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न्यूज क्लिपिंग्स् | मक्के की खेती और पर्यावरण-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

मक्के की खेती और पर्यावरण-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

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published Published on Dec 14, 2017   modified Modified on Dec 14, 2017
बिहार के गांवों में मक्के की फसल लहलहा रही है. मेरा एक मित्र विदेश में रहता है, वह इस हरियाली को देखकर अभिभूत हो गया. यह सच है कि आप यदि इस समय बिहार के गांवों में जायें, तो मक्के की खेती देखकर अापका मन भी प्रसन्न हो जायेगा.

खासकर बिहार के सबसे गरीब जिले, जैसे- कटिहार, पूर्णिया, किसनगंज, अररिया, आदि में भी हाल के दिनों में मक्का रखने के लिए बड़े-बड़े गोदाम का निर्माण करवाया गया है. सुना है कि कटिहार में तो अडानी जैसा बड़ा पूंजीपति भी आधुनिक किस्म का गोदाम बनाने के लिए जमीन खरीद चुका है. इसमें कोई शक ही नहीं कि मक्के की खेती से यहां के किसानों की आमदनी बढ़ गयी है.

लेकिन, बढ़ती आमदनी के साथ ही यह समय इस खेती को लेकर सचेत होने का भी है. पंजाब की हरित क्रांति का नतीजा हम देख चुके हैं. खाद और दवाइयों के अंधाधुंध उपयोग ने खेतों की उर्वरा शक्ति को बेहद घटा दिया है. जमीन से बेहिसाब पानी निकालने के कारण जलस्तर नीचे चला गया है.

खेती फायदेमंद तो नहीं ही रह गयी है, वहीं ऐसी खेती से पर्यवारण का संकट भी पैदा हो गया है. पंजाब के कुछ इलाकों में तो पीने के पानी में इतना जहर घुल गया है कि अब वह जानवरों के भी पीने लायक नहीं रहा है. अपनी ओर हवा में जहरीली दवाओं के कारण अनेक तरह की बीमारियां होने लगी हैं. बठिंडा से बीकानेर तक चलनेवाली एक ट्रेन का नाम ही ‘कैंसर ट्रेन' हो गया है. इसमें लोग बीकानेर के आचार्य तुलसी कैंसर संस्थान में इलाज करवाने जाते हैं. शायद ही कोई घर है, जिसमें कैंसर का मरीज नहीं है.

क्या बिहार में इस संभावना से इनकार किया जा सकता है?

इसी तरह चिंता की बात यह भी है कि मक्के के खेती में खर्च बहुत ज्यादा है. हाईब्रिड बीज से लेकर, खाद और महंगी पोषक दवाइयों के साथ-साथ महंगे कीटनाशक तक में किसानों को बहुत ज्यादा खर्च करना पड़ता है. ट्रैक्टर से जुतायी और कंबाइन हार्वेस्टर से कटाई के लिए भी वे बाजार पर निर्भर रहने लगे हैं. ऐसे में इस तरह की खेती की लागत बहुत ज्यादा है.

इसके लिए ज्यादातर किसान या तो बैंक से कर्ज लेते हैं या फिर किसी से उधार लेते हैं.दोनों ही हालात में यदि फसल की कीमत ठीक नहीं मिली या मौसम के चलते फसल बर्बाद हुई, तो फिर उनके गहरे संकट में पड़ जाने की संभावना बनी रहती है. उदाहरण के लिए इस बार सीमांचल में बाढ़ के कारण बहुत से गोदामों में पानी भर गया और बड़े पैमाने पर मक्का सड़ गया.

बाढ़ के चलते फसल बोने में भी देर हुई और इसका असर उपज पर पड़ना लाजिमी है. इसी तरह बाजार के उतार-चढ़ाव का भी विपरीत असर किसानों पर पड़ने की संभावना रहती है. पिछली बार मक्के की कीमत सत्रह सौ रुपये प्रति क्विंटल तक हो गयी थी, तो इस बार बारह सौ से ऊपर जाना मुश्किल लगता है. ऐसे में बढ़ती लागत और घटती कीमत के कारण भी कर्ज के चक्रव्यूह में फंसने का डर लगा रहता है.

