जाति का भूत देखते ही अच्छे-अच्छों की मति मारी जाती है. या तो लोग बिल्ली के सामने आंख मूंदे खड़े कबूतर की तरह हो जाते है, कड़वी सच्चाई का सामना करने के बजाय यह खुशफहमी पालने लगते हैं कि जाति है ही नहीं. या फिर उनकी गति सावन के अंधे की तरह हो जाती है. सावन के अंधे को हरा ही हरा सूझता है और इसी तर्ज पर कुछ लोगों...
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कितना काला है काला धन?- प्रीतीश नंदी
आखिरकार कोई तो बुद्धिमानी से बोला। अब तक तो हमने काले धन को लेकर हर किसी को आक्रोश व्यक्त करते हुए ही देखा, लेकिन किसी ने व्यावहारिक समाधान नहीं सुझाया। बोफोर्स घोटाले से इसकी शुरुआत हुई थी और उसके कारण राजीव सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। फिर तो हर किसी को यह समझ में आ गया कि काला धन राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की प्रतिष्ठा को खत्म करने का एकदम...
More »कहां है सुधारों की अगली खेप-- रामचंद्र गुहा
सन 2009 के आम चुनाव के ठीक बाद मैंने बेंगलुरु में एक भाषण सुना, जो नई सरकार के लिए नीतियों के नए रोडमैप पर था। वक्ता थे राकेश मोहन, जो उद्योग व वित्त मंत्रालय में वरिष्ठ पदों पर रह चुके थे और उस वक्त रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर थे। राकेश मोहन का कहना था कि आर्थिक सुधारों की पहली लहर ने व्यापार को सरकारी नियंत्रण से बाहर निकाला और...
More »छोटी नहीं क्यूबा की यह उपलब्धि- सुभाष गताडे
एक छोटे-से मुल्क क्यूबा ने पिछले दिनों सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है। वह दुनिया का पहला ऐसा मुल्क बना है, जिसने मां के जरिये बच्चे में होने वाले एचआईवी एवं सिफलिस के संक्रमण को रोकने में कामयाबी पाई है। पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन ने खुद क्यूबा की इस उपलब्धि की तस्दीक की। विश्व स्वास्थ्य संगठन के पैमाने के मुताबिक, अगर प्रति एक लाख नवजात...
More »सामाजिक, आर्थिक व जातीय जनगणना : समावेशी जुबान, मंशा अनजान!
आजादी के बाद भारत में गरीबी रेखा तय करने की दिशा में उठाये गये विभिन्न कदमों की सूची में पिछले कुछ वर्षो के दौरान संचालित सामाजिक, आर्थिक व जाति सर्वेक्षण का महत्वपूर्ण स्थान है. इसमें पहली बार किसी परिवार की सामाजिक पहचान को तरजीह दी गयी है. देश में लंबे अरसे से ऐसी मान्यता रही है कि गरीबी की मार कुछ सामाजिक श्रेणियों को ज्यादा ङोलनी पड़ती है, जिनमें से...
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