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न्यूज क्लिपिंग्स् | राशन पर सरकारी डाका -- प्रशांत कुमार दुबे

राशन पर सरकारी डाका -- प्रशांत कुमार दुबे

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published Published on Jul 14, 2011   modified Modified on Jul 14, 2011
सरकार अब राशन में खाद्यान्न की जगह नकद भुगतान करने जा रही है. इसका पायलट फेज दिल्ली की दो बस्तियों में प्रारंभ भी कर दिया गया है. सरकार के इस कदम के बाद यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकार अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता को भी समाप्त करने की कोशिश कर रही है. हालांकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कमजोर करने की साजिश तो वर्ष 1991 के बाद से ही शुरु हो गई थी, जब ‘एलपीजी’ युग यानी लिब्रलाईजेशन, प्राईवेटाईजेशन और ग्लोबलाईजेशन की शुरुवात हुई. नवउदारवाद के इस दौर ने तेजी से मनुष्य को एक इकाइ भर में बदलना शुरु कर दिया.
पीडीएस

राशन व्यवस्था में पहला बड़ा हमला 1991 से 1994 के बीच तक हुआ, जब यहां से मिलने वाले राशन की कीमतें दुगुनी की गई और उसके बाद मिलने वाले खाद्यान्न में कटौती की जाने लगी. औपचारिक रूप से जून 1997 में इसके लक्षित किये जाने की रस्म अदायगी हो गई. इसके बाद सरकार ने समाज को दो हिस्सों में बांट दिया. एक गरीबी रेखा के ऊपर और एक गरीबी रेखा के नीचे. सरकार ने हाथ खींचने की कवायद यहीं से प्रारंभ की.

आज एक बार फिर से इस व्यवस्था पर संकट गहराना शुरु हुआ है. एक ओर पूरे देश में राशन की दुकानों के सार्वभौमिकीकरण की बहस जोर पकड़ रही है और प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक में इसे शामिल करने की बात की जा रही है लेकिन दूसरी ओर सरकार पिछले दरवाजे से इसमें सेंधमारी कर रही है.

इतिहास
भारत में राशन व्यवस्था का इतिहास सन् 1939 से शुरु होता है. इस वर्ष सरकार ने खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर बम्बई में अनाज के वितरण की व्यवस्था शुरु की थी. इसके बाद सन् 1956 में खाद्य विभाग की स्थापना होने के साथ ही वर्तमान व्यवस्था की नींव पड़ी.

इसके अंतर्गत पूरे देश में सरकारी राशन दुकानों का जाल बिछाया गया. आज की तारीख में इन दुकानों की संख्या 4.78 लाख है. आज देश में होने वाले कुल उत्पादन 230 लाख टन में से सरकार महज 20 से 25 प्रतिशत अनाज की ही खरीदी करती है. इसमें से भी केवल 18 प्रतिशत ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली से वितरित होता है.

रंगराजन समिति इस बात से चिंतित है कि अनाज का कारोबार करने वाली कम्पनियों का क्या होगा? परंतु वह भूख और कुपोषण के शिकार लोगों या आत्महत्या कर रहे किसानों के बारे में कतई चिंतित नहीं है.

जनवितरण प्रणाली के साथ सबसे बड़ी समस्या हितग्राहियों की पहचान की है. कई गरीब परिवारों के पास राशनकार्ड ही नहीं हैं. सरकार के प्रत्येक सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि बीपीएल परिवारों की पहचान और अपात्रों को बाहर करने के काम में भारी खामियां हैं. सरकार द्वारा बनाई गई समितियां जैसे तेंदुलकर समिति व सक्सेना समिति अगल-अलग आंकडे़ प्रदर्शित करती हैं और योजना आयोग इससे भी अलग अपनी ही कहानी कहता है.

कड़वे अनुभव
दूसरी ओर सरकार को लगता है कि अनाज बांटने के बजाय लोगों के बैंक खाते में सीधे रकम हस्तांतरण कर देने से सारी समस्यायें हल हो जायेंगी और इससे लीकेज भी नहीं होगा.

हमारे पास सरकार के अति महत्वाकांक्षी कार्यक्रम सामाजिक सुरक्षा पेंशन का उदाहरण है. बैंक खाते खोलने में परेशानी, बैंक तक उनकी पहुंच और बैंक खातों में रकम के सीधे हस्तांतरण के बावजूद बिचैलियों की मौजूदगी और रकम प्राप्त करने में देरी आदि अपनी कहानी आप कहते हैं. मनरेगा जैसी योजनाओं में भी बैंकिंग प्रणाली में भ्रष्टाचार और लेट-लतीफी के मामले लगातार सामने आते रहे हैं.

