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किसानों की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार- राम कौंडिन्या

भारतीय किसान की तस्वीर आज भी कमोबेश कक्षा आठ में लिखे जाने वाले उस निबंध से बाहर नहीं निकल पाई है, जहां हम पहली लाइन में तो यह लिखते थे कि किसान देश का पेट पालते हैं, लेकिन आखिरी लाइन यही रहती थी कि किसान किसानी से इतना कमा नहीं पाते कि वे अपना पेट पाल सकें। भारतीय किसान की यह तस्वीर बदलती क्यों नहीं है? जीवन के हर हर क्षेत्रों में...

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ताकि पारदर्शी हो व्यवस्था - महेश राठी

देश में सूचना का अधिकार एक ऐसी क्रांति के रूप में आया है, जिसमें न हिंसा है, न ही किसी के अधिकारों का अतिक्रमण। व्यवस्था में पारदर्शिता और जनवादी मजबूती के लिए सिर्फ सवाल हैं और जानकारी की चाह है। यह क्रांति जिस गति से देश के हर हिस्से में दस्तक दे रही है, आरटीआई के अग्रणी कार्यकर्ताओं पर हमलों के रूप में इस जनवादी संकल्पना के लिए चुनौतियां भी उसी तेजी...

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डरबन से क्या हासिल हुआ- अजय झा

जनसत्ता 20 दिसंबर, 2011: डरबन में जलवायु संकट पर अपने निश्चित समय से छत्तीस घंटे देर तक चली अंतरराष्ट्रीय शिखर वार्ता की सबसे खास बात यह थी कि किसी भी महत्त्वपूर्ण पहलू पर समझौता हुए बिना इसके परिणाम को एक बड़ी कामयाबी की तरह पेश किया गया। बकौल आयोजक और विकसित देश, समझौता अत्यधिक सफल रहा। मंत्री मशाबेन, जो कि वार्ता की अध्यक्ष थीं, ने पिछली अध्यक्ष मैक्सिको की पैट्रीशिया...

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डरबन से आगे की डगर- सुनील यादव

दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से लौटने के बाद अब विभिन्न देशों ने ‘क्या खोया- क्या पाया’ का आकलन शुरू कर दिया है। ऐसे में हम पाते हैं कि पर्यावरणीय चिंता के वैश्विक सवाल पर यूरोपीय संघ जहां विजेता की मुद्रा में है, वहीं हमारा देश ‘अड़ियल’ का खिताब लेकर लौटा है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन समझौते के अंतर्गत 1992 में ब्राजील के रियो...

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खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के खतरे- शरद यादव

 खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत का निर्णय केंद्र सरकार ने ऐसे समय किया जिस समय वह मूल्यवृद्धि और काले धन पर संसद में घिरी हुई थी। इसके साथ ही उसने विपक्ष के साथ टकराव का एक और मोर्चा खोल दिया है। उसके इस निर्णय की दो व्याख्याएं हो सकती हैं। पहली यह है कि केंद्र सरकार चाहती ही नहीं कि संसद सही तरीके से चले और वह टकराव...

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