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परिवहन की मुख्यधारा बनेगा नदियों का प्रवाह- जयंतीलाल भंडारी

सड़कों को तरक्की का मानक बनाने का एक नतीजा यह हुआ कि अपने जलमार्गों को हम भूल गए, जबकि इन्हें प्राकृतिक पथ कहा जाता है। सड़कें हम बनाते हैं, इन्हें तो कुदरत ने बनाया है। यही प्राकृतिक पथ कभी भारतीय परिवहन की जीवन-रेखा हुआ करते थे। लेकिन समय के साथ आए बदलावों व परिवहन के आधुनिक साधनों के चलते बीती एक सदी में भारत में जल परिवहन क्षेत्र बेहद उपेक्षित...

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किसानों के लिए कसना होगी कमर- मृणाल पांडे

मृणाल पांडे। किसान से लेकर सरकार और बाजार तक इस बार खुश हैं कि मानसून अच्छा है। किंतु किसानी का भविष्य एक ही अच्छे मानसून से आमूलचूल नहीं सुधर सकता। खेतिहरों के जीवन में लगातार विकास के लिए स्तरीय शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, अनाज का बेहतर विपणन-भंडारण, मुनाफे के सही निवेश से जुड़ी कई तरह की मदद भी जरूरी होती है। किसानी को लाभ का सौदा बनाने की जिम्मेदारी आखिरकार राज्य...

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लुप्त होती तटीय सुरक्षा पंक्ति--- रमेश कुमार दुबे

इस साल अच्छी मानसूनी बारिश से जहां किसानों के चेहरे खिल उठे हैं वहीं देश के कई हिस्से बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं। इस बाढ़ की वजह अच्छी बारिश उतनी नहीं है जितनी कि विकास की अंधी दौड़ में पानी के कुदरती निकासी तंत्र को भुला दिया जाना। शहरों का विकास नदियों के बाढ़ क्षेत्रों, तालाबों व समीपवर्ती कृषि भूमि की कीमत पर हो रहा है। शहरों के...

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आंकड़ों में ही कम हो रही महंगाई - अनुराग चतुर्वेदी

बढ़ती महंगाई एक बार फिर चर्चा में है। वरना तो महंगाई का जिक्र चुनावी सभाओं या नीति आयोग जैसी संस्थाओं की गंभीर बैठकों में होता है। अर्थशास्त्री इसे मुद्रास्फीति से जोड़ते हैं तो किसान-दुकानदार 'मुनाफाखोरी" से। महंगाई पर चर्चा क्या सिर्फ आंकड़ों की कलाबाजी है या फिर यह हकीकत से भी जुड़ी है? सरकार का दावा है कि मुद्रास्फीति की दर दो अंकों से गिरकर एक अंक की हो गई...

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बिछड़े सब बारी-बारी, खेती-बारी-- अनिल रघुराज

आखिर कोई कितना इंतजार करता! देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन कृषि नहीं.' मगर, आजादी से लेकर कृषि को इंतजार करते-करते अब सात दशक होने जा रहे हैं. वह अब भी भगवान भरोसे है. इंद्रदेव नाराज, तो सूखे की त्रासदी और खुश तो बहुत बड़े इलाके में बाढ़ की तबाही. जिनके बरदाश्त करने की हद चुक जाती है, वे इस...

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