यदि सरकार ने अनाज के बदले नकद हस्तांतरण किया भी तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सरकार से मिला नकद धन अनाज खरीदने में ही इस्तेमाल किया जाएगा. हम सभी जानते हैं कि गरीब परिवार अक्सर कर्ज के जाल में घिरे होते हैं और उन्हें अपनी घरेलू आवश्यकताओं के लिए नकद धन की हमेशा जरूरत बनी रहती है. अतएव इस बात की प्रबल संभावना है कि वे इस धन का उपयोग खाद्यान्न खरीदने के बजाय दूसरी चीजों में करेंगे. इसका सबसे विपरीत प्रभाव महिलाओं पर पड़ेगा, जिन पर अपने और परिवार के लिए भोजन उपलब्ध कराने का जिम्मा होता है. सरकार के इस प्रस्ताव के प्रति रुझान को सीधे-सीधे निजीकरण की ओर बढ़ते कदम के रूप में देखा जाना चाहिए.

सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर हमला इसलिए भी किया जा रहा है क्योंकि इस प्रणाली के लागू होने के बाद देश के 30 करोड़ यानी 30 फीसदी आबादी को बाजार से खाद्यान्न खरीदना होगा यानी सब कुछ बाजार के हवाले हो जायेगा. फसल के हर मौसम में सरकार जो अनाज (1.4 लाख टन) समर्थन मूल्य पर खरीदती है वह नहीं खरीदेगी और किसान को अपनी फसल औन-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को बेचना पड़ेगी यानी वह भी बाजार के हवाले हो जायेगा.

कारपोरेट पर मेहरबानी
सरकार कहती है कि खाद्यान्न में सब्सिडी बढ़ रही है और उसकी पूर्ति कर पाना मुश्किल हो रहा है. लेकिन सरकार यह बताना क्यों भूल जाती है कि उसने वर्ष 2004 से लेकर अभी तक 22 लाख करोड़ रुपये की टैक्स माफी उन कंपनियों को दी है जिनमें से अधिकांश गरीबों का खून चूस रही हैं. क्या इसका एक चैथाई हिस्सा भी भूख और कुपोषण से मुक्ति के लिये खर्च नहीं किया जा सकता है?

भोजन के अधिकार अभियान का मानना है कि पीडीएस व्यवस्था में नकदी देने का कोई तुक ही नहीं है. सरकार को यदि अपना लीकेज का या परिवहन का भार कम भी करना है तो उसे सरकारी गेहूं की अधिकांश खरीदी पंजाब-हरियाणा से व चावल की खरीदी आंध्रप्रदेश से ना करके विकेन्द्रित खरीदी-वितरण व्यवस्था को अपनाना चाहिए.

भारत के संविधान का अनुच्छेद 47 यह कहता है कि राज्य का यह प्राथमिक दायित्व है कि वह लोगों के स्वास्थ्य, पोषण और जीवनस्तर को उठाने का प्रयास करे और इसी की पूर्ति के लिये राशन व्यवस्था लागू की गई थी. इस पूरे कारनामे को हमें विश्व बैंक की ताजातरीन रिपोर्ट के हवाले से भी देखना होगा.

विश्व बैंक ने योजना आयोग के कहने पर ‘‘बदलते भारत में सामाजिक सुरक्षा’’ विषय पर अपनी एक रिपोर्ट तैयार की है . इस रिपोर्ट में विश्व बैंक ने ग्यारह प्रमुख योजनाओं का पोस्टमार्टम किया है. रिपोर्ट कहती है कि इन योजनाओं में से सबसे ज्यादा गड़बडियां राशन व्यवस्था में हैं, जिसके लाभ से करीब उनसठ फीसदी लोग वंचित हैं. ग्रामीण इलाकों में महज तीन फीसदी और शहरी क्षेत्रों में दो फीसदी गरीब परिवारों तक इस योजना का अनाज पहुंच पाता है.

रिपोर्ट यह भी कहती है कि जब इतने बड़े पैमाने पर लोगों को लाभ नहीं मिल पा रहा है तो स्वभावतः लीकेज हो रहा है. रिपोर्ट इस तरह की व्यवस्थाओं में फिर नवाचारों की बात भी करती है. सरकार अब इस रिपोर्ट का हवाला देगी और नवाचार के नाम पर राशन दुकानों से खाद्यान्न के बजाय नकदी देने का फार्मूला अपना लेगी.

आज जबकि दुनिया के भूखे लोगों में हर पांचवां व्यक्ति भारतीय है, देश के पैंतालीस फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हैं तथा 56 फीसदी महिलायें खून की कमी का शिकार हैं ऐसी विपरीत स्थिति में इस वंचित समूह के खिलाफ एक और सरकारी साजिश रची जा रही है, जिसे गरीबों के राशन पर सरकारी डाके की संज्ञा दी जा सकती है.


http://raviwar.com/news/557_pds-public-distribution-system-prashant-dubey.shtml


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