इन इलाकों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जोरदार तरीके से बाजार तलाशना शुरू किया है. दुनिया के जिन हिस्सों में भी उनका प्रभाव बढ़ा है, वहां की राजनीति, पर्यावरण और सामाजिक समस्याओं पर उसका असर पड़ा है. सबसे पहले तो बाजार की खामियां यहां आने लगती हैं और समाज में एक तरह का बाजारूपन आता है. सामाजिक रिश्ते कमजोर पड़ने लगते हैं. पंजाब में भी ऐसा ही हुआ और कई लैटिन-अमेरिकी देशों में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है.

उनकी बाजार बढ़ाने की तकनीक कुछ ऐसी है कि उसमें शराब और अन्य उपायों से मार्केटिंग नेटवर्क बनाया जाता है. और वहां इसका एक तरह का सांस्कृतिक असर भी होता है. फिर पर्यावरण में आ रही समस्याओं को मुखर रूप से सामने लाने के प्रयास को रोकने की कोशिश की जाती है. यह काम बड़े पैमाने पर पंजाब में भी देखा जाता है.

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार को किसानों के हित के लिए सचेत होने की जरूरत है. एक तो सरकार को अभी से ही एक विशेषज्ञ दल को इस तरह की खेती के साइड इफेक्ट पर शोध करने के लिए लगाना चाहिए, ताकि इन खतरों से बचा जा सके. बाजार में सुधार की भी जरूरत है.

सरकारी कीमत को लागत के साथ तालमेल बिठाकर तय किया जाये, ताकि उसका अनुपात कुछ ऐसा हो कि जिन किसानों को उपजते ही फसल बेचने की जरूरत हो, उन्हें कुछ लाभ हो सके. फसल बीमा को लागू किया जाना चाहिए. लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण बात यह होगी यदि उपज की मात्रा को बरकार रखते हुए कुछ प्राकृतिक खाद और कीटनाशक के प्रयोगों पर जोर दिया जा सके. प्राकृतिक जीरो बजट खेती के प्रयोग को यदि इस क्षेत्र के लिए उपयोगी बनाने पर कुछ शोध किया जा सके और सरकार उसमें सक्रिय भूमिका निभाये, तो किसानों के लिए सुरक्षा कवच बनायी जा सकती है.

इसके अलावा नदियों पर बने बहुत से तटबंधों पर पुनर्विचार करना चाहिए. तटबंधों के कारण जिन इलाकों में पानी नहीं जा पाता है, वहां भूतल के जल स्तर को रीचार्ज करने का कोई कारगर तरीका नहीं है.

इससे भारी जल संकट की संभावना हो सकती है. पहले के जमाने में बिहार के गांवों में, खासकर उत्तरी बिहार में, नदियों का एक जाल हुआ करता था. उनमें से ज्यादातर नदियां या तो उथली हो गयी हैं या फिर वे मर सी गयी हैं. उनको पुनर्जीवित करने का फायदा यह हो सकता है कि बाढ़ के बाद इन खेतों से जहरीली दवाओं को बड़े पैमाने पर ये नदियां बहाकर ले जा सकती हैं. एक तरह से फिल्टर का काम संभव होगा.
इन सभी विषयों पर खूब शोध करके किसानों के लिए आसन्न संकट से बचने का उपाय किया जाना राज्य का दायित्व है. अभी तक बिहार केवल कुछ माल ही बाहर भेजता है. बड़े पैमाने पर बिहार का मक्का पंजाब और बांग्लादेश भेजा जाता है.

क्या यह संभव है कि बिहार में ही उनको प्रोडक्ट के रूप में तैयार कर बाजार में भेजा जाये. जरूरी नहीं है कि इसके लिए बड़े उद्योग ही लगाये जायें, बल्कि गृह उद्योगों के रूप में इसे कैसे विकसित किया जाये, इस पर भी विचार करने की जरूरत है. इन सबके लिए सरकार को अपने रुख में परिवर्तन लाने की जरूरत होगी. साथ ही इसके लिए सामाजिक और तकनीकी शोध पर खर्च करना पड़ेगा. पंजाब की समस्याओं से बिहार को सबक लेने की जरूरत है.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1098017.html


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