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न्यूज क्लिपिंग्स् | लेनदेन में ओबामा ने मारी बाजी - नंटू बनर्जी

लेनदेन में ओबामा ने मारी बाजी - नंटू बनर्जी

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published Published on Jan 29, 2015   modified Modified on Jan 29, 2015
वे आए, उन्होंने देखा, और उन्होंने तकरीबन सबकुछ जीत लिया। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस बार अपने मन में एक सुनिश्चित लक्ष्य लेकर आए थे और वे उसे पूरा करने में कामयाब रहे। वे अमेरिका के परमाणु संयंत्र और उपकरण प्रदाताओं को परमाणु उत्तरदायित्व से मुक्त कराना चाहते थे, वे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन पर अंकुश लगाने के लिए भारत को अपना सामरिक सहयोगी बनाना चाहते थे और साथ ही भारत को अपने हथियार भी बेचना चाहते थे। अगर ओबामा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साझा वक्तव्य को पढ़ें तो हम पाएंगे कि ओबामा अपने सभी लक्ष्यों को अर्जित करने में कामयाब रहे। गणतंत्र दिवस समारोह की मनमोहक और लुभावनी प्रस्तुतियां भी अपने लक्ष्य से उनका ध्यान डिगा नहीं सकीं।

निवेश के लिए तरसते भारत के लिए भी ओबामा की इस यात्रा ने कई उम्मीदें जगाई हैं। अमेरिका की एनर्जी सेक्टर की भारी-भरकम कंपनियों जीई, वेस्टिंगहाउस और हितिची (अमेरिका में पंजीबद्ध जापानी परमाणु रिएक्टर निर्माता कंपनी) द्वारा भारत में अरबों डॉलर का निवेश करने का रास्ता साफ हो गया है। वे पूर्वी और पश्चिमी समुद्री तटों पर स्थित भारतीय परमाणु संयंत्रों में पैसा लगाएंगी। अलबत्ता इस बात की संभावना बनी हुई है कि वे शायद अपने लिए और सहूलियतों की मांग करें। सीईओज मीट के दौरान भारत ने अमेरिकी कंपनियों को यह आश्वासन देने की हरसंभव कोशिश की कि अगर वे भारत में बिजनेस करना चाहते हैं तो उन्हें इसमें कोई दिक्कतें नहीं आएगी। भारत को उम्मीद है कि अपने रक्षा उत्पादन के लिए उसे अमेरिका के सैन्य उपकरण निर्माताओं से अच्छा निवेश मिलेगा।

इलेक्ट्रॉनिक सेक्टर में तो भारत ने अमेरिकी निवेशकों को लगभग 25 फीसद तक रिटर्न का वादा किया है। इस लुभावने प्रस्ताव को नजरअंदाज करना निवेशकों के लिए कठिन होगा। भारत ने यह भी वादा किया है कि अमेरिका के निवेश प्रस्तावों की निगरानी स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) द्वारा की जाएगी। यह अपने आपमें एक अभूतपूर्व प्रस्ताव है, लेकिन एक मायने में यह देश की नौकरशाही की जकड़बंदियों को स्वीकार करने की तरह भी है, जिसके चलते खुद पीएमओ को इसकी जिम्मेदारी संभालना पड़ रही है। प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी मेक इन इंडिया कार्यक्रम के मद्देनजर यह विडंबनापूर्ण ही था कि अमेरिका ने भारत के सामने एक अरब डॉलर की वित्तीय सहायता की पेशकश रखी, ताकि भारत 'मेड इन अमेरिका" उत्पादों को खरीद सके!

फिर भी वादे तो महज वादे ही होते हैं। वे चाहे जितने लुभावने क्यों न लगें, उन्हें यथार्थ के धरातल पर उतरने में समय लगता है। यह महज चंद हफ्तों या महीनों में नहीं हो जाएगा कि अमेरिकी कंपनियां अपनी परियोजनाएं स्थापित करने के लिए दौड़ी-दौड़ी भारत चली आएंगी। लेकिन वादों से होने वाले नुकसान समय का इंतजार नहीं करते। यही कारण था कि भारत-अमेरिका की नजदीकियों को चीन ने अपने सामरिक हितों के लिए खतरा माना और उसने अपने ऐतराज जता भी दिए। चीन ने अपनी समुद्री सीमाओं को लेकर 'बाहरी हस्तक्षेप" का जो हवाला दिया, उसे हलके में नहीं लिया जा सकता। चीन ने परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में बतौर सदस्य भारत की स्वीकार्यता के लिए परमाणु अप्रसार संधि पर भारत के हस्ताक्षर किए जाने के अब तक के उपेक्षित मसले को भी उठाया। हालांकि रूस ने अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने साझा वक्तव्य में ओबामा ने यूक्रेन के मसले को लेकर जिस तरह से रूस पर निशाना साधा, उससे रूस भड़क सकता है। लेकिन चीन के उलट रूस ने इस मामले में चुप रहना ही बेहतर समझा।

