विकास के दावों के बीच जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्टें आती हैं, तो इन कोशिशों के विद्रूप की ओर न सिर्फ ध्यान दिलाती हैं, बल्कि ऐसे दावों की एक हद तक कलई भी खोल देती हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्टें चूंकि कोई निजी संस्था या गैर सरकारी संगठन तैयार नहीं करता, लिहाजा इस पर सरकारों के लिए भी सवाल उठाने की गुंजाइश नहीं रह पाती। हाल में ग्रामीण...
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भ्रष्टाचार की संस्कृति में रचे-बसे हम - एनके सिंह
हर साल की तरह इस साल भी ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट आई। भ्रष्टाचार के वैश्विक पैमाने पर भारत अंकों के आधार पर वहीं खड़ा है। पिछले हफ्ते ऑक्सफेम सहित दुनिया की तीन आर्थिक विश्लेषण संस्थाओं ने बताया कि भारत में विगत 25 सालों में गरीब-अमीर की खाई खतरनाक रूप से बढ़ती जा रही है। गरीब और गरीब होता जा रहा है, अमीर और अमीर। हमने कानून बनाए। भ्रष्टाचार के मुद्दे...
More »मंशा नेक पर अभी तो मुमकिन नहीं - सुषमा रामचंद्रन
चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास 'अ टेल ऑफ टू सिटीज" की मशहूर पंक्तियां हैं : 'वह सबसे बेहतरीन दौर था, लेकिन वह सबसे बदतर भी था।" दिल्ली सरकार के सम-विषम फॉर्मूले के परिप्रेक्ष्य में हम डिकेंस के इस संवाद को बदलकर यूं भी कर सकते हैं कि 'वह एक बेहतरीन विचार था, लेकिन वह बदतर भी था!" हां, यह जरूर है कि दिल्ली सरकार के इस निर्णय के बाद इस महानगर...
More »कैसे करें सूखे का सामना-- बाबा मायाराम
पिछले साल किसान सूखे की मार झेल चुके हैं। इस साल फिर सूखा पड़ गया। जबकि कुछ वर्षों से किसान निरंतर संकट में हैं। उनकी हालत पहले से ही खराब है। इस वर्ष सूखे ने उन्हें गहरे संकट में डाल दिया है। भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकली है। खुद कृषि मंत्रालय ने स्वीकार कर लिया है कि सामान्य से पंद्रह-सोलह फीसद कम बारिश हुई। इससे खरीफ की फसल...
More »गांवों की अनदेखी से विकास असंभव- उमेश चतुर्वेदी
उदारवादी अर्थव्यवस्था के इस दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था यदि खेती-किसानी और उसके जरिये जीने वाले गांवों पर टिकी हुई है, तो मान लेना होगा कि हजारों वर्षों से चली आ रही भारतीयता की परंपरा अब भी बनी हुई है। आर्थिक नीतियों की कामयाबी और नाकामी का पैमाना अब अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों फिच और मूडी की रिपोर्टों और उनके आकलन के आधार पर तय होता है। हाल ही में मूडी...
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