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नारों के हिंडोले और हमारी हकीकत-- शशिशेखर

अपनी 72 साला आजादी में भारत ने कुलजमा 16 आम चुनाव देखे हैं। इसके बावजूद सवाल कायम है कि हमारा लोकतंत्र सही दिशा में बढ़ रहा है या नहीं? क्या वजह है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने विशाल आकार को अभी वांछित प्रकार से व्यवस्थित नहीं कर सका है? बताने की जरूरत नहीं कि आजादी के बाद पहला आम चुनाव 1951-52 में हुआ था। उस समय हिन्दुस्तान का...

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किसानों की मौत छिपाता और सैनिकों की मौत भुनाता दिखावटी राष्ट्रवाद- अनुराग मोदी

1965 में एक तरफ देश की सीमा पर पाकिस्तान के साथ युद्ध हो रहा था और दूसरी तरफ देश सूखे और अकाल के संकट से जूझ रहा था. ऐसे समय में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने नारा दिया था- ‘जय-जवान, जय-किसान.' आज पहले से ज्यादा किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे है- कुछ नहीं बदला, बल्कि इतने बुरे हालात कभी नहीं रहे. सरकार की नीतियों ने उनकी समस्या और बढ़ा...

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गरीब बदनसीब के आंसुओं से परेशां - गोपालकृष्ण गांधी

कोई तीस साल हुए। शायद उससे भी कुछ ज्यादा। दिल्ली से मैं रेलगाड़ी में जा रहा था। कहां जा रहा था, यह याद नहीं। पर सफर साफ याद है मुझे, जैसे कि कल नहीं आज हुआ हो। क्यूं? क्या हुआ था उस सफर में जो कि भुलाया ना जाए? कोई हादसा? कोई तिलस्मी अनुभव? किसी ऋषि-मुनि का, संयोग से, जीवन बदल देने वाला दर्शन? नहीं, ऐसा कुछ नहीं! एक गाना। सिर्फ,...

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ऐसा कर्ज तो किसान को डुबोएगा ही-- सोमपाल शास्त्री

शुक्रवार को अपनी मांगों के साथ देश भर के किसान एक बार फिर दिल्ली की सड़कें नापते रहे। बीते कुछ महीनों में यह तीसरा मौका था, जब वे अपनी खेती-किसानी छोड़कर अपने हक के लिए देश की राजधानी में थे। कर्ज माफी और फसलों के उचित दाम के अलावा उनकी एक प्रमुख मांग किसानों के मसले पर संसद का विशेष सत्र बुलाना भी है। इसके लिए उन्होंने देश की सबसे...

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क्या कभी उनका सही आकलन होगा-- हरजिंदर

हम आज उनकी 129वीं जयंती मना रहे हैं, और जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा था, उसे भी आधी सदी से ज्यादा का समय बीत चुका है। लेकिन इस लंबे दौर में देश के पहले प्रधानमंत्री और महात्मा गांधी के बाद उस दौर के निस्संदेह सबसे लोकप्रिय नेता जवाहरलाल नेहरू का शायद ही कभी ईमानदार विश्लेषण सामने आया हो। शुरू के दौर में तो शायद वह आ भी नहीं...

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