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न्यूज क्लिपिंग्स् | स्थानीयता है कुंजी-- नीलम गुप्ता

स्थानीयता है कुंजी-- नीलम गुप्ता

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published Published on Dec 13, 2016   modified Modified on Dec 13, 2016
जलवायु परिवर्तन, भूख, कुपोषण, बढ़ती गरीबी, घटते संसाधन, ये सभी ऐसी समस्याएं हैं जिनसे आज सारी दुनिया जूझ रही है। अरबों रुपए इन समस्याओं के हल के लिए अंतराष्ट्रीय सम्मेलनों पर खर्च किए जा चुके हैं। आगे भी किए जाएंगे। पर हल तब भी शायद ही निकले। तो क्या किया जाए? गांधी-विचारों में रची-बसी, स्वाश्रयी महिला सेवा संघ (सेवा), अमदाबाद की संस्थापक और गुजरात विद्यापीठ की चांसलर इला भट्ट के अनुसार, इसके लिए हमें वैश्विकता से स्थानीयता पर आना होगा। अभी हो यह रहा है कि हम जो उगाते हैं उसे खाते नहीं और जो खाते हैं उसे उगाते नहीं। हमारा उगाया हुआ कहां जा रहा है, हम नहीं जानते, और जो खा रहे हैं वह कहां से आया है, हमें पता नहीं। जबकि हमारे स्थानीय खाद्यान्न हमारी जलवायु तथा वातावरण के अनुकूल और जैव विविधता लिये होते हैं और इसीलिए स्वास्थ्य व समाज के लिए अधिक उपयोगी होते हैं। उत्पादन के श्रम के बहुविध लाभ भी स्थानीय लोगों को मिलते हैं। उत्पादक व उपभोक्ता दोनों ही एक दूसरे के पूरक और सामुदायिकता के वाहक होते हैं। सामुदायिकता का दायरा मानव तक सीमित न होकर प्रकृति, पर्यावरण, जीव-जगत सभी के विकास को अपने में समेटे हुए और मूल्यों पर आधारित होता है। इसमें किसी एक का विकास किसी दूसरे की कीमत पर नहीं होता बल्कि सभी एक दूसरे को संपोषित व संवर्धित करते हैं। इसे ही वे ‘संपोषक अर्थव्यवस्था' का नाम देते हैं।

आज की वैश्विक तथा बहुराष्ट्रीय आधारित अर्थव्यवस्थाएं शोषणव लालच पर आधारित हैं- शोषण मानव श्रम का, संसाधनों का। भारी लाभ की नीयत से इसमें प्राकृतिक संसाधनों का क्रूरता की हद तक दोहन व संचयन किया जाता है और हौवा खड़ा किया जाता है कि धीरे-धीरे सभी प्राकृतिक संसाधन कम हो रहे हैं और एक दिन ऐसा आएगा जब सब नष्ट हो जाएगा। यह बात प्रकृति के सिद्धांतों से कहीं मेल नहीं खाती। प्रकृति में पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता। एक से दूसरा आकार लेता रहता है। ऐसे में हमें ही यह सोचना व देखना होगा कि हम जो काम कर रहे हैं उसका प्रभाव क्या व कहां तक होगा। जब हम यह सोचने लगेंगे तो प्रकृति और अपने आसपास की हर चीज के प्रति संवेदनशील होते जाएंगे।

उदाहरण के लिए, बिसलरी की बोतल को ही लें। इसको हाथ में लेते हुए अगर हम विचार करें कि आखिर पानी हमें खरीद कर क्यों पीना पड़ रहा है, फिर जो पानी पी रहे हैं वह हमारे लिए तो हो सकता है ठीक हो, पर इस पानी को तैयार करने में कितना पानी बेकार हुआ, बेहिसाब प्लास्टिक बोतलों का निर्माण, आरओ के पार्ट्स का कचरा, इन सबसे मिलकर क्या बनता है और क्या वह हमें या हमारी धरती को कहीं नुकसान तो नहीं पहुंचा रहा? यह खयाल आएगा तो शायद हम अपने आसपास के जल संसाधनों की स्वच्छता व सुरक्षा के प्रति गंभीर हो जाएं। गंभीर होने का अर्थ है कि आप स्थानीय समुदाय के साथ जुड़ रहे हैं और उसके सतत विकास में योगदान कर रहे हैं। यह विकास किसी एक का नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र का व बहुआयामी होगा। इससे पानी सिर्फ हमारे पीने के लिए नहीं, बल्कि खेती, बागवानी और पशु-पक्षी, सभी के लिए होगा। इससे धरती का भंडार खाली नहीं होगा। सहभागिता व सामाजिकता बढ़ेगी।

