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न्यूज क्लिपिंग्स् | सबसे गरम सर्दी का संदेश-- सुनीता नारायण

सबसे गरम सर्दी का संदेश-- सुनीता नारायण

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published Published on Jan 7, 2016   modified Modified on Jan 7, 2016
यह जानने के लिए हमें किसी विश्लेषक की जरूरत नहीं कि इस बार शायद अब तक की सबसे गरम सर्दी के मौसम का हम सामना कर रहे हैं। मौसम विभाग ने भी बताया है कि 21 दिसंबर से दिल्ली का अधिकतम तापमान लगातार 22 डिग्री सेंटीग्रेड के ऊपर बना हुआ है।

मौसम ही नहीं, पिछले साल से इस साल के पहले महीने तक कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिन्हें लेकर हमें चिंता होनी चाहिए। चिंता इसलिए जरूरी है, क्योंकि वह हमें चुनौतियों से लड़ने के लिए जागृत करेगी।

पेरिस में हुए दिसंबर के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से हमने काफी उम्मीदें बांधी थीं, लेकिन इसका अंत एक ऐसे समझौते से हुआ, जो हमारी महत्वाकांक्षा से कोसों दूर तो है ही, न्यायसंगत भी नहीं है। इसने दुनिया को और अधिक असुरक्षित छोड़ दिया है; खासकर गरीबों को मानव विकास के बुनियादी तत्वों से और अधिक महरूम कर दिया है। इसी तरह, बीते वर्ष में चेन्नई की भीषण बाढ़ की विसंगति भी सामने आई।

आमतौर पर सूखे की समस्या और पानी की कमी से जूझने वाला यह शहर इस बार पानी में डूब गया। यह न सिर्फ इस शहर के, बल्कि दूसरे तमाम बड़े शहरों के बाशिंदों के लिए सोचने का मौका है कि हम उस दुनिया में जी रहे हैं, जो तेजी से जलवायु खतरे की गिरफ्त में आ रही है। इसका यही सबक है कि अगर हमारा गैर-जिम्मेदाराना रवैया कायम रहा, तो बदलते मौसम की अति वाली ऐसी घटनाओं की चपेट में हम आने वाले हैं। देखा जाए, तो सर्दी के मौजूदा मौसम में गरमी का होना इसी की अगली कड़ी है।
इन तमाम घटनाओं में कुछ सख्त संदेश छिपे हैं। पहला यही कि अगर हम अपने जीवन और स्वास्थ्य को सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो पर्यावरण से जुड़े मुद्दे को नजर अंदाज नहीं कर सकते। दूसरा, विकास की कोई दूसरी राह हमें खोजनी होगी, और अभी से ही हमें इसके प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की गंभीर कोशिश करनी चाहिए। तीसरा संदेश यह है कि चूंकि हम एक ऐसे ग्रह पर रह रहे हैं, जहां गरमी बेलगाम तरीके से पैदा की जा रही है, इसलिए हमें जो कुछ भी करना है, वह भी असाधारण गति से करना होगा।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या हम कुदरत के इन संदेशों को समझ भी पा रहे हैं? पेरिस में हुए समझौते को एक उदाहरण के तौर में लेते हैं। आज दुनिया दो तरह की तबाही की ओर बढ़ रही है। पहली की वजह आर्थिक विकास के लिए हमारी जरूरत है, तो दूसरी का कारण वह विषम खपत व अतृप्त भूख है, जो हम पर अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन का दबाव बनाती है। ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन शुरुआती तौर पर इसलिए बढ़ा, क्योंकि हमें ऊर्जा की जरूरत थी।

मगर अब इन गैसों का उत्सर्जन अत्यधिक जोखिम वाले भविष्य के संकेत देने लगा है। हमने देखा ही है कि किस तरह बदलते मौसम ने वर्ष 2015 में भारत के लाखों किसानों की आजीविका मुश्किल में डाल दी थी; भले ही वह समस्या ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ी हो अथवा नहीं। इसी का परिणाम है कि किसान हताश होने लगे हैं और आत्महत्या की ओर बढ़ने लगे हैं। इस नाकामी में खराब नीतियां भी जुड़ी हुई हैं। दिक्कत यह है कि असामयिक मौसम ने इन नीतियों को और ज्यादा बदहाल कर दिया है, जिसके कारण हमारी परेशानियां बढ़ गई हैं।

