इस इलाके में रहनेवाले लोगों के बेटे-बेटियों के लिए रिश्ते नहीं आते. तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा था, चार माह में यहां दिखेगा बदलाव, लेकिन हालात यह है कि यहां जीवन काटना भी मुश्किल है. फिर भी लोग यहां बसर कर रहे हैं इस उम्मीद में कि कभी तो उनके भी दिन बहुरेंगे. ।। सरयू से लौट कर जीवेश ।। चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा लगभग दो...
More »SEARCH RESULT
टैक्स इतना ले लिया, दोगे कितना!-- अनिल रघुराज
आजाद भारत का पहला बजट नवंबर 1947 में पेश किया था. तब से लेकर अब तक के 68 सालों में अगर देश के कोने-कोने तक सड़क, बिजली, पानी व सिंचाई का भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षा व स्वास्थ्य जैसा सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं पहुंचा है, तो इसके लिए हम और हमारे बाप-दादा ही दोषी हैं. हम सिर नीचा किये गाय की तरह घास चरते रहे. कभी सिर उठा कर पूछा नहीं कि...
More »वे दीवारें, जिन्हें लांघना है मुश्किल - सईद नकवी
पहली कहानी एक पीएचडी छात्र रोहित वेमुला की है, जो कार्ल सागान जैसा अंतरिक्ष विज्ञानी बनना चाहता था, लेकिन अंतत: वह आत्महत्या कर लेता है। दूसरी कहानी सीवेज की सफाई करने वाले एक व्यक्ति की है, जो सीवेज में जिंदा कॉकरोच की तलाश करता है। उन्हें देखकर उसे सुरक्षा का अहसास होता है कि कम से कम जहरीली गैसों से उसकी मौत नहीं होगी। एक दिन उसका आकलन गलत साबित...
More »सही दिशा में है आर्थिक नीति- तवलीन सिंह
दावोस की पहली सुबह जब मैं बर्फ से ढके बाजार में निकली, तो एक कैफे के शीशे के चमकते दरवाजे पर 'मेक इन इंडिया' पढ़ा, जो बड़े अक्षरों में उस शेर की बगल में लिखा था, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस सपने का प्रतीक बन गया है। यह इसलिए भी अच्छा लगा कि कई वर्षों से निवेशकों के इस महत्वपूर्ण आर्थिक सम्मेलन में भारत अदृश्य रहा है। यह भी...
More »जो मनुष्यता में यकीन रखते हैं-- निवेदिता शकील
रात सर्द हो आयी है. आसमान में धंुधले तारे चमक रहे हैं. रात का लंबा रुपहला दीर्घोच्छवास सुनायी दे रहा है. कमरे के बीचो-बीच रोशनी के छोटे वृत्त से बाहर मैं रोहित वेमुला का खत पढ़ रही हूं. मेरा चेहरा आंसुओं से भीग रहा है. मैं देख रही हूं, सुलगती हुई लकड़ियों से लपलपाती लपटों से उठता हुआ धुआं. एक ही देश में रहते हुए हम सब एक-दूसरे से कितने अनजाने...
More »