जाहिर है, स्थानीय स्तर पर जल संरक्षण हमें स्थिरता देता है। जबकि बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियां निर्ममता से अपने लाभ के लिए भूजल का दोहन करती हैं और पानी की समस्या को लगातार बढ़ाती चली जाती हैं। इससे कंपनियों के मालिकों को तो पैसा मिल जाता है मगर पानी, खेती व पर्यावरण की समस्या इस हद तक बढ़ जाती है कि रोजगार, खाद्यान्न, स्वास्थ्य हर तरह का संकट जीवन को मुश्किलात से भर देता है और अंतत: विस्थापन व अस्थिरता को बढ़ावा देता है। यही बात रासायनिक खाद, कीटनाशक व बीज कंपनियों पर लागू होती है। अपने मुनाफे के लिए वे कई तरह का झूठ फैलाती हैं जबकि हकीकत यह है कि उनसे हमारी जमीन व भूजल तो प्रदूषित हो ही रहे हैं, लाइलाज बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। जबकि वर्मी कंपोस्ट व जैविक खाद से मिट्टी की पोषकता बढ़ती है और फसल की गुणवत्ता व मात्रा में सुधार आता है।

खाद्यान्न असुरक्षा व कुपोषण भी लगातार बढ़ता ही जा रहा है तो इसका एक बड़ा कारण कीटनाशक व रासायनिक खाद भी है। बोतलबंद पानी और कीटनाशक बनाने वाली कंपनियां उस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का प्रतीक हैं जो दूसरों की कीमत पर अपने हितों का विस्तार करती हैं जबकि स्थानीय स्तर पर जल प्रबंधन तथा भू व मृदा प्रबंधन संपोषक अर्थव्यवस्था का। पहली व्यवस्था प्रकृति व पर्यावरण के प्रतिकूल है और दूसरी व्यवस्था अनुकूल। पहली व्यवस्था में संसाधनों का अधिग्रहण कर उनका निजी हित में संचय किया जाता है, जबकि दूसरी में संसाधनों को संभाला व सहेजा जाता है। पहली व्यवस्था की अंतिम परिणति विनाश, उजाड़, अस्थिरता व विस्थापन है जिससे जलवायु परिवर्तन, भूख, बीमारी व गरीबी जैसी वैश्विक समस्याएं खड़ी होती हैं, जबकि दूसरी व्यवस्था इन समस्याओं को कम करते हुए सतत विकास और स्थिरता को बढ़ावा देती है। उद्यमशीलता व आर्थिक संरचनाओं का निर्माण इस अर्थव्यवस्था के अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। यह उदारवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था की तरह मानव श्रम के शोषण पर नहीं पलती। इसमें हर व्यक्ति खुद श्रम करता है और जितना करता है उसके आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक व सामुदायिक लाभों को देखें तो उसे कई गुना होकर वापस मिलता है। भू प्रबंधन, जल प्रबंधन, खेती, उत्पाद, बीज का प्रबंधन, माल का बाजार प्रबंधन, गांव में अन्य हस्तकौशल आधारित उद्यमों का विकास व प्रबंधन, कौशल को प्रोन्नत करने के लिए सतत प्रशिक्षण, अपनी आय व बचत का प्रबंधन, ये सब वे आर्थिक संरचनाएं हैं जिनकी आज गांवों से शहर तक, हर स्तर पर जरूरत है, पर इन्हें उपर से थोपा नहीं जाना चाहिए।

तकनीक के क्षेत्र में नए ज्ञान के साथ-साथ हमारे परंपरागत हुनर को भी महत्त्व दिया जाना जरूरी है। उसमें विकास की संभावनाओं को तलाशा जाना चाहिए। ‘सेवा' संस्था ने ऐसे कई प्रयोग किए भी। मसलन, खेड़ा में पेयजल की समस्या से निपटने के लिए अपनी कार्यकर्ताओं को वर्षा जल संचयन के लिए पानी के टाके बनाने का प्रशिक्षण दिलवाया। उससे कितनी ही महिलाओं को रोजगार तो मिला ही, पेयजल की समस्या भी हल हो गई। पानी लेने के लिए अब उन्हें दूर नहीं जाना पड़ता था, जिससे उनका समय व श्रम बचा, जिसे वे अपने कढ़ाई या बुनकरी के काम में लगाने लगीं। इससे उनका उत्पादन बढ़ा। इन प्रशिक्षणों के लिए वे स्कूली पढ़ाई को जरूरी नहीं मानतीं। अलबत्ता उनका कहना है कि स्कूलों के पाठ्यक्रम में शुरू से ही हुनर को शामिल किया जाना चाहिए। हमारे यहां आम आदमी के हालात ऐसे नहीं हैं कि बच्चे बारहवीं तक स्कूल में केवल पढ़ते ही रहें। स्कूल में शुरू से ही हुनर मिल जाएगा तो वे जब चाहे उत्पादक कार्य में लग सकते हैं। उनका जोर उस नई तालीम पर है जिसकी बात बापू हमेशा करते रहे। कुल मिलाकर, हमें प्रकृति व वातावरण के अनुकूलन को केंद्र बना ऐसी संरचनाएं बनानी होंगी जिनसे सौ मील के दायरे में लोगों की रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य व बैंकिंग की जरूरतें पूरी हो सकें। ऐसा हुआ तो आज वैश्विक स्तर पर जो समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं उनसे छुटकारा मिलेगा और हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक बेहतर दुनिया सौंप सकेंगे।


http://www.jansatta.com/politics/jansatta-article-about-malnutrition-2/205572/


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