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न्यूज क्लिपिंग्स् | विकास का शौचालय सिद्धांत- यशवंत व्यास

विकास का शौचालय सिद्धांत- यशवंत व्यास

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published Published on Jun 11, 2012   modified Modified on Jun 11, 2012
आत्मविकास की परंपरा में शौचालय का भारी योगदान रहा है। दिशा-मैदान की भारतीय रीति ने कई लोगों को दिमागी तौर पर परेशान किया। कहा जाता है कि गांवों में जंगल की झाड़ियों को ढूंढने और लौटते समय कुएं से दातौन चबाते हिंदुस्तानी लोग परदेसियों के लिए अजूबे थे।

भूमिपुत्रों के देश में शौचालय की परंपरा का आगमन आयातित संस्कृति का प्रतीक हो सकता है, लेकिन इससे कौन इनकार करेगा कि महानगरों की झुग्गियों और फुटपाथों में बसे लाखों लोग आज भी यदि सबसे ज्यादा चितिंत होते हैं, तो सिर्फ इसलिए कि उनके लिए न कोई दिशा है, न मैदान। खाइयां और झाड़ियां खत्म हो गई हैं। शर्म को लोटे में भर लेने पर हंसी उड़ाने वाले लोग आजकल सेनिटरी वेयर्स की चमचमाती दुकानों से गुजरते हैं, तो उन्हें अपने 'टॉयलेट' की भव्यता पर गर्व होता है।

ऐसे देश में जहां देश की आधी आबादी भूखी रहती है और फटे पेटीकोट पर शान से जिंदगी गुजार दी जाती हो, वहां नई-नई डिजाइन के 'सेन्सुअस' और 'इरोटिक' अंतर्वस्त्रों के भारी मुनाफे वाले चढ़ते व्यापार के बीच चादरों के लिए मशहूर शोलापुर की जिला परिषद में नौ अप्रैल,1998 को एक खोज चल रही थी। खोज का मुख्य विषय था-शौचालय कहां गए?

सरकारें आजकल विकास में जरा ज्यादा ही रुचि लेती हैं। वे चाहती है कि गांवों को भी झाड़ियों से ऊपर उठाकर कमोड तक लाया जाए। लोग जीवन में इस स्वच्छता के निहित अर्थ समझें। तो, करीब दो करोड़ रुपये शोलापुर जिला परिषद को मिले थे। इन रुपयों से इलाके में तेईस हजार शौचालयों का निर्माण किया जाना था। पैसे गए। रिपोर्ट आई। रिपोर्ट के मुताबिक तेईस हजार शौचालय शोलापुर क्षेत्र में बना दिए गए थे। पर रिपोर्ट के बाद का प्रकरण इस शौचालय योजना की गंदगी पर उठ आया था। पता चला कि कागज पर तेईस हजार बने, लेकिन असल में, उनमें से आठ हजार शौचालय, रुपया पाने वालों की आत्मा में फ्लश होकर गायब हो गए। पहले कागज पर कुएं बनते थे, अब हम शौचालय तक ऊपर उठे हैं, विकास का यह नया मॉडल निश्चित ही थोड़ा ऊंचा है।

बावजूद इसके, यह पता कैसे चल सकता है कि कागज और जमीन पर बड़ा फर्क है? इस मामले में समझदारी यह थी कि ग्रामसेवक और सरपंच के खातों में अनुदान राशि बराबर-बराबर जमा होती थी, ताकि सामूहिकता की भावना को बल मिले। चूंकि पैसे खाने में सामूहिकता के सिद्धांत पर चोट हो गई, इसलिए किसी पक्ष से यह बात उभरकर सामने आ गई कि तेईस हजार का आंकड़ा झूठ है। आठ हजार शौचालय बिना बने ही शोलापुर इलाके में सफाई-क्रांति का अदृश्य झंडा लहरा रहे थे।

