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न्यूज क्लिपिंग्स् | वक़्त की नब्ज़ : विकास की अहमियत---- तवलीन सिंह

वक़्त की नब्ज़ : विकास की अहमियत---- तवलीन सिंह

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published Published on Aug 24, 2015   modified Modified on Aug 24, 2015
मुझे विश्वास है कि भारत की हर समस्या का समाधान है विकास। सो, जब प्रधानमंत्री ने इस बात को बिहार में बार-बार कहा पिछले हफ्ते अपनी आम सभाओं में तो मुझे खुशी हुई। पहले भी कह चुके हैं कई दफा नरेंद्र मोदी कि जब तक पूर्वी छोर के राज्य पश्चिमी छोर के राज्यों के बराबर नहीं पहुंचते हैं विकास की दौड़ में, तब तक भारत की गाड़ी आगे तेजी से नहीं बढ़ सकती है। लेकिन इस बात को बिहार में कहने का खास मतलब है, क्योंकि बिहार पूर्वी छोर के हिसाब से भी कई तरह से पिछड़ा हुआ है। इस बात को बिहार की जनता अच्छी तरह समझती है उसका सबूत तालियों के रूप में मिला प्रधानमंत्री की आम सभाओं में, मगर बिहार के राजनेताओं को प्रधानमंत्री की बातें अच्छी नहीं लगीं।
नीतीश कुमार को एतराज था प्रधानमंत्री के अंदाज-ए-बयां पर। ‘ऐसा लगा कि बोली लग रही थी? क्या बोली लगा रहे थे बिहार की?' रही लालू की बात, तो उन्होंने टीवी पत्रकारों के सामने मोदी की भद्दी नकल करके अपना एतराज जताया। बिहार के इन महारथियों के तेवर देख कर ऐसा लगा मुझे कि उनको शायद डर लगने लगा है कि विकास तुरुप का पत्ता न साबित हो जाए उनके ‘सेक्युलरिज्म' के खेल में।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ये दो पूर्व दुश्मन दोस्त बन गए हैं फिलहाल, लेकिन समझने वाले समझ गए हैं कि इस दोस्ती का असली मकसद है उन जातियों को समेटना, जिनका समर्थन उनका वोट बैंक बन जाता है। साथ में है मुसलमानों का वोट बैंक, जो इस चुनाव में खिसकने वाला नहीं है, क्योंकि अभी तक वह वक्त नहीं आया है जब मुसलमानों का मोदी से डर हट गया हो।
लोकसभा चुनाव के समय जब बिहार के दौरे पर थी मैं, तो पाया कि मुसलिम गांवों, बस्तियों में खूब प्रचार था इस बात को लेकर कि मोदी अगर प्रधानमंत्री बन जाते हैं, तो मुसलमानों का कत्लेआम तय है। इस खौफ के माहौल में नफरत भी थी मोदी के लिए। गुजरात के दंगों का जिक्र सबने किया। यह मुसलिम वोट बैंक नीतीश-लालू के लिए सुरक्षित है, खासकर अब जब इनके गठबंधन में कांग्रेस भी शामिल हो गई है, सेक्युलरिज्म का वास्ता देकर।
इस सेक्युलरिज्म के परदे के पीछे लेकिन सचाई यह है कि न विकास की बातें कर रहे हैं बिहार के ये पुराने खिलाड़ी और न ही भविष्य में करने वाले हैं। बिहार का इतना बुरा हाल है विकास के तौर पर कि जब भी मैं घूमती हूं पटना की गंदी, बदहाल गलियों में, मुझे यकीन हो जाता है कि भारत कभी मध्यम-विकसित देशों की श्रेणी में भी अपनी जगह नहीं बना पाएगा। बिहार के देहातों का और भी बुरा हाल है। जितनी गरीबी आज भी दिखती है मुसहरों की बस्तियों में वैसी गरीबी शायद ही देश के किसी और राज्य में देखने को मिलती है। कहने का मतलब यह है कि नीतीश कुमार के दौर में बेशक कानून-व्यवस्था में सुधार आया हो, लेकिन यहीं आया है। किसी और क्षेत्र में नहीं।
ऐसा शायद इसलिए भी हुआ है, क्योंकि नीतीश कुमार समाजवादी आर्थिक नीतियों में विश्वास रखते हैं, जिनके तहत गरीबों को राहत पहुंचाने के लिए कई योजनाएं बनती हैं। मनरेगा में हर साल सौ दिन का रोजगार देने की व्यवस्था है हर गरीब परिवार को, लेकिन देखा यह गया है कि राहत बेशक मिलती हो इन परिवारों को, पर गरीबी कम नहीं होती है। इसी तरह सस्ता अनाज और अन्य सस्ती सुविधाएं देने से राहत पहुंचती है गरीबों को, लेकिन गरीबी दूर नहीं होती है। सबूत है वह गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ापन, जो दिखता है भारत के पूर्वी राज्यों में तमाम गरीबी हटाओ योजनाओं के बावजूद।
एक दूसरा सबूत भी है हमारे पास और वह यह कि जब आर्थिक नीतियों द्वारा संपन्नता आती है तभी जाकर गरीबी कम होती है। आज अगर तीस करोड़ से ज्यादा भारतीय गिने जाते हैं मध्यवर्ग में तो इसके नब्बे के दशक में लाइसेंस राज के समाप्त किए जाने के बाद ही थोड़ी-बहुत संपन्नता आई है, पिछले बीस सालों में।
प्रधानमंत्री ने ठीक किया विकास को अहमियत देकर, लेकिन शायद भूल गए कि यह विकास तब आएगा, जब भारत के बड़े उद्योगपति नई योजनाओं में निवेश करना शुरू करेंगे। निजी निवेशकों के बिना नहीं बन सकते हैं वे हवाई अड्डे, हाईवे और रेलवे स्टेशन, जिनका वादा प्रधानमंत्री ने बिहार में किया है। निजी निवेशक सामने न आए होते लाइसेंस राज के हट जाने के बाद, तो किसी हाल में न पैदा होते रोजगार के वे अवसर, जिनके द्वारा तीस करोड़ लोग मध्यवर्ग में शामिल होने के काबिल हुए।
प्रधानमंत्री अच्छी तरह जानते हैं इस बात को, लेकिन कुछ दिनों से इसको कहने में झिझक दिख रही है। लालकिले की प्राचीर से भी अपने भाषण में इस वर्ष उन्होंने रोजगार का जिक्र नहीं किया और न ही देश के उद्योगपतियों का नाम लिया। क्या इसलिए कि मोेदी डर गए हैं उन आलोचनाओं से जो इल्जाम लगाते हैं कि वह सिर्फ कुछ मुट्ठी भर उद्योगपतियों के प्रधानमंत्री हैं? ऐसा अगर है तो अच्छे दिनों का आना धीरे-धीरे असंभव होता जाएगा, बिहार के लिए भी और बाकी देश के लिए भी।
मोदी को याद रखना चाहिए कि जो लोग उन पर यह झूठे इल्जाम लगाते फिर रहे हैं उन लोगों को भारत के मतदाताओं ने नकारा था, बावजूद इसके कि अपने हर भाषण में उन्होंने अंबानी-अडानी के नाम लिए। बावजूद इसके कि उन्होंने मोदी पर इन उद्योगपतियों का दलाल होने का इल्जाम लगाए थे लोकसभा चुनाव में। मोदी को कभी नहीं भूलना चाहिए कि उनको पूरा बहुमत मिला था परिवर्तन और विकास के नाम पर। वही परिवर्तन और विकास, जिसकी जरूरत बिहार को है।

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