लिहाजा विकास का जो फायदा हमने कमाया है, उसे अक्षुण्ण बनाए रखना अब मुश्किल हो चला है, और हम उसे गंवा रहे हैं। भविष्य में इसकी गति और तेज होने वाली है। अपने कमजोर व निराशाजनक शब्दों के कारण पेरिस समझौते ने हमें असफल बना दिया है। धनाढ्य और तेजी से विकसित हो रहे देशों ने पहले ही यह साफ कर दिया कि वे दूसरों के हितों के लिए अपने विकास और अपनी खपत से कोई समझौता करने को तैयार नहीं हैं। पेरिस समझौता यह भी बताता है कि धनाढ्य देशों ने पहले ही खुद को एक बुलबुले में कैद कर लिया है, और उन्हें भ्रम है कि इसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। अपने इस आवरण को सुरक्षित रखने के लिए वे बातचीत सिर्फ उन्हीं मुद्दों पर करना चाहते हैं, जो उनके लिए अधिक सुविधाजनक हो।
दरअसल, परेशानी एक और तबाही को लेकर है, जो हमारा इंतजार ही कर रही है। यह संकट है एक अत्यधिक अन्यायी, असुरक्षित और असहिष्णु दुनिया में जीना।

इंटरनेट के इस मौजूदा दौर में दुनिया की संवेदनशीलता अपेक्षाकृत घटती जा रही है, बढ़ नहीं रही है। जिन सूचनाओं पर गौर किए जाने और सहमति बनाने की जरूरत है, वे लुप्त हो गई हैं। आश्चर्य नहीं कि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में होने वाली तमाम वार्ताओं में यही हो रहा है। और यह सिर्फ इसी संदर्भ में नहीं दिखता, बल्कि कारोबारी बातचीत और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी इसे देखा जा सकता है।

दुनिया के शक्तिशाली मुल्कों को यह समझने की जरूरत है कि इस सिक्के का कोई दूसरा पहलू नहीं है। उनके द्वारा यह माना जाता है कि दूसरा पक्ष या तो कोई आतंकी है, कोई वामपंथी या फिर भ्रष्ट व अयोग्य। यह नजरिया, राय या सच्चाई घातक है।
इन सबके साथ दुनिया में असमानता बढ़ रही है। विकास और आर्थिक समृद्धि का कोई भी स्तर पर्याप्त नहीं है, क्योंकि लालसाएं असीम होती हैं। इसका एक अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति, जो गरीब है, हाशिये पर इसलिए है, क्योंकि वे इन सबको प्रभावित करने की हैसियत में नहीं हैं।

इस तरह के लोगों के लिए हमारी बहादुर व नई दुनिया में अब कोई स्थान उपलब्ध नहीं है। दुर्भाग्य से भारत में भी कुछ ऐसी ही सोच बढ़ रही है, और हम इसी दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं। बीते वर्ष गरीबों, वंचितों, बाढ़ से पीडि़त लोगों, सूखे की मार झेल रहे नागरिकों की वास्तविक दुर्दशा को टीवी और अखबारों में कितनी जगह मिली? जाहिर है, हमारी दुनिया को स्वच्छ बनाया जा रहा है। जब हम यही नहीं मानते कि उनका भी अस्तित्व है, तो हमें उनके वर्तमान या भविष्य को लेकर चिंता करने की भी भला क्या जरूरत है?

आज हम जीवन के ऐसे तरीके के बारे में सोच सकते हैं, जो सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए फायदेमंद हो। देखा जाए, तो एक असह्य, असमान दुनिया में असहिष्णुता का यही उभरता हुआ असली चेहरा है। जाहिर है, यह तस्वीर एक सुरक्षित भविष्य की राह नहीं दिखाती। हमें इस सोच को बदलने की जरूरत है, तत्काल और हमेशा के लिए। मैंने अपनी यह उम्मीद अभी तक खोई नहीं है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)


http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-sunita-narain-cses-director-general-says-warmer-winter--511244.html


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