अब जब ओबामा की यात्रा को लेकर निर्मित अति-उत्साह का वातावरण समाप्त हो गया है, भारत को यह सुनिश्चित करने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ेगी कि अमेरिकी परमाणु, प्रतिरक्षा और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण निर्माता कंपनियां अगले छह माह में भारत पहुंचकर अपनी परियोजनाओं पर काम शुरू कर दें और प्रस्तावित स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में सहभागिता करें। दुनिया में अमेरिका की ख्याति एक 'हार्ड बार्गेनर" की है। वास्तव में ओबामा की यात्रा से भी एक बार फिर यह जाहिर हुआ कि अमेरिका को कम से कम देकर ज्यादा से ज्यादा हासिल करने के खेल में महारत हासिल है। मसलन, भारतीय पेशेवरों के लिए जॉब वीजा कोटा बढ़ाने की भारत की मांग को अमेरिका ने शांति से सुना जरूर, लेकिन उस पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी। दूसरी तरफ अमेरिका खुद अपने उद्योगों के लिए अधिक पेटेंट सुरक्षा की मांग कर रहा है। साथ ही वह भारत के ई-कॉमर्स, संगठित खुदरा व्यापार और कृषि के क्षेत्र में अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए भारत से अपनी एफडीआई नीति और व्यापार प्रतिबंधों को बदलने का भी आग्रह कर रहा है।

लेकिन अब जब प्रधानमंत्री ने अमेरिकी कंपनियों को भारत में निवेश करने के लिए पूर्ण सहयोग और समर्थन का आश्वासन दे दिया है तो बहुत संभव है कि भारत ओबामा यात्रा के दौरान निर्मित हुई सहमतियों से आगे बढ़कर अमेरिका की दूसरी मांगें भी मान ले। इसका भारत के आर्थिक आत्मनिर्भरता के लक्ष्यों पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि अगर आज दुनिया में चीन की धाक जमी हुई है तो वह उसके स्वयं के उत्पादों के दम पर है, चीन में किए गए निवेश के आधार पर नहीं। वास्तव में अगर अमेरिका ने समिट के दौरान ही अपनी तमाम मांगें सामने नहीं रख दीं तो उसका कारण यही था कि वह कदम-दर-कदम आगे बढ़ना चाहता है। समिट के दौरान परमाणु और रक्षा सौदों को ही सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई, जो कि स्वाभाविक ही था। याद रहे कि भारत के परमाणु और रक्षा कार्यक्रमों में रूस का खासा योगदान रहा है और अब जब भारत दुनिया के सबसे बड़े सैन्य उपकरणों के आयातक देश के रूप में उभर चुका है और उसका ऊर्जा उत्पादन कार्यक्रम भी बेहद महत्वाकांक्षी है तो ऐसे में अमेरिका रूस के सामने हार कैसे मान सकता है?

जहां तक अंतरराष्ट्रीय संबंधों का सवाल है तो समिट के दौरान जो बातें कही गईं और मोदी और ओबामा के बीच जिस तरह की निकटता झलकी, उसके बाद हो सकता है कि भारत अपनी विदेश नीति में अब रूस और चीन से

जुड़े अपने हितों को दरकिनार किए बिना, अमेरिका के ज्यादा करीब आ जाए। यह भी कहा जा सकता है कि अब भारत को अमेरिका-रूस-चीन के त्रिकोणीय संघर्ष के बीच अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए पहले से कहीं अधिक जोर लगाना होगा।

(लेखक बिजनेस स्टैंडर्ड के कॉर्पोरेट एडिटर रहे हैं। ये उनके निजी विचार हैं


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