कमजोर सेवा और कम उत्पादकता के कारण आम आदमी ही नहीं, निवेशक भी हमारी नौकरशाही की व्यवस्था को लेकर अच्छी राय नहीं रखते। फिर भी, इस सच्चाई को अनदेखा कर दिया जाता है कि सरकारी कर्मचारी, खासतौर से ऊंचे दर्जे के कर्मी, निजी क्षेत्र के कर्मियों के मुकाबले कम वेतन पर काम करने को मजबूर हैं। मसलन, 25 साल का अनुभव रखने वाले सरकारी डॉक्टर को औसतन 2.1 से 2.8...
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सार्वजनिक बैंकों को केंद्र से 230 अरब की वित्तीय मदद
नई दिल्ली। बढ़ते एनपीए के बोझ और घटते मुनाफे से परेशान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में केंद्र सरकार ने वायदे के मुताबिक तकरीबन 23 हजार करोड़ रुपये की पूंजी बढ़ा दी है। वित्त मंत्रालय की तरफ से बताया गया है कि 13 बैंको को 22,915 करोड़ रुपये की राशि बतौर पुनर्पूंजीकरण दी गई है। इस राशि से बैंकों के लिए विभिन्न वैधानिक मानकों को बनाये रखने में मदद मिलेगी। सबसे ज्यादा...
More »पूर्णिया में राशन की जगह मिलेगी नकदी
नई दिल्ली। देश के तीन केंद्र शासित क्षेत्रों में सफलतापूर्वक लागू होने के बाद बिहार के पूर्णिया और झारखंड की राजधानी रांची में सार्वजनिक राशन प्रणाली में राशन बांटने की जगह उपभोक्ताओं के खाते में सीधे नकदी जमा करने की योजना लागू की जाएगी। केंद्र व राज्यों की सहमति से इन दोनों राज्यों में तैयारियां शुरू कर दी गई हैं। केंद्र सरकार ने नकदी प्रणाली को चाक चौबंद बनाकर लीकप्रूफ...
More »शहरीकरण की विसंगतियां--- रमेश कुमार दूबे
शहरीकरण को लेकर सरकार का नजरिया यह है कि इस पर सियापा करने के बजाय इसे मौके के रूप में देखा जाना चाहिए। उसके मुताबिक शहरों में गरीबी दूर करने की ताकत होती है और हमें इस ताकत को और आगे बढ़ाना चाहिए ताकि आर्थिक समृद्धि का स्वत: प्रसार हो। सुख-सुविधाओं की मौजूदगी के चलते शहर सदा से मनुष्य के आकर्षण के केंद्र रहे हैं। आज की तारीख में तो ये...
More »सब्सिडी : कल्याण या राजनीति? मुफ्तखोरी के दुष्चक्र में फंसता देश
ज्यादातर देशों में एक ओर जहां राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी को हथियार बनाती हैं, वहीं इसी दुनिया में स्विटजरलैंड जैसा भी एक देश है, जहां की जनता ने सरकार की इस पेशकश को ठुकरा दिया. दूसरी तरफ भारत में देखें तो राजनीतिक पार्टियां और सरकारें मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्तखोरी को बढ़ावा देनेवाली नीतियों को प्रश्रय देती रहती हैं भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में सब्सिडी एक जरूरी...
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