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न्यूज क्लिपिंग्स् | सिमटते सहारे-- रवि राठौर

सिमटते सहारे-- रवि राठौर

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published Published on Jun 6, 2016   modified Modified on Jun 6, 2016
यों कमजोर और कम संख्या वाले समुदायों की सुविधा-असुविधा का खयाल रखने को समाज अपनी प्राथमिकता नहीं मानता, लेकिन हाशिये पर मौजूद लोग भी इसी समाज और व्यवस्था का हिस्सा होते हैं, जिनकी जरूरतें आधुनिकता की चकाचौंध में कई बार दरकिनार कर दी जाती हैं। मौजूदा दौर को मोबाइल क्रांति का युग माना जा रहा है और यह धारणा आम है कि एक गरीब व्यक्ति भी आज मोबाइल का उपयोग करने लगा है। इन्हीं वजहों से आज एसटीडी-पीसीओ का चलन लगभग खत्म हो गया है और इनकी जगह अब मोबाइल रिचार्ज की दुकानों ने ले ली है।

पहले लोगों को अपने परिचितों या रिश्तेदारों से बात करने के लिए एसटीडी-पीसीओ पर जाना पड़ता था, मगर आज वैसी दुकानें गुजरे जमाने की बात हो चली हैं। बदलते वक्त के साथ बदलाव होता रहा है। तकनीकी क्षेत्र में जिस गतिशीलता के साथ नित नई खोजें हो रही हैं, उससे बहुत कम समय और कम कीमत में ज्यादातर लोगों के हाथों में मोबाइल फोन आ गए। लेकिन दिल्ली की झुग्गी बस्तियों में कम आय वर्ग के लोगों के बीच बहुत से ऐसे भी हैं, जो अपना घर-परिवार छोड़ कर हजारों मील दूर अपने और परिवार के लिए दो जून की रोटी का बंदोबस्त करने आते हैं। उनमें से ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर बन कर निमार्णाधीन इमारतों, ट्रैक्टर, ट्रकों पर ढुलाई-भराई का काम करके किसी तरह गुजर-बसर करते हैं। इनमें से बहुतों के पास आज भी किन्हीं कारणों से मोबाइल नहीं होता है। इन कॉलोनियों में मोहल्ले की मोबाइल रिचार्ज की दुकानों में अक्सर ये लोग अपने हाथ में छोटी-सी डायरी या किसी कागज पर लिखा हुआ फोन नंबर लिए हुए दिखाई दे जाते हैं। काम से थकने के बाद जब कभी इन्हें अपने घर की याद सताती है तो मोबाइल रिचार्ज कराने की दुकानों की तरफ रुख करते हैं।

अब एसटीडी फोन बूथ तो लगभग सब जगह बंद हो गए, लेकिन कई जगह मोबाइल रिचार्ज की दुकान वाले अब वही सुविधा अपने मोबाइल से देने लगे हैं। इसमें फोन-बूथ के रहने पर कुछ सहूलियतें लोगों को हासिल थीं, जो अब हर हाथ में मोबाइल होने के अनुमान की वजह से उन लोगों से भी छिन गई हैं, जिनके पास अब भी मोबाइल नहीं है। पहले लकड़ी और शीशे से निर्मित एसटीडी फोन-बूथ के केबिन के एकांत में बेहद निजी बातें भी अपनी भाषा में करने की सुविधा अब ऐसे लोगों को मोबाइल युग में नहीं मिल पाती है। मोबाइल पर दुकानदार और कई लोगों के बीच अपनी स्थानीय भाषा-बोली में परिजनों से की गई बातों के भाव जब इनके चेहरे पर उतरते-चढ़ते हैं तो कई बार कुछ संवेदनहीन लोग इन्हें उपहास भरी निगाह से देखते हुए आपस में इनका मजाक भी उड़ाते हैं। दुकानदार का व्यवहार भी इनके लिए बेरुखी वाला होता है। गंदे कपड़े पहने मजदूर जब इन दुकानों पर जाते हैं, तो दुकानदार का उनके साथ पेश आने का तरीका अन्य ग्राहकों की तुलना में बेहद तिरस्कारपूर्ण होता है। जबकि एसटीडी बूथ की अपनी सुविधा थी। पहले इन बूथों पर ‘बीप' की आवाज बढ़ते मिनटों और पैसों का संकेत देती थी। बात खत्म होने के बाद अपनी बातचीत की अवधि और पैसों के विवरण लोगों को मिल जाते थे। दुकानदार के लिए किसी से ज्यादा पैसे ऐंठने की संभावना नहीं रहती थी। वहीं अब दुकानदार इनसे बात समाप्त होने पर मोबाइल में देख कर जो भी पैसे बताता है, भोले-भाले लोग वही रकम भुगतान कर देते हैं।

ऐसे में दुकानदारों की बेईमानियां आम हैं। जबकि इन्हीं मजदूरों की बदौलत अपने व्यक्तिगत नंबर पर ज्यादा बातचीत के लिए कई किफायती और आकर्षक टॉकटाइम प्लान की सुविधा एक निश्चित कीमत पर प्राप्त कर दुकानदार उसका व्यावसायिक उपयोग करता है। कोई दूसरा विकल्प न होने के कारण मजबूरी में इन मजदूरों को अपने मोहल्ले की इन्हीं मोबाइल रिचार्ज की दुकानों पर जाना पड़ता है। मोबाइल तकनीक की क्रांति और उसके बाजार ने समाज में हाशिये पर रहने वाले इन मजदूरों से फोन बूथ के तौर पर उनका बातचीत करने का सुलभ विकल्प खत्म कर दिया है, क्योंकि बाजार हमेशा लोकप्रियता और बहुसंख्यक वर्ग की सुविधाओं का ध्यान रखता है। इस वर्ग में शामिल न हो पाने वाले लोगों को इसका खमियाजा भुगतना पड़ता है। फिल्म ‘बागबान' में अमिताभ बच्चन और उनकी पत्नी हेमा मालिनी एक-दूसरे से दूर अपने बेटों के यहां रहते हैं, जहां उन्हें अपनी जरूरतों के लिए उन पर निर्भर रहना पड़ता है। एक दृश्य में अपनी पत्नी से बात करने के लिए बेटे से फोन के इस्तेमाल की इजाजत को अनसुना कर देने पर अपने दिल के हाल को बयान करने के लिए अमिताभ को फोन बूथ का सहारा मिल जाता है। लेकिन आज हाशिये पर जीवन व्यतीत करने वाले इन मजदूरों से उनका यह सहारा भी छिन गया है। - See more at: http://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/ravi-rathore-article-in-jansatta-editorial-page-simatatey-sahaare/103210/#sthash.71i5geXZ.dpuf


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