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न्यूज क्लिपिंग्स् | संकट का तापमान (संपादकीय, जनसत्ता)

संकट का तापमान (संपादकीय, जनसत्ता)

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published Published on Nov 4, 2014   modified Modified on Nov 4, 2014
संयुक्त राष्ट्र ने एक बार फिर बढ़ते वैश्विक तापमान और उसके संभावित असर को लेकर आगाह किया है। लेकिन इस मसले पर अलग-अलग समय पर हुए वैश्विक सम्मेलनों के अलावा संयुक्त राष्ट्र के स्तर से जितने भी प्रस्ताव पेश किए गए, उनका हासिल किसी से छिपा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की आइपीसीसी यानी जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी समिति की बैठक पेरू के लीमा शहर में अगले महीने होने वाली है, जिसमें समिति की ताजा रिपोर्ट के मद््देनजर विभिन्न चरणों में इस सदी के आखिर तक बिजली उत्पादन के लिए जीवाश्म र्इंधन के उपयोग को पूरी तरह खत्म करने का प्रस्ताव सबसे अहम मुद्दा होगा। जाहिर है, इस बैठक में आइपीसीसी की रिपोर्ट में बिजली उत्पादन में जीवाश्म र्इंधन के उपयोग को खत्म करने संबंधी सिफारिशों पर सऊदी अरब और कुछ वैसे देशों की ओर से तीखे विरोध सामने आ सकते हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार ही तेल उत्पादन है। लेकिन सवाल है कि क्या इस कीमत पर समूचे विश्व के सामने पैदा होने वाले संकट को स्वीकार किया जा सकता है?

आइपीसीसी की रिपोर्ट के मुताबिक अगर सभी देश सन 2100 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा शून्य-स्तर के आसपास नहीं लाते हैं तो जलवायु में होने वाले बदलावों का दुनिया भर में व्यापक और घातक असर पड़ेगा। हैरानी की बात यह है कि जो देश पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेवार हैं, उनके लिए इस तरह के प्रयासों का शायद कोई महत्त्व नहीं है। जबकि ऐसा नहीं है कि बढ़ते तापमान से दुनिया भर के सामने अगर कोई संकट आएगा तो उससे ये देश बचे रहेंगे। इस मामले में अमेरिका सहित कई विकसित देशों का रुख किसी से छिपा नहीं है जो कार्बन डाइआॅक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए विकासशील देशों पर दबाव डालते हैं, लेकिन खुद को इस जिम्मेदारी से मुक्त समझते हैं।

आइपीसीसी की रिपोर्ट के मुताबिक 1880 से 2012 के बीच धरती की सतह के औसत तापमान में 0.85 डिग्री सेल्शियस की बढ़ोतरी हो चुकी है, कार्बन डाइआॅक्साइड, मिथेन गैस और नाइट्रस आॅक्साइड सबसे उच्च स्तर पर हैं और पिछले एक सौ दस सालों के दौरान दुनिया भर में समुद्र की सतह उन्नीस सेंटीमीटर ऊपर आ चुकी है। इसके अलावा तथ्य यह भी है कि पिछले चौदह सौ सालों में 1983 से 2012 के बीच की अवधि को सबसे गर्म वर्षों के रूप में दर्ज किया गया है। दुनिया भर में पर्यावरण में हो रहे इन बदलावों के असर भयानक तूफानों से लेकर कई दूसरे रूपों में सामने आ रहे हैं। मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव के साथ अत्यधिक बरसात या सूखा और बर्फ आवरण में कमी आदि कोई संयोग नहीं हैं, बल्कि विश्व की पारिस्थितिकी में आ रहे खतरनाक बदलावों के सूचक और नतीजे हैं। ऐसे में आइपीसीसी की ताजा रिपोर्ट में दर्ज तथ्यों को ध्यान में रखा जाए तो आने वाले दिनों के संकट का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। लेकिन विडंबना यह है कि जलवायु परिवर्तन पर हर साल होने वाले वैश्विक सम्मेलनों में जो संकल्प लिए जाते हैं, वे मूर्त रूप नहीं ले पाते। हर बार यह मुद््दा विकसित और विकासशील देशों के खेमों के बीच टकराव में उलझ कर रह जाता है। सवाल है कि प्राकृतिक संसाधनों के ज्यादा से ज्यादा दोहन और ऊर्जा पर अधिकतम निर्भरता वाले विकास के मौजूदा मॉडल के रहते क्या विश्व पारिस्थितिकी के सामने खड़े इस संकट से निपटा जा सकता है!


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