ऐसी घटना पर एकाएक प्रतिक्रिया करनेवाले 'च्च-च्च-च्च' की धार्मिक ध्वनि के साथ शौचालय के नाम पर मिले पैसे खाने पर अफसोस जताएंगे। इससे ऐसा लगता है कि शौचालय का पैसा गंदा होता है। पैसा खाना हो, तो सीमेंट, शक्कर या हवन सामग्री का खाना ठीक रहता है। शौचालय का पैसा पचाने के लिए उत्कृष्ट टाइलों में सजे शौचालय के मालिक होने चाहिए। गांव के 'भ्रष्टाचारियों ' को अपनी दिशा के मैदान में पवित्रता को ध्यान में रखना चाहिए।

सामान्यतया लोग सिर्फ खाते हैं। वे यह सोचकर नहीं खाते कि वे शौचालय के खाते में खा रहे हैं या बोफोर्स के खाते में। उन्हें अगर गटर में खाना है या दारू में खाना है या चावल-तेल में खाना है, तो भी वे सामुदायिक विकास की समान भावना से ही खाते हैं। आठ हजार शौचालय न बनवाकर यदि उन्होंने तब उन्हें बना हुआ बता दिया था, तो इसका अर्थ सिर्फ यह है कि आगे चलकर और 'आलयों' में भी खाने का माद्दा रखते हैं।

उन्होने वस्तुतः वक्त से पहले चाहा कि 'स्वदेशी' की रक्षा हो। लोग दिशा-मैदान की प्रातःकालीन समस्या के लिए झाड़ियों का ही उपयोग करें। परंपरा की रक्षा हो। शौचालय बन जाएं और न भी बनें। इस तरह सरकारी अनुशासन भी पल जाए और सांस्कृतिक परंपरा भी नष्ट न हो। जब राज करने वाले अफसर-कर्मचारी सच्चे मन से सेवा करते हैं, तो वे विकास के शौचालय-सिद्धांत का पालन करते हैं। वे हर चीज को 'फ्लश' करना जानते हैं और देश की जमीन की उर्वरता के प्रति खाद की प्रकट वीभत्सता के विरुद्ध, रस-गंध-स्पर्श की उपज के सार्थक बिंदुओं के साथ संपृक्त होते हैं।

हमें गर्व होना चाहिए कि हमने सामुदायिक विकास योजनाएं अमल में लाने के लिए इतना अद्भुत तंत्र कायम किया है कि लोगों के लिए आज शौचालय की नहीं, शौचालयों के पैसे खाने वालों की आवश्यकता है। पुल, सड़कें, जंगल आदि-आदि कागजों पर बनते हैं, और जनता उनका उपभोग करके अगली सदी में जाने के लिए चलती रहती है। विकास के शौचालय-सिद्धांत को भी उसने काफी हद तक समझ लिया है।

क्या कोई ऐसा इंतजाम भी हो सकता है कि देश भर में 'हवा में शौचालय' बना देनेवालों की आत्मा को भी 'फ्लश' कर दिया जाए? हमें अगर विकास चाहिए, तो शौचालय के रास्ते ही आएगा। इस इंतजाम के लिए सरकार को शौचालय विभाग के नए मंत्री बनाने पड़ेंगे। यह तभी हो सकता है कि मौजूदा सरकार हिले। उसके दिशा-मैदान की सुविधाओं में खलल हो। वे तभी नए शौचालयों की योजनाएं बनाएंगे और नए सरपंच, नए ग्राम-सेवक विकास कर सकेंगे। देश को शौचालय बनाने वालों के लिए देश के लिए शौचालय बनाने का यह फॉरमूला चल जाएगा।

शोलापुर जैसे सिद्धांत पुष्टि के लिए काफी हैं।
क्या कहा?
आप भी शोलापुर जा रहे हैं?
पता नहीं, अपने शौचालयों पर पैंतीस लाख लगाकर योजना आयोग वाले साथ जा रहे हैं या नहीं!


http://www.amarujala.com/Vichaar/VichaarColDetail.aspx?nid=503&tp=b&Secid=1


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