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विषमता का विकास और राजनीति- सुरेश पंडित

जनसत्ता 26 दिसंबर, 2013 : जैसे-जैसे सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ रही है। कांग्रेस और भाजपा अपने अधिकतम भौतिक और मानवीय संसाधन झोंक कर इस चुनाव को किसी भी तरह जीत लेने के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रही हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए उनके पास विकास के अलावा और कोई खास मुद्दा नहीं है और चूंकि इसे पहले भी कई बार आजमाया...

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आधी आबादी की राजनीतिक हिस्सेदारी- अरविन्द मोहन

चुनाव आते ही अगर सभी दलों और सचेत लोगों को महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व का मसला याद आने लगता है, तो यह महिलाओं के प्रति उनके अनुराग या देश में महिलावादी आंदोलन का जोर बढ़ने का नतीजा नहीं है. अभी तक महिलाओं का अपना आंदोलन शहरों को छोड़ कर कहीं नहीं गया है. असल में इसका कारण हाल के चुनावों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी है. बीते दो-ढाई दशक में अगर...

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तेलंगाना की तस्वीर- विनय सुल्तान

जनसत्ता 16 नवंबर, 2013 :  तेलंगाना की सात दिन की यात्रा से पहले मेरे लिए तेलंगाना का मतलब था आंदोलनकारी छात्र, लाठीचार्ज, आगजनी, आत्मदाह, रवि नारायण रेड्डी और नक्सलबाड़ी आंदोलन। संसद के शीतकालीन सत्र में तेलंगाना के दस जिलों की साढ़े तीन करोड़ आबादी का मुस्तकबिल लिखा जाना है। मेरे लिए यह सबसे सुनहरा मौका था वहां के लोगों के अनुभवों और उम्मीदों को समझने का। पृथक राज्यों की मांग के पीछे...

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आदिवासी विकास के दो चेहरे- अरुण कुमार त्रिपाठी

जनसत्ता 9 नवंबर, 2013 : देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उनमें से चार राज्य ऐसे हैं जिनमें आदिवासियों की खासी आबादी निवास करती है, यह बात हम राहुल बनाम मोदी की बहस में भूल जा रहे हैं। संयोग से ये चुनाव ऐसे अवसर पर हो रहे हैं जब आदिवासियों के विकास और उनके बारे में सरकार की नई नीति को लेकर बहस उठ...

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दलित-प्रश्न और मीडिया- उर्मिलेश

जनसत्ता 25 अक्तूबर, 2013 : ‘नो वन किल्ड जेसिका’, सिर्फ एक शानदार अखबारी शीर्षक नहीं था। अपराध-दंड प्रक्रिया में व्याप्त विसंगतियों को उद्घाटित कर वह एक जन-अभियान का नारा बन गया, जिसने अंतत: कामयाबी हासिल की। लेकिन मध्य बिहार के लक्ष्मणपुर-बाथे में मारे गए दलित-उत्पीड़ित तबके के अट्ठावन लोगों के बारे में लंबे इंतजार के बाद नौ अक्तूबर को पटना उच्च न्यायालय का जो फैसला आया, उसके बाद ऐसी आवाजें...

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