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न्यूज क्लिपिंग्स् | श्रमिकों की गरिमा व बिहार की अस्मिता-- मिहिर भोले

श्रमिकों की गरिमा व बिहार की अस्मिता-- मिहिर भोले

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published Published on Oct 17, 2018   modified Modified on Oct 17, 2018
बिहार छोड़े मुझे पच्चीस वर्ष हो गये. तब से गुजरात में ही रहता हूं. फिर भी विभिन्न कारणों से लगातार बिहार आता-जाता रहता हूं. इस दौरान लोग-बाग अक्सर मुझसे गुजरात के बारे में प्रश्न किया करते हैं और मैं आदतन पूरी सच्चाई और निष्पक्षता से उसकी खूबियों और कमजोरियों की चर्चा करता हूं. चूंकि मैं राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूं. मैं एक शिक्षक हूं, मेरी वैचारिक प्रतिबद्धता सिर्फ मेरे अपने अनुभव और उसके विश्लेषण के प्रति रहती है.


इसलिए कुछ वर्ष पहले जब मेरे एक संपादक मित्र ने अंग्रेजी की पत्रिका आउटलुक में मुझे गुजरात में एक ‘बाहरी व्यक्ति' (आउटसाइडर) होने के नाते अपने अनुभव लिखने को आमंत्रित किया, तो मैंने उन्हें सुधारते हुए कहा कि मैं लिखूंगा तो जरूर, मगर एक ‘आउटसाइडर' होने के नाते नहीं, बल्कि एक ‘इनसाइडर' के नाते. दरअसल, वजह यह थी कि पर-प्रांतीय होने के बावजूद गुजरात में मेरे साथ कभी ‘आउटसाइडर' जैसा व्यवहार किसी ने नहीं किया. मेरे उस लेख ‘द सिटी ऑफ ब्लूमिंग प्रॉमिसेस' की बड़ी चर्चा भी हुई.


लेकिन, इन सब के विपरीत अचानक यह क्या हो गया? जिस प्रदेश में पर-प्रांतियों के प्रति अब तक कोई द्वेष की भावना नहीं देखी गयी हो, वहां पहली बार उनके प्रति इतनी हिंसा, नफरत और दुर्व्यवहार का जिम्मेदार कौन है?


किसी एक व्यक्ति द्वारा किये गये घृणित अपराध की सजा हजारों निर्दोष लोगों को देने का अधिकार तथाकथित ‘ठाकोर सेना' और उसके नेता को किसने दिया? क्या है इसके पीछे- राजनीति, अर्थनीति या विभाजक जातीय-प्रांतीय संक्रमण का प्रभाव? क्या आजादी के 71 साल बाद भी हम अपने ही देश के लोगों को आक्रांता मानते हैं?


अजीब विडंबना है. दक्षिण का इडली-डोसा उत्तर भारत का पसंदीदा व्यंजन है, नवरात्रि में गुजरात का गरबा और डांडिया दिल्ली, नोएडा से लेकर पटना तक में धूम मचाता है, महाराष्ट्र के गणपति उत्सव का आयोजन आज देश के हर कोने में हो रहा है और बिहार की छठ पूजा अब राष्ट्रीय रूप ले चुकी है. गुजरात में भी सरकार और प्रशासन इसके आयोजन में पूरा सहयोग करते हैं, फिर भी हम एक-दूसरे के लिए अजनबी आक्रांता हैं. लौह-पुरुष सरदार पटेल के अथक प्रयत्नों ने देश का राजनीतिक एकीकरण तो करा दिया, किंतु आनेवाली पीढ़ियां देश का भावनात्मक एकीकरण नहीं कर सकीं. गुजरात में प्रवासी बिहारियों और हिंदी भाषियों के खिलाफ इन दिनों जो कुछ चल रहा है, वह इसी बात का एक जीता-जागता प्रमाण है. हिंसक घटनाओं ने गुजरात के एक विकासशील प्रदेश होने की छवि धूमिल की है. वास्तव में बिहार के ये श्रमिक गुजरात के बाहर उसके असली ‘ब्रांड एंबेसडर' थे.


अब कुछ आंकड़ों पर भी नजर डालते हैं. देश की कुल आबादी का 37 प्रतिशत वह हिस्सा है, जो अपने राज्य से अलग दूसरे राज्यों में काम के सिलसिले में या किन्हीं अन्य प्रयोजन से प्रवास करती है. साल 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे देश में इसकी कुल संख्या 45.36 करोड़ थी.


