सफल लोकतंत्र के लिए समाज के हर स्तर पर लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति श्रद्धा का होना जरूरी है. यदि व्यक्ति, परिवार, जाति समूहों और प्रकृति के साथ हमारा लोकतांत्रिक संबंध नहीं होगा, तो फिर राज्य और सरकार के स्तर पर भी इसका होना संभव नहीं है. बलात्कार, भीड़ द्वारा हत्या, धर्म के नाम पर हिंसा, घरेलू हिंसा आदि में यदि बढ़ोतरी हो रही हो, तो फिर हमें समझना चाहिए कि...
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अब भी कम नहीं आर्थिक चुनौतियां - सुषमा रामचंद्रन
कई बार हमें जैसा दिखता है, वैसा होता नहीं। फिलहाल भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में भी यह बात सच लगती है। हां, यह सही है कि अर्थव्यवस्था को लेकर खुशी का माहौल है और शेयर बाजार सूचकांक नई बुलंदियों को छू रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि आगामी वर्ष के लिए देश का आर्थिक परिदृश्य उतना सुहावना नजर नहीं आता। हां, ऑटोमोबाइल्स और उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री में उछाल...
More »आक्रोश जरूरी है पर भीड़ की हिंसा शर्मनाक- कैलाश सत्यार्थी
देश में बच्चा चोरी के नाम पर मॉब लिंचिंग यानी उन्मादी भीड़ द्वारा निर्दोषों की हत्याएं लगातार बढ़ रही हैं। पिछले करीब डेढ़ महीने में त्रिपुरा, असम, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तेलंगाना और कर्नाटक में ऐसी 20 हत्याएं हो चुकी हैं। सिर्फ हत्यारी भीड़ को ही नहीं, बल्कि इलाके के आम लोगों को शक था कि बच्चा चोर किडनियां बेचने, वेश्यावृत्ति कराने और शहरों में भीख मंगवाने के लिए...
More »धान के गीत गानेवाले-- डा. अनुज लुगुन
धान रोपनी का एक गीत है- ‘रोपा रोपे गेले रे डिंडा दंगोड़ी गुन्गु उपारे जिलिपी लगाये / लाजो नहीं लगे रे डिंडा दंगोड़ी गुन्गु उपारे जिलिपी लगाये /हर जोते गेले रे डिंडा दंगोड़ा एड़ी भईर तोलोंग लोसाते जाये /लाजो नहीं लगे रे डिंडा दंगोड़ा एड़ी भईर तोलोंग लोसाते जाये.' झारखंड के आदिवासियों के द्वारा गाये जानेवाले इस गीत में धान की खेती के समय का उल्लास है. यह धान की...
More »तेल पर निर्भरता घटाने का वक्त - डॉ. जयंतीलाल भंडारी
भारत ने देर से ही सही, तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक पर कच्चे तेल की कीमतों में कटौती के लिए दबाव डालते हुए उचित कदम उठाया है। यद्यपि 1 जुलाई से ओपेक ने कच्चे तेल के उत्पादन में लगभग 10 लाख बैरल प्रतिदिन (बीपीडी) की बढ़ोतरी की है, लेकिन हकीकत यह है कि कीमतें अब भी कम नहीं हो पाई हैं। नि:संदेह बीते कुछ वक्त से तेल की लगातार...
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