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समावेशी कृषि हो 2022 के लिए विकास का रोडमैप

-रूरल वॉइस, अब देश के नीति निर्माताओं को अभी की जरूरत, वर्तमान संकट का उपाय जैसे शब्दों को नकार कर देश की समस्याओं के लिए स्थायी समाधान तलाशने होंगे। भ्रष्टाचार, निरक्षरता, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली, गरीबी, जलवायु परिवर्तन, घटता भूजल स्तर, वायु प्रदूषण, ठोस अवशेष, महिला सशक्तीकरण, बेरोजगारी, कृषि संकट, बाढ़, सुखाड़, लंबित न्याय, सकल घरेलू उत्पाद आदि मुद्दे आज देश के सामने हैं जिनको प्राथमिकता के आधार पर हल...

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पीएमजेएवाई का सच: कोविड-19 की दूसरी लहर में निजी बीमा कंपनियों ने की मनमानी

-डाउन टू अर्थ, स्वास्थ्य के क्षेत्र में बीमा केंद्रित दृष्टिकोण महामारी के दौरान कितना प्रभावी रहा?  कोरोना काल में बीमाधारकों के अनुभव बताते हैं कि उन्हें वादों के अनुरूप बीमा का लाभ नहीं मिला। ऐसे में क्या सरकार स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर फिर से अपना ध्यान केंद्रित करेगी? हम एक लंबी सीरीज के जरिए आपको बीमा के उन अनुभवों और सच्चाईयों से वाकिफ कराएंगे जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत जब थी,...

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शहरीकरण, लैंगिक और सामाजिक परिवर्तन: महिलाओं की राजनीतिक वरीयताओं को आकार देने में मीडिया की भूमिका

-आइडियाज फॉर इंडिया, राजनीतिक वरीयताओं को तय करने में सूचना स्रोतों की क्या भूमिका होती है, और किन परिस्थितियों में महिलाएं अपनी राजनीतिक राय बनाने के लिए पुरुषों से अलग संज्ञानात्मक सोच रखती हैं? इसका पता लगाने हेतु, उत्तर भारत के दो शहरी समूहों के किये गए सर्वेक्षण डेटा का उपयोग करते हुए, यह लेख दर्शाता है कि रोजगार या अन्य गतिविधियों के माध्यम से घर के बाहर के महिलाओं के नेटवर्क का...

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उत्तर प्रदेश: मंडियों की कमाई में आई 770 करोड़ रुपए की कमी, विवादित कृषि कानून बना प्रमुख कारण

-न्यूजलॉन्ड्री, उत्तर प्रदेश सरकार ने विधानसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि बीते साल मंडी शुल्क में भारी कमी आई है. जवाब के मुताबिक जहां 2019-20 में मंडी शुल्क के रूप में 1390.60 करोड़ रुपए प्राप्त हुए थे, वहीं 2020-21 में घटकर 620.81 करोड़ रुपए हो गया. मंडी शुल्क में आई इस कमी की एक वजह केंद्र सरकार द्वारा पास किए गए तीन विवादित कृषि कानूनों में से एक कृषि...

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गुणवत्तापरक शिक्षा तथा मानवाधिकार का सवाल और हमारी जिम्मेदारी

-जनपथ, किसी भी जीवात्मा के मानव जाति में प्रवेश के साथ ही उसको कुछ नैसर्गिक अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो उसके सम्मानपूर्वक जीवन जीने का आधार बनते हैं। भारत के लिए मानवाधिकार कोई नई अवधारणा नहीं है। भारतीय संस्कृति में मानव के कल्याण की हमेशा कामना की जाती है जो कि मानवाधिकार का मूल स्रोत है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणा पत्र को...

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