिष्ठ विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं

 


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