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न्यूज क्लिपिंग्स् | लोकतंत्र का गड़बड़ लेखा-- अरुण कु. त्रिपाठी

लोकतंत्र का गड़बड़ लेखा-- अरुण कु. त्रिपाठी

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published Published on Oct 30, 2017   modified Modified on Oct 30, 2017
वर्ष 2015-16 के बारे में एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म्स (एडीआर) की ताजा रपट बताती है कि हमारे लोकतंत्र का हिसाब गड़बड़ है. आयकर विभाग की सारी चुस्ती राजनीतिक दलों के दरवाजे पर आकर ठिठक जाती है और चुनाव आयोग भी उन अंधेरे हिस्सों में रोशनी डालने की कोशिश नहीं करता, जो पार्टियों के गुप्त तहखाने कहे जा सकते हैं. यह स्थितियां फिर हमारे लोकतंत्र को पारदर्शी और नैतिकता पर आधारित बनाने के बजाय जुगाड़, साजिश और धांधली की गुफा में ले जाते हैं. सवाल उठता है कि आखिर क्यों 47 क्षेत्रीय दलों में से सिर्फ एक तिहाई दलों ने समय पर अपनी आॅडिट रिपोर्ट सौंपी और सपा, जेकेएनसी, आरजेडी, आइएनएलडी, एमजीपी और एआइयूडीएफ जैसे पंद्रह दलों ने आज तक रिपोर्ट नहीं दी.
 

राजनीतिक दलों को होनेवाली आय में दो किस्म के मुख्य लोचे हैं. पहला लोचा तो इस बात का है कि कुछ पार्टियां अपनी आय का 200 प्रतिशत से ज्यादा खर्च करती हैं और कुछ पार्टियां उसका अस्सी प्रतिशत तक बचा लेती हैं.

 

अगर जनता दल(यू) और आरएलडी जैसे दलों ने आय का दो सौ प्रतिशत व्यय किया, तो द्रमुक और अन्नाद्रमुक ने अस्सी प्रतिशत खर्च ही नहीं किया. जो ज्यादा खर्च करते हैं, उन पर यह संदेह जाता है कि उनका यह खर्च आया कहां से और जो नहीं व्यय करते हैं, उन पर यह शक जाता है कि वे संगठन, कंपनियों और नागरिकों से जो योगदान लेते हैं, वे उनकी सेवा के लिए लेते हैं या फिर व्यावसायिक लाभ के लिए.

 

दूसरा बड़ा लोचा अज्ञात स्रोतों से पार्टियों के लिए धन आने का है. अगर क्षेत्रीय दलों को अज्ञात स्रोतों से होनेवाली आय 20 प्रतिशत यानी 40.61 करोड़ के करीब पायी गयी, तो क्षेत्रीय दलों को 68.57 प्रतिशत आय अज्ञात स्रोतों से हुई. अज्ञात स्रोतों से होनेवाली आय राजनीतिक चरित्र पर सबसे ज्यादा परदा डालने का काम करती है. यह जानते हुए कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने का काम राजनीतिक दल ही करते हैं यह जानना बेहद जरूरी है कि पार्टियों को चंदा कहां से आ रहा है और उन स्रोतों को कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए व्यवस्था को कितनी कीमत चुकानी पड़ रही है.

 


आखिर देश और विदेश के वे कौन लोग हैं, जो राजनीतिक दलों को चंदा देकर अपना नाम गुप्त रखना चाहते हैं? संभव है ऐसा करने के पीछे उनके नि:स्वार्थ उच्च लोकतांत्रिक आदर्श हों और वे चाहते हों कि दुनिया का सबसे विशाल लोकतंत्र अपने आदर्शों पर चलता रहे. ऐसे में उनका नाम जरूर जाहिर होना चाहिए, ताकि देश जान सके कि उसके ऐसे हितैषी कौन हैं? अगर नाम सार्वजनिक करने से उनका बड़प्पन प्रभावित होता हो तो वे नाम चुनाव आयोग के पास तो होने ही चाहिए.

 


ऐसा भी हो सकता है कि चंदा देनेवाले अज्ञात स्रोतों का कोई निहित स्वार्थ हो और राजनीतिक दल उन स्वार्थों की सिद्धि बड़ी खामोशी से करना चाहते हैं.
ऐसी स्थिति में यह जरूर प्रकट होना चाहिए कि आखिर दाताओं का वह कौन सा स्वार्थ है, जिसको लोकतंत्र खुलेआम नहीं साध सकता और जिसके लिए गुप्त दान की आवश्यकता पड़ती है. यह महज संयोग नहीं है कि अमेरिका जैसे विकसित लोकतांत्रिक देशों में, जहां पर चंदे का बड़ा हिस्सा घोषित होता है, वहां भी लोकतंत्र को अरबपतियों द्वारा अपहृत कर लिये जाने की चर्चा तेज हो गयी है.


एक प्रतिशत बनाम 99 प्रतिशत की बहस भले ही कुछ न कर पायी हो, लेकिन वह अमेरिकी राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में बहुत जोर से उठी थी. वहां यह प्रभाव साफ तरीके से देखा जा सकता है कि अमेरिकी सांसद तभी सीनेट के सत्रों में हिस्सा लेते हैं, जब पूंजीपतियों के पक्ष में कोई कानून बनना होता है. वे उन्हीं मसलों को उठाते भी हैं, जिनसे किसी धनपति का लाभ होता हो. इस चिंता को केलाग स्कूल आॅफ मैनेजमेंट के प्रोफेसर एमिरेट्य फिलिप काटलर ने अपनी ताजा पुस्तक ‘लोकतंत्र का पतन' में विस्तार से व्यक्त किया है.


उनका कहना है कि लाॅबिस्ट बनकर एक सांसद अपने वेतन का कई गुना कमा सकता है. इसी तरह अज्ञात स्रोतों से आया धन कालाधन है, जो ज्ञात स्रोतों से आये धन के प्रभाव को कम कर रहा है और लोकतंत्र को गटर की ओर ले जा रहा है.


अज्ञात स्रोतों के इसी बुरे प्रभाव को कम करने के लिए एडीआर ने सुझाव दिया है कि चुनाव आयोग दलों को मजबूर करे कि वे 20,000 रुपये से ज्यादा के दान के स्रोत को घोषित करें.


उनकी यह भी मांग है कि अगर कोई दल निर्धारित तिथि पर रिटर्न न भरे, तो उनकी मान्यता को रद्द कर देना चाहिए. इसके अलावा क्षेत्रीय दलों को भी सूचना के अधिकार के दायरे में लाया जाना चाहिए. विडंबना है कि कालेधन की समस्या को दूर करने के आसमानी दावों के बावजूद जमीनी हकीकत यही है, जो एडीआर ने अपनी रपट में दी है.


आज जब दुनिया के नये अरबपतियों मे पचहत्तर प्रतिशत भारत और चीन के हैं, तो यह चुनौती और भी बढ़ जाती है कि लोकतंत्र पर धन के प्रभाव को नियंत्रित किया जाये. अगर लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को मिलनेवाले चंदे के स्रोतों पर अंधेरा बढ़ता जायेगा, तो तय मानिए कि लोकतंत्र पर आम आदमी की पकड़ कमजोर होगी. लेखा-जोखा गड़बड़ होगा, तो राजनीतिक चरित्र भी गिरेगा और न स्थिरता होगी और न ही समन्वय.


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1075923.html


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