आंकड़ों के अनुसार महाराष्ट्र और दिल्ली के बाद गुजरात देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है, जहां सबसे ज्यादा इंटरनल माइग्रेशन (आतंरिक प्रवासन) होता है. गुजरात में यह संख्या अंदाजन 6.8 से 7 लाख के बीच है.


जनगणना आंकड़ों के अनुसार, पूरे भारत में प्रवासियों की कुल आबादी का 49 प्रतिशत सिर्फ विवाह से संबंधित है, जबकि साल 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में नौकरी के लिए प्रवासन महज 10.2 प्रतिशत है.


इसमें शक नहीं कि आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण बिहार सहित अन्य हिंदीभाषी प्रदेशों से महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात में अंतर्राज्यीय माइग्रेशन का प्रतिशत ज्यादा है. दूसरी ओर गुजरात से अंतर्राज्यीय माइग्रेशन कम होने का कारण आर्थिक और सांस्कृतिक दोनों है. आंकड़े यह भी बताते हैं कि बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में 0-14 आयुवर्ग की जनसंख्या अन्य राज्यों से अधिक है, अतः देश की श्रमशक्ति में उसका योगदान औरों से ज्यादा है.


इसी श्रमशक्ति से देश की अर्थव्यवस्था चल रही है. हालांकि, योजना आयोग के वर्ष 2012 की रिपोर्ट के अनुसार हाल के वर्षों में गरीबी में आयी कमी और मनरेगा आदि योजनाओं के कारण अंतर्राज्यीय प्रवासन में भी कमी आयी है. फिर यह कहकर लोगों को मारपीट के लिए उकसाना कि बिहारी मजदूरों की वजह से गुजरात में बेरोजगारी बढ़ी है, यह सिर्फ राजनीति-प्रेरित ही हो सकता है.


लेकिन, हर कुछ दिनों पर बिहार के प्रवासी श्रमजीवियों के साथ होनेवाला दुर्व्यवहार क्या प्रदेश की अस्मिता को चोट नहीं पहुंचता? क्या बिहारी श्रमजीवी की नियति सिर्फ परदेस में दिहाड़ी करना रह गया है?


अंग्रेज हमारे पूर्वजों को गिरमिटिया मजदूर बनाकर मॉरिशस, सुरीनाम और फिजी ले गये. उन गिरमिटिया मजदूरों ने उन देशों को खड़ा कर दिया.


पर आज उनके वंशज हम अपने प्रदेश को ही मजबूती से खड़ा नहीं कर पा रहे हैं. हमें अपने अंदर झांकना होगा. सोशल-इंजीनियरिंग तो हमने बहुत कर ली. इसका नतीजा सबके सामने है. अब जरूरत इकोनॉमिक इंजीनियरिंग करने की है, ताकि सबके लिए उसकी क्षमतानुसार रोजगार के ज्यादा अवसर घर पर ही उपलब्ध हो सके.


गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बेंगलुरु की औद्योगिक भट्टियों में तपा, निखरा और प्रशिक्षित ये श्रमिक आज हमारी सबसे बड़ी पूंजी हैं. यदि उन्हें बाहर जाना ही हो, तो बजाय भेड़-बकरियों की तरह रेलगाड़ी में भरकर दूसरे प्रांतों में पलायन करने देने के, बिहार सरकार उन्हें सुनियोजित रूप से दूसरे प्रांतों में भेज सकती है.


ठीक उसी तरह जिस प्रकार चीन अपने प्रशिक्षित मजदूरों को दुनिया में हर जगह विभिन्न परियोजनाओं पर काम करने को भेजता है. फिर तो मजाल है कि कोई उनसे दुर्व्यवहार कर ले!


यदि श्रम की कुशलता हमारी दक्षता है, तो हर हाल में हर कहीं इसका सम्मान होना ही चाहिए. यदि गुजरात अपनी पूंजी से उद्योग खड़े कर सकता है, तो हम भी कुशल श्रम के बाजार और उसकी जरूरतों को नियंत्रित कर सकते हैं और फिर देश-दुनिया, जिसको भी चाहिए मुहैया कर सकते हैं. आज जरूरत है कि बिहार सरकार अपनी औद्योगिक और श्रम नीतियों में परिवर्तन लाये, ताकि प्रदेश की अस्मिता और श्रमिकों की गरिमा को फिर कोई ठेस नहीं पहुंचे.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1215292.html


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