जनसत्ता 26 दिसंबर, 2013 : जैसे-जैसे सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ रही है। कांग्रेस और भाजपा अपने अधिकतम भौतिक और मानवीय संसाधन झोंक कर इस चुनाव को किसी भी तरह जीत लेने के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रही हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए उनके पास विकास के अलावा और कोई खास मुद्दा नहीं है और चूंकि इसे पहले भी कई बार आजमाया...
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यौन उत्पीड़न की जमीन- विकास नारायण राय
जनसत्ता 17 दिसंबर, 2013 : यौनिक हिंसा के चर्चित प्रकरणों पर इन दिनों चल रही राजनीति के बीच हमें स्त्री उत्पीड़न की बुनियादों को नहीं भूलना चाहिए। लगता है जैसे सत्ता-केंद्रों की आपसी खींचतान कहीं असली मुद्दों को हड़प न ले! अन्यथा शीर्ष न्यायालय के जज, अति महत्त्वाकांक्षी राजनीतिक, चर्चित मीडिया संपादकऔर भक्तों-संपत्तियों के धर्मगुरु को लपेटे में लेने वाले ये शर्मनाक प्रकरण, स्त्री विरुद्ध हिंसा के व्यापक लैंगिक संदर्भों...
More »गन्ने की कीमत से आगे- अपूर्वानंद
जनसत्ता 10 दिसंबर, 2013 : उत्तर प्रदेश से अब गन्ना उगाने वाले किसानों के मिल मालिकों से संघर्ष की खबरें आ रही हैं। यह संघर्ष जोरदार है। और एक तरह से इसे सफल जन संघर्ष कहा जा सकता है। इसने मुजफ्फरनगर की तीन महीने से चली आ रही हिंसा की खबरों को पीछे धकेल दिया है। कम से कम हिंदी अखबारों में। इस आंदोलन में भारतीय राष्ट्रीय लोक दल के लोग...
More »आधी आबादी की राजनीतिक हिस्सेदारी- अरविन्द मोहन
चुनाव आते ही अगर सभी दलों और सचेत लोगों को महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व का मसला याद आने लगता है, तो यह महिलाओं के प्रति उनके अनुराग या देश में महिलावादी आंदोलन का जोर बढ़ने का नतीजा नहीं है. अभी तक महिलाओं का अपना आंदोलन शहरों को छोड़ कर कहीं नहीं गया है. असल में इसका कारण हाल के चुनावों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी है. बीते दो-ढाई दशक में अगर...
More »आदिवासी विकास के दो चेहरे- अरुण कुमार त्रिपाठी
जनसत्ता 9 नवंबर, 2013 : देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उनमें से चार राज्य ऐसे हैं जिनमें आदिवासियों की खासी आबादी निवास करती है, यह बात हम राहुल बनाम मोदी की बहस में भूल जा रहे हैं। संयोग से ये चुनाव ऐसे अवसर पर हो रहे हैं जब आदिवासियों के विकास और उनके बारे में सरकार की नई नीति को लेकर बहस उठ...
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